Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
फिर भी आप श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बतलाते हैं । आपका यह मन्तव्य न्याययुक्त
नहीं है ।
८५ - भगवं च णं उयाहु - संतेगतिया मणुस्सा भवंति प्रणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माआ जाव सव्वा परिग्गहातो पडिविरया जावज्जीवाए जेहि समणोवासगस्स श्रादाणसो श्रामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो श्राउगं विप्पजहंति, ते ततो भुज्जो सगमादाए सोग्गतिगामिणो भवति, ते पाणा वि वच्चंति जाव णो णेयाउए भवति ।
८५६ - भगवान् श्री गौतम आगे कहने लगे - इस विश्व में ऐसे भी शान्तिप्रधान मनुष्य हो हैं, जो आरम्भ एवं परिग्रह से सर्वथा रहित हैं, धार्मिक हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं या धर्माचरण करने की अनुज्ञा देते हैं । वे सब प्रकार के प्राणातिपात, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से तीन करण; तीन योग से जीवनपर्यन्त विरत रहते हैं । उन प्राणियों (महाव्रती धर्मिष्ठ उच्च साधकों) को दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त प्रत्याख्यान किया है । वे (पूर्वोक्त धर्मिष्ठ उच्च साधक) काल का अवसर आने पर अपनी आयु (देह) का त्याग करते हैं, फिर वे अपने पुण्य (शुभ) कर्मों को साथ लेकर स्वर्ग आदि सुगति को प्राप्त करते हैं, (वे उच्चसाधक श्रमणपर्याय में भी त्रस थे और अब देवादिपर्याय में भी त्रस हैं; ) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, और महाकाय तथा ( देवलोक में ) चिरस्थितिक भी होते हैं । (उन्हें भी श्रमणोपासक दण्ड नहीं देता) अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है कि त्रस के सर्वथा अभाव के कारण श्रमणोपासक का उक्त व्रत- प्रत्याख्यान निर्विषय हो जाता है ।
८६० - भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा - प्रपिच्छा प्रारंभा पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगच्चातो परिग्गहातो प्रपडिविरया जेहि समणोवासगस्स श्रायाणसो ग्रामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो नाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता भुज्जो सगमादाए गतिगामिणो भवति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवति ।
८६०—भगवान् श्री गौतमस्वामी ने ( अपने सिद्धान्त को स्पष्ट समझाने के लिए आगे ) कहा - 'इस जगत् में ऐसे भी मानव हैं, जो अल्प इच्छा वाले, अल्प प्रारम्भ और परिग्रह वाले, धार्मिक, और धर्मानुसारी अथवा धर्माचरण की अनुज्ञा देने वाले होते हैं, वे धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं, धर्माचरण ही उनका व्रत होता है, वे धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, धर्म करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं, वे प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक, एक देश से विरत होते हैं, और एक देश से विरत नहीं होते, (अर्थात् - वे स्थूल प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करते हैं ।) इन ( पूर्वोक्त) अणुव्रती श्रमणोपासकों को दण्ड देने का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से मरणपर्यन्त किया होता है । वे (अणुव्रती ) काल का अवसर आने पर अपनी आयु (या देह) को छोड़ते हैं और अपने पुण्यकर्मों को साथ लेकर (परलोक में ) सद्गति को प्राप्त करते हैं । ( इस दृष्टि से वे पहले
व्रती मानव थे, तब भी त्रस थे और देवगति में अब देव बने, तब भी त्रस ही हुए) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस और महाकाय भी कहलाते हैं, तथा चिरस्थितिक भी होते हैं । अतः श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान त्रसजीवों की इतनी अधिक संख्या होने से निर्विषय नहीं है, आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है ।