Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध भ. महावीर इन सबसे सर्वथा दूर होने से स्वपर-आत्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं । (उ) वणिक् को होने वाला धनादि लाभ ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक सुखरूप नहीं होता, इसलिए वह वास्तविक लाभ है ही नहीं, जबकि भ. महावीर को होने वाला दिव्यज्ञान रूप या कर्म निर्जरारूप लाभ एकान्तिक एवं प्रात्यन्तिक है। केवलज्ञान रूप लाभ सादि-अनन्त है, स्थायी, अनुपम एवं यथार्थ लाभ है। (ऊ) अतः सर्वथा अहिंसक, सर्व जीवों के प्रति अनुकम्पाशील, धर्मनिष्ठ एवं कर्मक्षयप्रवृत्त भगवान् की तुलना हिंसापरायण, निरनुकम्पी, धर्म से दूर एवं कर्मबन्धनप्रवृत्त वणिक् से करना युक्तिविरुद्ध एवं अज्ञानता का परिचायक है ।' .बौद्धों के अपसिद्धान्त का पाक द्वारा खण्डन एवं स्वसिद्धान्त-मण्डन
८१२-पिण्णागपिंडीमवि विद्ध सूले, केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति।
अलाउयं वावि कुमारए त्ति, स लिप्पती पाणवहेण अम्हं ॥२६॥ ८१२-(शाक्यभिक्षु पाक मुनि से कहने लगे-) कोई व्यक्ति खलो के पिण्ड को 'यह पुरुष है' यों मानकर शूल से बींध कर (आग में) पकाए अथवा तुम्बे को कुमार (बालक) मान कर पकाए' तो हमारे मत में वह प्राणिवध (हिंसा) के पाप से लिप्त होता है ।
८१३–प्रहवा वि विद्ध ण मिलक्खु सूले, पिन्नागबुद्धीए णरं पएज्जा।
कुमारगं वा वि अलाउए ति, न लिप्पती पाणवहेण अम्हं ॥२७॥ ८१३. अथवा वह म्लेच्छ पुरुष मनुष्य को खली समझ कर उसे शूल में बींध कर पकाए, अथवा कुमार को तुम्बा समझ कर पकाए तो वह हमारे मत में प्राणिवध के पाप से लिप्त नहीं होता।
८१४–पुरिसं व विद्ध ण कुमारकं वा, सूलंमि केई पए जाततेए।
पिण्णायपिंडी सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए ॥२८॥ ८१४. कोई पुरुष मनुष्य को या बालक को खली का पिण्ड मान कर उसे शूल में बींध कर आग में डाल कर पकाए तो (हमारे मत में) वह (मांसपिण्ड) पवित्र है, वह बुद्धों के पारणे के योग्य है।
८१५–सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए भिक्खुगाणं ।
. ते पुण्णखंधं सुमहऽज्जिणित्ता, भवंति प्रारोप्प महंतसत्ता ॥२६॥
८१५. जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यराशि (पुण्यस्कन्ध) का उपार्जन करके महापराक्रमी (महासत्त्व) आरोग्य नामक देव होता है । ८१६-प्रजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं।
अबोहिए दोण्ह वि तं प्रसाहु, वयंति जे यावि पडिस्सुणंति ॥३०॥
१. सूत्रकृताग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३९४-३९५ का सारांश