Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र ८१६-८२१] .
[१७५ ८१६. (आर्द्र क मुनि ने बौद्ध भिक्षुत्रों को प्रत्युत्तर दिया-) आपके इस शाक्यमत में पूर्वोक्त सिद्धान्त संयमियों के लिए अयोग्यरूप है। प्राणियों का (जानबूझ कर) घात करने पर भी पाप नहीं होता, जो ऐसा कहते हैं और जो सुनते या मान लेते हैं। दोनों के लिए अबोधिलाभ का कारण है, और बुरा है। ८१७--उड्डे अहे य तिरियं दिसासु, विण्णाय लिगं तस-थावराणं ।
भूयाभिसंकाए दुगुछमाणे, वदे करेज्जा ब कुप्रो विहऽत्थी ॥३१॥ ८१७. 'ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में त्रस और स्थावर जीवों के अस्तित्व का लिंग (हेतु या चिह्न) जान कर जीवहिंसा की आशंका से विवेकी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ विचार कर बोले या कार्य करे तो उसे पाप-दोष कैसे हो सकता है ?' ८१८--पुरिसे त्ति विण्णत्ति ण एवमस्थि, प्रणारिए से पुरिसे तहा हु।
को संभवो? पिन्नपिडियाए, वाया वि एसा वुइया असच्चा ॥३२॥ ८१८. खली के पिण्ड में पुरुष-बुद्धि तो मूर्ख को भी नहीं होती। अतः जो पुरुष खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि अथवा पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि रखता है, वह अनार्य है । खली के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि कैसे सम्भव है ? अतः आपके द्वारा कही हुई यह (ऐसी) वाणी भी असत्य है। . ८१६--वायाभियोगेण जया वहेज्जा, णो तारिसं वायमुदाहरेज्जा।
अट्ठाणमेयं वयणं गुणाणं, जे दिक्खिते ब्रूयमुरालमेतं ॥३३॥ ८१६. जिस वचन के प्रयोग से जीव पापकर्म का उपार्जन करे, ऐसा वचन (भाषादोषगुणज्ञ विवेकी पुरुष को) कदापि नहीं बोलना चाहिए। (प्रवजितों के लिए) यह (आपका पूर्वोक्त) वचन गुणों का स्थान नहीं है । अतः दीक्षित व्यक्ति ऐसा निःसार वचन नहीं बोलता।
८२०-लद्ध प्रहह अहो एव तुन्भे, जीवाणुभागे सुविचितिए य ।
पुत्वं समुद्द अवरं च पुढे, प्रोलोइए पाणितले ठिते वा ॥३४॥ ८२०. अहो बौद्धो ! तुमने ही (संसारभर के) पदार्थों को उपलब्ध कर (जान) लिया है ! ; तुमने ही जीवों के कर्मफल का अच्छी तरह चिन्तन किया है ! , तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक फैल गया है! , तुमने ही करतल (हथेली) पर रखे हुए पदार्थ के समान इस जगत् को देख लिया है। ८२१–जीवाणुभागं सुविचितयंता, पाहारिया अण्णविहीए सोही।
न वियागरे छन्नपनोपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥३५॥ ८२१. (जैनशासन के अनुयायी साधक) (कर्मफल-स्वरूप होने वाली) जीवों की पीड़ा का सम्यक् चिन्तन करके आहारग्रहण करने की विधि से (बयालीस दोषरहित) शुद्ध (भिक्षाप्राप्त) आहार स्वीकार करते हैं; वे कपट से जीविका करने वाले बन कर मायामय वचन नहीं बोलते । जैनशासन में संयमीपुरुषों का यही धर्म है ।