Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र ८७०-८७३]
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८७० - तते णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वदासी - एतेसि णं भंते ! पदाणं पुव्विं णाणयाए प्रसवणयाए अबोहीए प्रणभिगमेणं श्रदिट्ठाणं श्रसुयाणं श्रमुयाणं श्रविष्णायाणं श्रणिगूढाणं श्रव्वगडाणं श्रव्वोच्छिष्णाणं श्रणिसद्वाणं श्रणिजूढाणं श्रणुवधारियाणं एयमट्ठ णो सद्दहितं णो पत्तियं णो रोइयं एतेसि णं भंते! पदाणं एण्णिं जाणयाए सवणयाए बोहीए जाव उवधारियाणं एयमट्ठ सहामि पत्तियामि रोएमि एवमेयं जहा णं तुब्भे वदह ।
८७० – तत्पश्चात् (गौतम स्वामी के अमृतोपम उद्गार सुनने के पश्चात् ) उदक निर्ग्रन्थ ने भगवान् गौतम से कहा - " भगवन्! मैंने ये ( आप द्वारा निरूपित परमकल्याणकर योगक्षेमरूप ) पद पहले कभी नहीं जाने थे, न ही सुने थे, न ही इन्हें समझे थे । मैंने इन्हें हृदयंगम नहीं किये, न इन्हें कभी देखे ( स्वयंसाक्षात् उपलब्ध, थे, न दूसरे से) सुने थे, इन पदों को मैंने स्मरण नहीं किया था, ये पद मेरे लिए अभी तक अज्ञात थे, इनकी व्याख्या मैंने (गुरुमुख से) नहीं सुनी थी, ये पद मेरे लिए गूढ़ थे, ये पद निःसंशय रूप से मेरे द्वारा ज्ञात या निर्धारित न थे, न ही गुरु द्वारा (विस्तृत ग्रन्थ से संक्षेप में) उद्धृत थे, न ही इन पदों के अर्थ की धारणा किसी से की थी। इन पदों में निहित अर्थ पर मैंने श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, और रुचि नहीं की । भंते ! इन पदों को मैंने अब ( आप से) जाना है, अभी आपसे सुना है, अभी समझा है, यहाँ तक कि अभी मैंने इन पदों में निहित अर्थ की धारणा की है या तथ्य निर्धारित किया है; अतएव अब मैं ( आपके द्वारा कथित ) इन (पदों में निहित ) अर्थों में श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ। यह बात वैसी ही है, जैसी आप कहते हैं ।"
८७१ - तते गं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी - सद्दहाहि णं अज्जो !, पत्तियाहि णं श्रज्जो !, रोएहि णं श्रज्जो !, एवमेयं जहा णं अम्हे वदामो ।
८७१ – तदनन्तर (उदक निर्ग्रन्थ के शुद्धहृदय से निःसृत उद्गार तथा हृदयपरिवर्तन से प्रभावित) श्री भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहने लगे - प्रार्य उदक! जैसा हम कहते हैं, ( वह मनः कल्पित नहीं, अपितु सर्वज्ञवचन है अतः) उस पर पूर्ण श्रद्धा रखो । प्रार्य ! उस पर प्रतीति रखो, आर्य ! वैसी ही रुचि करो ।) प्रार्य ! मैंने जैसा तुम्हें कहा है, वह (श्राप्तवचन होने से ) वैसा ही ( सत्य - तथ्य रूप ) है ।
८७२ - तते गं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं बदासी - इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउज्जामातो धम्मातो पंचमहव्वतियं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ।
८७२ - तत्पश्चात् (अपने हृदय परिवर्तन को क्रियान्वित करने की दृष्टि से ) उदकनिर्ग्रन्थ ने भगवान् गौतमस्वामी से कहा - "भंते! अब तो यही इच्छा होती है कि मैं आपके समक्ष चातुर्याम धर्म का त्याग करके प्रतिक्रमणसहित पंच महाव्रतरूप धर्म आपके समक्ष स्वीकार करके ( आपका अभिन्न- प्रचार-विचार में समानधर्मा होकर) विचरण करू । "
८७३ – तए णं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करोति, तिक्खुत्तो श्रायाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति नम॑सति, वंदित्ता नसित्ता एवं वदासी