Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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मत्र
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
नमांसत्ता एवं पयासी इमीसेणं भंते! वारवतिए णयरीए णवजायणं विच्छिन्ना जाव पच्चक्खदेवलोक भृताए किं मूलाए विणीसे भवस्मइ ॥ १० ॥ कण्हाइ अरहा अरिटुनेमी कण्हवासुदेवं एवं क्यासी-एवं खलु कण्हा ! इमीसे वारवतिएनयरीए नवजोयण विछिन्ना जाव देवलोकभूयाए म्यग्गी दीवायणमूला ते विणासे भविस्सइ ॥ ११ ॥ कण्हवासुदेवस्स अरहा अरिट्टनेमीरस अंतिए एवमटुंसोचा निसम्म अयं अज्झस्थिए जाव समुप्पन्ले धन्नेणते जाली, मयाली, उवयाली, पुरिससेण, वारीसेण,
पज्जुण, संब. अनिरुद्धे, सच्चनेमी, दढनेमी पभत्तीओ कुमारा जेणं चिच्चाहिरणं जाव करके यों पूछने लगे-अहो भगवन् ! द्वारका नगरी नव योजन की चौडी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक जैसी इस का किस कारन से विनाश होवेगा ? ॥ १० ॥ कृष्णदि, आरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से यों बोले-यों मिश्चय, हे कृष्ण ! यह द्वारका नगरी नव योजन की चौडी यावत् देवलोक जैसी अनि कुमार देवता दीपायरूपी मरकर होगा उस के योग्य से इस का विनाश होगा ।।११।। कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवन्त के मुख से उक्त अर्थ श्रवण कर इस प्रकार विचार करने लगे-धन्य है जाली. मयाली, उचाली, पुरिषसेन, बारीसेन, प्रद्युम्न, साम्ब, अनिरुद्ध, सत्यनेमी तथा दृढ नेमी प्रमुख कुमारों को कि जिनोंने हिरणादि (चांदी प्रमुख ) का त्याग कर यावत् विभाग बांटकर अरिहंत अरिष्ट
*प्रकाशक-सजावहदर लाला सुखदवमहायजी घालाप्रसादजी
iranormanawani
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