Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
(३) सस्थावरयोनिक प्रकाय - ये प्राणी त्रस और स्थावरों में उत्पन्न होते हैं । इनकी भी शेष समस्त प्रक्रिया पूर्ववत् है ।
(४) उदकयोनिक उदकों में उत्पन्न त्रसकाय — उदकयोनिक उदक पानी, बर्फ आदि में कीड़े आदि के रूप में कई जीव उत्पन्न हो जाते हैं । वे उसी प्रकार के होते हैं ।
सस्थावरयोनिक
अग्निकाय और वायुकाय की उत्पत्ति के चार-चार श्रालापक - ( १ ) निकाय ( २ ) वायुयोनिक अग्निकाय, (३) अग्नियोनिक अग्निकाय, और ( ४ ) अग्नियोनिक अग्नि में उत्पन्न त्रकाय । इसी प्रकार ( १ ) त्रसस्थावरयोनिक वायुकाय, ( २ ) वायुयोनिक वायुकाय, (३) अग्नियोनिक वायुकाय एवं (४) वायुयोनिक वायुकाय में उत्पन्न त्रसकाय ।
सस्थावरों के सचित्त - श्रचित्त शरीरों से अग्निकाय की उत्पत्ति - हाथी, घोड़ा, भैंस आदि परस्पर लड़ते हैं, तब उनके सींगों में से आाग निकलती दिखाई देती है । तथा चित्त हड्डियों की रगड़ से तथा सचित्त चित्त वनस्पतिकाय एवं पत्थर आदि में से अग्नि की लपटें निकलती देखी जाती हैं ।
पृथ्वीका की उत्पत्ति के चार श्रालापक- पृथ्वीकाय के यहाँ मिट्टी से लेकर सूर्यकान्त रत्न तक अनेक प्रकार बताए हैं। पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में चार श्रालापक - ( १ ) त्रस - स्थावर - प्राणियों के शरीर में उत्पन्न पृथ्वीकाय ( २ ) पृथ्वीकाययोनिक पृथ्वीकाय, (३) वनस्पतियोनिकपृथ्वीकाय, और (४) पृथ्वीकाययोनिक पृथ्वीकाय में उत्पन्न त्रस ।
समुच्चयरूप से सब जीवों की श्राहारादि प्रक्रिया और श्राहारसंयम- प्रेरणा
७४६ - प्रहावरं पुरखातं - सव्वे पाणा सन्दे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा नाणाविहवक्कमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवक्कमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनिदाणा कम्मगतिया कम्मठितिया कम्मुणा चेव विष्परियासुर्वेति ।
७४६ – इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में और भी बातें कही हैं । समस्त प्राणी, सर्व भूत, सर्व सत्त्व और सर्व जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं वे स्थिति रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं । वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं, एवं वे शरीर का ही आहार करते हैं । वे अपने-अपने कर्म का ही अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान निमित्त कारण है । उनकी गति और स्थिति भी कर्म के अनुसार होती है । वे कर्म के ही प्रभाव से सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए दुःख के भागी होते हैं ।
७४७ – सेवमायाणह, सेवमायाणित्ता श्राहारगुत्ते समिते सहिते सदा जए त्ति बेमि ।
७४७ - हे शिष्यो ! ऐसा ही जानो, और इस प्रकार जान कर सदा आहारगुप्त, ज्ञान-दर्शनचारित्रसहित समितियुक्त एवं संयमपालन में सदा यत्नशील बनो ।
- ऐसा मैं कहता हूँ |