Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
भति ॥४७॥ तत्तेणं से अज्जुणए अणगारे अदीणे, अविमणे, अकलुसे, अणाइले, अविसादिय, अपरितंतेजोगी अंडीत २ रायगिहे नगराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव गुणासिलते चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे जहेब गोतमसामी जाव पड़िदंसेडु र सयणं भगवं महावीरं अब्भणुणायसमाणे अमुच्छिते ४ विलमिव पन्नग भएणं अप्पाणेणं तंमहारे आहारइ २ ता ॥४८॥ तत्तेणं समणे भगवं महावीर
अण्णयाकयाई रायगिहातो पडिनिक्खमइ २ ब्रहिया जणमय विहारं विहरति ॥४९॥ तो पानी नहीं मिले और पानी मिले तो आहार नहीं मिले ॥ ४७ ॥ तव वह अर्जुन अनगार इस प्रकार अपूर्ण प्राप्ती से प्रयासों को हीन-दीन नहीं करता हुवा, कलुषता नहीं धरला हुवा, ममत्व नहीं करते हुवो, विषवाद नहीं करता हुवा, पापका नियोग नहीं करता हुवा. परिभ्रमण कर, फिर करके राजगृही नगरी से निकलकर जहां गुणसिला चैत्य जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी तहां आया, आकर गौतम स्वामी की तरह आहार वृताया, बताकर श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी की आज्ञा से प्राप्त हुवे आहार में अमूच्छित अगृद्धता से जैसे विल में सर्प प्रवेश करता है इस प्रकार व आहार किया ॥ ४८ ॥ तव श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी अन्यदा किभी वक्त राज्यगृही नगरी से निकले निकलकर शहिर जन पद।
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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