________________ अर्हम् अप्रकाश्यों का प्रकाशन प्रायश्चित्त प्ररूपक प्रागमों को अप्रकाश्य मानने का एवं रखने का प्रमुख कारण था, उन्हें अपात्र या कुपात्र न पढ़े, क्योंकि वे उसका अनुचित उपयोग या दुरुपयोग करते हैं / अत: उन्हें अप्रकाश्य रखना सर्वथा उचित था। आगमों की बाचना के आदान-प्रदान में जब तक श्रुत-परम्परा प्रचलित रही तब तक सभी आगम अप्रकाश्य रहे। चाणक्य ने स्वरचित सूत्र में कहा है-"न लेख्या गुप्तवार्ता" जिस बात को गुप्त रखना चाहते हो उसे लिखो मत / तात्पर्य यह है कि जो रहस्य लिखा जाता है वह रहस्य नहीं रहता, किसी न किसी प्रकार से प्रकट हो ही जाता है। षटकों भिद्यते मंत्र-जो बात छः कानों में चली जाती है वह बात भी सब जगह फैल जाती है। कहने वाला एक और सुनने वाला भी एक हो, इस प्रकार जब बात दो तक सीमित रहती है तब तक वह गुप्त रहती है। जब कहने वाला एक हो और सुनने वाले दो हों या दो से अधिक हों तब कहने वाले की बात गुप्त नहीं रह पाती है, गुप्त रखने के लिये चाहे जितने प्रयास करें सफल नहीं होते। जैनों में और वैदिकों में जब तक श्रुत परम्परा प्रचलित रही तब तक भी अप्रकाश्य आगम अप्रकाश्य नहीं रहे थे। क्योंकि उस समय भी स्व-सिद्धान्त और पर (अन्य) / सिद्धान्त के ज्ञाता होते थे। जैन, जनेतर दर्शनों का अध्ययन करते थे और जनेतर, जनदर्शन का अध्ययन करते थे। अत: यह स्पष्ट है कि जैनों और जनेतरों में श्रत परम्परा प्रचलित थी। उस समय भी आगम अप्रकाश्य नहीं रहे थे। अवपिणी काल के प्रभाव से धारणा शक्ति या स्मरण शक्ति शनैः शनैः क्षीण होने लगी तो प्रागमों और ग्रन्थों का लेखन प्रारम्भ हो गया / ज्यों-ज्यों आगमों का लेखन कार्य प्रगति करने लगा तो प्रायश्चित्त प्रतिपादक आगम भी लिखे जाने लगे, इस प्रकार अप्रकाश्य आगम प्रकाश्य हो गए / मुद्रण युग की प्रगति होने पर तो अप्रकाश्य आगम और अधिक प्रकाश्य हो गए। संस्कृत या प्राकृत में रचित प्रायश्चित्त विषयक आगमों का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित न करवाने का प्रमुख कारण यही है कि उन्हें सर्व साधारण से गुप्त रखा जाए / किन्तु जिसकी जिज्ञासा उत्कट होती है वह तो प्रयत्न करके अपनी जिज्ञासा जैसे-तैसे पूरी कर ही लेता है। अद्यावधि प्रकाशित निशीथादि चारों आगमों के हिन्दी अनुवाद सहित संस्करण वर्तमान में अनुपलब्ध होने से स्वर्गीय युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. "मधुकरजी" की प्रेरणा से आयोजित प्रागम प्रकाशन समिति द्वारा चारों आगम प्रकाशित किए गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org