________________ प्राक्कथन निशीथसूत्र का स्थान प्रागमों में उपलब्ध आगमों में चार आगमों को छेदसत्र की संज्ञा दी गई है। यह संज्ञा आगमकालीन नहीं है अर्थात् नन्दीसूत्र आदि किसी भी आगम में यह संज्ञा, यह नामकरण नहीं मिलता है। अतः यह संज्ञा देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के बाद अर्थात वीर निर्वाण के हजार वर्ष बाद दी गई है, जो परम्परा से आज तक चली प्रा इन छेदसूत्रों के क्रम में कई विभिन्नताएं प्रचलित हैं। कहीं दशाश्रुतस्कंध को तो कहीं व्यवहारसूत्र को प्रथम स्थान दिया जाता है। व्यवहारसूत्र के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इन चार छेदसूत्रों में निशोथसूत्र का स्थान अध्ययन की अपेक्षा प्रथम है, उसके बाद क्रम से दसा-कप्प-बबहार का स्थान है। प्रामम पुरुष की रचना करने वाले पूर्वाचार्यों ने एवं 45 प्रागमों का संक्षिप्त परिचय लिखने वाले विद्वानों ने भी निशीथसूत्र को छेदसूत्र में प्रथम स्थान दिया है। निशीथसूत्र की उत्पत्ति का निर्णय-आगमाधार से रचनाकाल या रचनाकार की अपेक्षा दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र के रचयिता (नियूंढकर्ता) चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी हैं, किन्तु निशीथसत्र की रचना के विषय में अनेक विकल्प हैं। जो इतिहासज्ञों और चितकों के भ्रमकारक वातावरण का परिणाम है। उस ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर आज तक भी अन्वेषक विद्वान् निश्चित रूप से कहने का अधिकार नहीं रखते कि "निशीथसूत्र अमुक' प्राचार्य की ही रचना है।" वस्तुस्थिति कुछ और ही है। इतिहास-परंपरा से अलग होकर यदि आगमपाठों के चितन से निर्णय किया जाय तो वह ठोस एवं प्रामाणिक निर्णय हो सकता है। इस सूत्र को पूर्वो से उद्धृत कहने की परंपरा सूत्रानुकूल नहीं है / इसका कारण यह है कि चौदह पूर्वी भद्रबाहुस्वामी ने व्यवहारसत्र की रचना की है, यह निर्विवाद है। उस सत्र में उन्होंने एक बार भी 'निशीथसूत्र' यह नाम नहीं दिया है / आचारप्रकल्प या आचारप्रकल्प-अध्ययन यह नाम सोलह बार दिया है। जिसका अध्ययन करना एवं कण्ठस्थ धारण करना प्रत्येक योग्य साधु-साध्वी के लिए आवश्यक है। इसे कंठस्थ धारण नहीं करने वाले साधु-साध्वी को संघाडाप्रमुख या आचार्य, उपाध्याय आदि पदों की प्राप्ति का निषेध किया है और उसे भूल जाने वाले यूवक संत-सतियों को प्रायश्चित्त का पात्र बताया है। प्रागम के अनेक वर्णनों से यह स्पष्ट है कि साध्वियों को पूर्वश्रुत का अध्ययन नहीं कराया जाता है। जब कि आचारप्रकल्प साध्वियों को कंठस्थ धारण करने का एवं याद रखने का आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने व्यवहारसूत्र में स्पष्ट विधान किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org