Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
नुसार) शेष जीवों की दया के लिए वर्ष में एक बड़े हाथी को बाण से मार कर वर्ष भर उसके मांस से अपना जीवन-यापन करते हैं ।
८३९ - संवच्छ रेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता प्रणियत्तदोसा ।
साण जीवाण वहे ण लग्गा, सिया य थोवं गिहिणो वि तम्हा ।। ५३ ।।
८३६ - (आर्द्र कमुनि सयुक्तिक प्रतिवाद करते हुए कहते हैं -) जो पुरुष वर्षभर में भी एक (पंचेन्द्रिय) प्राणी को मारते हैं, वे भी दोषों से निवृत्त ( रहित ) नहीं हैं। क्योंकि ऐसा मानने पर शेष जीवों (क्षेत्र और काल से दूर प्राणियों) के वध में प्रवृत्त ( संलग्न ) न होने के कारण थोड़े-से (स्वल्प)
को हनन करने वाले गृहस्थ भी दोषरहित क्यों नहीं माने जाएँगे ?
८४०- - संवच्छ रेणावि य एगमेगं, पाणं हणंते समणव्वतेसु ।
श्रायाहिते से पुरिसे श्रणज्जे, न तारिसा केवलिणो भवंति || ५४ ||
८४० - जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्षभर में एक-एक प्राणी ( और वह भी पंचेन्द्रिय त्रस ) को मारता है, उस पुरुष को अनार्य कहा गया है । ऐसे पुरुष केवलज्ञानी (केवलज्ञान सम्पन्न ) नहीं हो पाते ।
विवेचन - हस्तितापसों का श्रहिंसामत: श्रार्द्रकमुनि द्वारा प्रतिवाद - प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में से प्रथम गाथा में हस्तितापसों की जीवों की न्यूनाधिक संख्या के आधार पर हिंसा के अल्पत्व-बहुत्व की मान्यता अंकित की है, शेष दो गाथाओं में आर्द्र के मुनि द्वारा इस विचित्र मान्यता का निराकरण करके वास्तविक अहिंसा की आराधना का किया गया संकेत अंकित किया है ।
हस्तितापसों की मान्यता - अधिक जीवों के वध से अधिक और अल्पसंख्यक जीवों के वध से पहिंसा होती है । वे कहते हैं - कन्दमूल फल आदि खाने वाले, या अनाज खाने वाले साधक बहुत-से स्थावर जीवों तथा उनके आश्रित अनेक जंगम जीवों की हिंसा करते हैं । भिक्षाजीवी साधक भी भिक्षा के लिए घूमते समय चींटी आदि अनेक प्राणियों का उपमर्दन करते हैं, तथा भिक्षा की प्राप्ति अप्राप्ति में उनका चित्त रागद्वेष से मलिन भी होता है, अतः हम इन सब प्रपंचों से दूर रह कर वर्ष में एक बार सिर्फ एक बड़े हाथी को मार लेते हैं, उसके मांस से वर्ष भर निर्वाह करते हैं । अतः हमारा धर्म श्रेष्ठ है ।
हंसा की भ्रान्ति का निराकरण- आर्द्रकमुनि अहिंसा संबंधी उस भ्रान्ति का निराकरण दो तरह से करते हैं- ( १ ) हिंसा - अहिंसा की न्यूनाधिकता के मापदण्ड का प्राधार मृत जीवों की संख्या नहीं है । अपितु उसका आधार प्राणी की चेतना, इन्द्रियाँ, मन, शरीर आदि का विकास एवं मारने वाले की तीव्र - मन्द मध्यम भावना तथा अहिंसावती की किसी भी जीव को न मारने की भावना एवं तदनुसार क्रिया है । अतः जो हाथी जैसे विशालकाय, विकसित चेतनाशील पंचेन्द्रिय प्राणी को मारता है, वह कथमपि घोर हिंसा दोष से रहित नहीं माना जा सकता । (२) वर्षभर में एक महाकाय प्राणी का घात करके निर्वाह करने से सिर्फ एक प्राणी का घात नहीं, अपितु उस प्राणी प्रश्रित रहने वाले तथा उसके मांस, रक्त, चर्बी आदि में रहने या उत्पन्न होने वाले अनेक स्थावरसजीवों का घात होता है । इसीलिए पंचेन्द्रिय जीव का वध करने वाले घोर हिंसक, अनार्य एवं