Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 184
________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र ७९२ ] [१६७ आक्षेप के पहल-(१) पहले भ. महावीर जनसम्पर्क रहित एकान्तचारी थे, अब वे जनसमूह में रहते हैं, अनेक भिक्षुत्रों को अपने साथ रखते हैं। (२) पहले वे प्रायः मौन रहते थे, अब वे देव मानव और तिर्यञ्चों की परिषद् में धर्मोपदेश देते हैं । (३) पहले वे तपस्वी जीवन बिताते थे, अब वे उसे नीरस समझ कर छोड़ बैठे हैं, (४) महावीर ने पूर्वापर सर्वथा विरुद्ध प्राचार अपनी आजीविका चलाने के लिए ही अपनाया है, (५) इस पूर्वापरविरोधी प्राचार-व्यवहार को अपनाने से महावीर अस्थिरचित्त मालूम होते हैं, वे किसी एक सिद्धान्त पर स्थिर नहीं रह सकते। अनुकूल समाधान-(१) श्रमण भगवान महावीर अपनी त्रैकालिक चर्या में सदैव एकान्त का अनुभव करते हैं, अर्थात्-वे एकान्त में हों या जनसमूह में, सर्वत्र एकमात्र अपनी आत्मा (प्रात्मगुणों) में विचरण करते हैं । (२) विशाल जनसमूह में उपदेश देने पर भी श्रोताजनों के प्रति वे राग या द्वष नहीं करते हैं, सबके प्रति उनका समभाव है । पहले वे चतुर्विध घनघाती कर्मों का क्षय करने के लिए वाचिक संयम या मौन रखते थे, एकान्त सेवन करते थे, किन्तु अब घातिकर्मक्षयोपरान्त शेष चार अघातिक कर्मों के क्षय के लिए विशाल समवसरण में धर्मोपदेश की वाचिक प्रवृत्ति करते हैं । वस्तुतः पूर्वावस्था और वर्तमान अवस्था में कोई अन्तर नहीं है। . (३) न वे सत्कार-सम्मान-पूजा के लिए धर्मोपदेश करते हैं न जीविकानिर्वाह के लिए और न राग-द्वोष से प्रेरित होकर । अतः उन्हें अस्थिरचित्त बताना अज्ञान है । (४) सर्वज्ञता-प्राप्त होने से पूर्व वस्तुस्वरूप को पूर्णतया यथार्थ रूप से जाने बिना धर्मोपदेश देना उचित नहीं होता, इसलिए भ. महावीर मौन एकान्तवास करते थे। अब केवलज्ञान प्राप्त होने पर उसके प्रभाव से समस्त त्रस-स्थावर प्राणियों को तथा उनके अध:पतन एवं कल्याण के कारणों को उन्होंने जान लिया हैं। अतः क्षेमंकर प्रभु पूर्ण समभावपूर्वक सब के क्षेम-कल्याण का धर्मोपदेश देते हैं । कृतकृत्य प्रभु को किसी स्वार्थसाधन से प्रयोजन ही क्या ? । (५.) धर्मोपदेश देते समय हजारों प्राणियों के बीच में रहते हुए भी वे भाव से अकेले (रागद्वेषरहित) शुद्ध स्वभाव में, अविकल बने रहते हैं । भगवान् स्वार्थ, रागद्वेष एवं ममत्व से सर्वथा रहित हैं। (६) भाषा के दोषों का ज्ञान भगवान् में है, इसलिए भाषा संबंधी दोषों से सर्वथा रहित उनकी धर्मदेशना दोषरूप नहीं, गुणवर्धक ही है। वे प्राणियों को पवित्र एवं एकान्त हितकर मार्ग प्रदर्शित करते हैं। (७) फिर वे वीतराग परम तपस्वी घातिकर्मों से दूर हैं, इसलिए साधु, श्रावक तथा सामान्य जनों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप उपदेश देते हैं । अतः उन पर पापकर्म करने का दोषारोपण करना मिथ्या है।' गोशालक द्वारा सुविधावादी धर्म की चर्चा : आर्द्र क द्वारा प्रतिवाद ७६३-सीप्रोदगं सेवउ बीयकायं, पाहाय कम्मं तह इत्थियारो। ___एगंतचारिस्सिह अम्ह धम्म, तवस्सिणो णोऽहिसमेति पावं ॥७॥ १. सूत्रकृ. शी. वृ. पत्रांक ३८९-३९० का सारांश

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