Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र ८५५ ]
[ १९९ श्री गौतमस्वामी-"वे इस प्रकार के दीक्षापर्याय (विहार) में विचरण करते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण कर क्या पुनः गृहस्थावास में जा सकते हैं ?"
निर्ग्रन्थ-'हाँ, वे जा सकते हैं।'
श्री गौतमस्वामी-"क्या वे भूतपूर्व अनगार पुनः गृहस्थ बन जाने पर समस्त प्राणियों यावत् समस्त सत्त्वों को दण्ड देना (हनन करना) छोड़ देते हैं ?"
निर्ग्रन्थ-'नहीं ऐसा नहीं होता ; (अर्थात्-वे गृहस्थ बनकर समस्त प्राणियों को दण्ड देना नहीं छोड़ते, बल्कि दण्ड देना प्रारम्भ कर देते हैं)।
श्री गौतमस्वामी-(देखो, निर्ग्रन्थो !) यह जीव वही है, जिसने दीक्षाग्रहण पूर्व समस्त प्राणियों यावत् सत्त्वों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया था, यह जीव वही है, जिसने दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् समस्त प्राणियों यावत् सर्वसत्त्वों को दण्ड देने का त्याग किया था, एवं यह जीव अब भी वही है, जो इस समय पुनः गृहस्थभाव अंगीकर करके समस्त प्राणियों यावत् सर्वसत्त्वों को
| त्यागी नहीं है। वह पहले असंयमी था. बाद में संयमी हया और अब पुनः असंयमी हो गया है । असंयमी जीव समस्त प्राणियों यावत् सर्वसत्त्वों को दण्ड देने (हिंसा) का त्यागी नहीं होता। अतः वह पुरुष इस समय सम्पूर्ण प्राणियों यावत् समस्त सत्त्वों के दण्ड का त्यागी नहीं है । निर्ग्रन्थो! इसे इसी प्रकार समझो, इसे इसी प्रकार समझना चाहिए।
८५५–भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छितव्वा-पाउसंतो णियंठा! इह खलु परिवाया वा परिवाइयानो वा अन्नयरेहितो तित्थाययहितो आगम्म धम्मसवणवत्तियं उवसंकमज्जा ? हंता उवसंकमज्जा। कि तेसि तहप्पगाराणं धम्मे पाइक्खियब्वे ? हंता प्राइक्खियव्वे । ते चेव जाव उवट्ठावेत्तए । कि ते तहप्पगारा कप्पंति संभुज्जित्तए ? हंता कप्पंति । ते णं एयाख्वेणं विहारेणं विहरमाणा तहेव जाव वएज्जा । ते णं तहप्पगारा कप्पंति संभुज्जित्तए ? नो तिण? सम8, सेज्जेसे जीवे जे परेणं नो कप्पति संभुज्जित्तए, सेज्जे से जीवे जे पारेणं कप्पति संभुज्जित्तए, सेज्जे से जीवे जे इदाणि णो कप्पति संभुज्जित्तए, परेणं अस्समणे, पारेणं समणे, इदाणि अस्समणे, अस्समणेणं सद्धि णो कप्पति समणाणं णिग्गंथाणं संभुज्जित्तए, सेवमायाणह णियंठा ? से एवमायाणितव्वं ।
८५५-भगवान् श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा-'मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है-"आयुष्मान् निर्ग्रन्थों ! (यह बताइए कि) इस लोक में परिव्राजक अथवा परिव्राजिकाएँ किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों (तीर्थायतनों) (में रह कर वहाँ) से चल कर धर्मश्रवण के लिए क्या निर्ग्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ?
निर्ग्रन्थ–'हाँ, आ सकती हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश देना चाहिए ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ, उन्हें धर्मोपदेश देना चाहिए।'
श्री गौतमस्वामी-"धर्मोपदेश सुन कर यदि उन्हें वैराग्य हो जाए तो क्या वे प्रवजित करने, मुण्डित करने, शिक्षा देने या महावतारोहण (उपस्थापन) करने के योग्य हैं ?"