Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६३९-६४० ]
श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुष -
६३६ - ह पुरिसे पुरत्थिमातो दिसातो श्रागम्म तं पुक्खरणीं तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं श्रणुपुण्वट्ठितं ऊसियं जाव पडिरूवं ।
तए णं से पुरिसे एवं वदासी - अहमंसि पुरिसे खेत्तण्णे कुसले पंडिते वियत्ते मेधावी अबाले मग मग्गविदू मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, श्रहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खेस्सामि त्ति कट्टु इति वच्चा से पुरिसे श्रमिक्कमे तं पुक्खण, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए, महंते सेए, पहीणे तीरं, अप्पत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए जो पाराए अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसरणे पढमें पुरिसज्जाए ।
६३६ – अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस पुष्करिणी के तीर ( किनारे) पर खड़ा होकर उस महान् उत्तम एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमश: ( उतार-चढ़ाव के कारण) सुन्दर रचना से युक्त तथा जल और कीचड़ से ऊपर उठा हुआ एवं यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) बड़ा ही मनोहर है ।
• इसके पश्चात् उस श्वेतकमल को देखकर उस पुरुष ने ( मन ही मन ) इस प्रकार कहा - "मैं पुरुष हूँ, खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ या निपुण) हूँ, कुशल ( हित में प्रवृत्ति एवं अहित से निवृत्ति करने में निपुण) हूँ, पण्डित (पाप से दूर, धर्मज्ञ या देशकालज्ञ), व्यक्त ( बाल - भाव से निष्क्रान्त - वयस्क अथवा परिपक्व - बुद्धि), मेधावी ( बुद्धिमान् ) तथा प्रबाल ( बालभाव से निवृत्त - युवक ) हूँ | मैं मार्गस्थ ( सज्जनों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित ) हूँ, मार्ग का ज्ञाता हूँ, मार्ग की गति एवं पराक्रम का ( जिस मार्ग से चल कर जीव अपने अभीष्टदेश में पहुंचता है, उसका ) विशेषज्ञ हूँ। मैं कमलों में श्रेष्ठ इस पुण्डरीक कमल को ( उखाड़ कर ) बाहर निकाल लूंगा । इस इच्छा से यहाँ आया हूँ-यह कह कर वह पुरुष उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है । वह ज्यों-ज्यों उस पुष्करिणी में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें अधिकाधिक गहरा पानी और कीचड़ का उसे सामना करना पड़ता है । अतः वह व्यक्ति तीर से भी हट चुका और श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के पास भी नहीं पहुंच पाया। वह न इस पार का रहा, न उस पार का । अपितु उस पुष्करिणी के बीच में ही गहरे कीचड़ में फंस कर अत्यन्त क्लेश पाता है । यह प्रथम पुरुष की कथा है ।
६४०- - अहावरे दोच्चे पुरिसज्जाए ।
ग्रह पुरिसे दक्खिणातो दिसातो आगम्म तं पुक्खरिणीं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एवं पउमवर पोंडरीयं श्रणुपुब्वट्टितं जाव पडिरूवं, तं च एत्थ एगं पुरिसजातं पासति पहीर्ण तीरं, अपत्तं परमवरपोंडरीयं, जो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसरणं ।
तणं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वदासी - श्रहो णं इमे पुरिसे श्रखेयण्णे श्रकुसले श्रपंडिते श्रवियत्ते श्रमेहावी बाले णो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू जं णं एस पुरिसे 'खेयन्ने कुसले