Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध आदि को देख कर उन सबको बचा कर ठीक रास्ते से चलता है, दूसरों को भी बताता है । इसी तरह विवेकी पुरुष कुज्ञान, कुश्रुति, कुमार्ग और कुदृष्टि के दोषों का सम्यक् विचार करके चलता चलाता है, ऐसा करने में कौन-सी पर- निन्दा है ?" (३) वस्तुतः आर्यपुरुषों द्वारा प्रतिपादित सम्यग् दर्शनज्ञान - चारित्र रूप मोक्षमार्ग ही कल्याण का कारण है, इससे विपरीत त्रस - स्थावर प्राणिहिंसाजनक, ब्रह्मचर्यसमर्थक कोई भी मार्ग हो, वह संसार का अन्तकारक एवं कल्याणकारक नहीं है । ऐसा वस्तु-स्वरूपकथन निन्दा नहीं है ।
भीरु होने का प्राक्षेप और समाधान
८०१ - श्रागंतागारे आरामागारे, समणे उ भीते ण उवेति वासं । दक्खा हु संतो बहवे मणूसा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य ॥१५॥ ८०२ - मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमता, सुत्तेहि अत्येहि य निच्छयण्णू । पुच्छि माणे अणगार एगे, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥ १६ ॥
८०१-८०२ - (गोशालक ने पुनः आर्द्रकमुनि से कहा - ) तुम्हारे श्रमण ( महावीर ) अत्यन्त भीरु (डरपोक) हैं, इसीलिए तो पथिकागारों (जहाँ बहुत से प्रागन्तुक - पथिक ठहरते हैं, ऐसे गृहों ) में तथा आरामगृहों (उद्यान में बने हुए घरों) में निवास नहीं करते, ( कारण, वे सोचते हैं कि) उक्त स्थानों में बहुत-से (धर्म-चर्चा में ) दक्ष मनुष्य ठहरते हैं, जिनमें कोई कम या कोई अधिक वाचाल ( लप लप करने वाले) होते हैं, कोई मौनी होते हैं ।
( इसके अतिरिक्त) कई मेधावी, कई शिक्षा प्राप्त, कई बुद्धिमान् श्रौत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से सम्पन्न तथा कई सूत्रों और अर्थों के पूर्णरूप से निश्चयज्ञ होते हैं । अत: दूसरे अनगार मुझ से कोई प्रश्न न पूछ बैठें, इस प्रकार की आशंका करते हुए वे ( श्रमण भ. महावीर ) वहां नहीं जाते ।
८०३ - नाकाम किच्चा ण य बालकिच्चा, रायाभिश्रोगेण कुतो भएणं । वियागरेज्जा पसिणं न वावि, सकाम किच्चेणिह आरियाणं ॥ १७ ॥
८०३ - ( आर्द्रकमुनि ने उत्तर दिया - ) भगवान् महावीर स्वामी ( प्रेक्षापूर्वक किसी कार्य
को करते हैं, इसलिए ) अकामकारी (निरूद्देश्यकार्यकारी) नहीं हैं, और न ही वे बालकों की तरह ( अज्ञानपूर्वक एवं अनालोचित ) कार्यकारी हैं । वे राजभय से भी धर्मोपदेश नहीं करते, फिर अन्य (लोगों के दबाव या ) भय से करने की तो बात ही कहाँ ? भगवान् प्रश्न का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे इस जगत् में आर्य लोगों के लिए तथा अपने तीर्थंकर नामकर्म के क्षय के लिए धर्मोपदेश करते हैं ।
८०४ - गंता व तत्था प्रदुवा श्रगंता, वियागरेज्जा समियाऽऽसुपण्णे । प्रणारिया दंसणतो परित्ता, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥ १८ ॥
१. नेत्रैर्निरीक्ष्य बिल - कण्टक-कीट सर्पान् सम्यक्पथा व्रजति तान् परिहृत्य सर्वान् । कुज्ञान-कुन ति कुमार्ग कुदृष्टि-दोषान्, सम्यक् विचारयत कोऽत्र परापवादः ?
-सूत्रकृ. शी. वृत्ति में उद्धृत