Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 126
________________ सुत्र 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी gh गुण पारे, वितियंते विगय वजं; तइयांम अलेवार्ड, आयंबिलमी चउत्थंमि ॥ १॥ तत्तेणं सा काली अजा तं रयणावली तवो कम्मं पंचाहिं संश्च्छरोहिं दोहिंअमासे हिंय अठावीसाए दिवसेहि अहासुत्तं जाव आराहेत्ता, जेणेच अज्ज चंदणा अजा तणव उवागच्छति अज चंदणंच, वंदति नममंति, वंदित्ता नमंसित्ता वहहि चउत्थं जाव अप्पाणं भावमाणे विहरति ॥ ११॥ तत्तणं सा कालीअजाए तणं उरालणं जाव धम्माणिसंतए जातेयावि होत्था से जहा नामए इंगाल सगडेइवा जाव हुयासणेइव भासा पारना किया ॥१०॥ गाथार्थ-प्रथम परिहाटी में सर्व प्रकार के रोपभोग कर पारना किया, दम परिपाटी में पांचो विगय को छोडकर पारमा फिया, तीसरी परिपाटी में जिस वस्तु का लेप लगे ऐसी वस्तु को छोडकर पारना किया, और चौथी लड में आयंबिल कर पार किया ॥ १०॥ तब वह काली आर्जिका को उस रत्नावली तप करने में पांच वर्ष दो महिल, अठाचीस दिन रबि लगे. रस्नावली तप को काली थार्जिकाने सूत्रोक्त विधी प्राण आराध कर जहां चंदनवाला आका की लहां आई, चंदनवाला आर्जिका को वंदना नमस्कार किया, वंदना नयस्कार कर बहुत चौथ भक्त छठ भक्तकर यावत् अपनी आत्मा को भारती विचरने लगी ॥ ११॥ तब काली आर्जिका उस औदार प्रधान तप करके यावत् उस के शरीर की माशाजाल देखाने लगी, ऐसी दुर्वल बनगई किन्तु उस तप के तेज कर जिस प्रकार प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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