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उत्तराध्ययन/३८ करता है।८६ महाभारत की दृष्टि से भी आत्महत्या करने वाला कल्याणप्रद लोक में नहीं जा सकता।८७ वाल्मीकि रामायण, शांकरभाष्य-९, बृहदारण्यकोपनिषद्१०, महाभारत९१, आदि ग्रन्थों में आत्मघात को अत्यन्त हीन माना है। जो आत्मघात करते हैं उनके सम्बन्ध में मनुस्मृति१२ याज्ञवल्क्य३, उषन्स्मृति१४, कूर्मपुराण१५, अग्निपुराण९६, पाराशस्मृति१७, आदि ग्रन्थों में बताया है कि उन्हें जलाञ्जलि भी नहीं देनी चाहिए।
जहाँ एक ओर आत्मघात को निंद्य माना है तो दूसरी ओर विशेष पापों के प्रायश्चित के रूप में आत्मघात का समर्थन भी किया है, जैसे मनुस्मृति में आत्मघाती, मदिरापायी ब्राह्मण, गुरुपत्नीगामी को उग्र शस्र, अग्नि आदि से आत्मघात करने का विधान है९८ क्योंकि वह उससे शुद्ध होता है। याज्ञवल्क्यस्मृति१९, गौतमस्मृति१००, वशिष्ठस्मृति१०१, आपस्तम्भीय धर्मसूत्र१०२, महाभारत१०३, आदि में इसी तरह से शुद्धि के उपाय बताये हैं। जिसके फलस्वरूप काशीकरवट, प्रयाग में अक्षयवट से कूदकर आत्महत्या करने की प्रथाएँ प्रचलित हुईं। इस प्रकार मृत्युवरण को एक पवित्र और श्रेष्ठ धार्मिक आचरण माना गया। महाभारत के अनुशासनपर्व१०४, वनपर्व१०५, मत्स्यपुराण५०६ में स्पष्ट वर्णन है-अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या अनशन द्वारा देहत्याग करने पर ब्रह्मलोक अथवा मुक्ति प्राप्त होती है।
प्रयाग, सरस्वती, काशी आदि तीर्थस्थलों में आत्मघात करने का विधान है। महाभारत में कहा हैवेदवचन या लोकवचन से प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिए।१०७ इसी प्रकार कूर्मपुराण१०८,
८६. अतिमानादतिक्रोधात्स्नेहाता यदि वा भयात् ।
उद्बनीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते॥ पूयशोणितसम्पूर्णे अन्धे तमसि मज्जति ।
षष्टिवर्षसहस्राणि नरकं प्रतिपद्यते॥ -पाराशरस्मृति ४-१-२ ८७. महाभारत, आदिपर्व १७९-२० ८८. वाल्मीकि रामायण ८६, ८३ ८९. आत्मनं जनन्तीत्यात्महनः । के ते जना: येऽविद्वांस ... अविद्यादोषेण विद्यमानस्यात्मनस्तिरस्करणात्
प्राकृतविद्वांसो आत्महन उच्यन्ते। ९०. बृहदारण्यकोपनिषद् ४, ४-११
९१. महाभारत, आदिपर्व १७८-२० ९२. मनुस्मृति ५, ८९
९३. याज्ञवल्क्य ३, ६ ९४. उषन्स्मृ ति ७, २
९५. कूर्मपुराण, उत्त. २३-७३ ९६. अग्निपुराण १५७-३२
९७. पाराशरस्मृति ४,४-७ ९८. सुरां पीत्वा द्विजो महोदग्निवर्णां सुरां पिबेत् । ___ तया स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्तत॥ -मनुस्मृति ११, ९०, ९१, १०३, १०४ ९९. याज्ञवल्क्य स्मृति ३, २४८, ३-२५३ १००. गौतमस्मृति २३, १ १०१. (क) वशिष्ठस्मृति २०, १३-१४
(ख) आचार्य-पुत्र-शिष्य- भार्यासु चैवम्। -वशिष्ठस्मृति १२-१५ १०२. आपस्तंबीय धर्मसूत्र १९, २५, १ से ७ १०३. महाभारत—अनुशासनपर्व, अ. १२ १०४. महाभारत–अनुशासनपर्व २५, ६१-६४ १०५. महाभारत–वनपर्व ८५-८३ १०६. मत्स्यपुराण १८६, ३४-३५ १०७. न वेदवचनात् तात! न लोकवचनादपि।
मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ॥–महाभारत, वनपर्व ८५, ८३ १०८. कूर्मपुराण १, ३६, १४७; १, ३७३, ४