Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१६८ ]
[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
७६३ - (गोशालक ने अपने प्रजीवक धर्मसम्प्रदाय का आचार समझाने के लिए आर्द्र क मुनि से कहा - ) कोई शीतल (कच्चा) जल, बीजकाय, आधाकर्म ( युक्त श्राहारादि ) तथा स्त्रियों का सेवन भले ही करता हो, परन्तु जो एकान्त ( अकेला निर्जनप्रदेश में) विचरण करनेवाला तपस्वी साधक है, उसे हमारे धर्म में पाप नहीं लगता ।
७६४ - सीतोदगं या तह बीयकार्य, आहाय कम्मं तह इत्थिया । याई जाणं पडिसेवमाणा, श्रगारिणो प्रस्समणा भवंति ॥ ८ ॥
७६४ - (आर्द्रक मुनि ने इस धर्माचार का प्रतिवाद किया - ) सचित्त जल, बीजकाय, धाकर्म (युक्त प्रहारादि ) तथा स्त्रियाँ, इनका सेवन करनेवाला गृहस्थ ( घरबारी ) होता है, श्रमण (अनगार) नहीं हो सकता ।
७९५ - सिया य बीओदग इत्थियानो, पडिसेवमाणा समणा भवंति । श्रगारिणो वि समणा भवंतु, सेवंति जं ते वि तहप्पगारं ॥ ६ ॥
७९५ - यदि बीजकाय, सचित्त जल एवं स्त्रियों का सेवन करने वाले पुरुष भी श्रमण हों तो गृहस्थ भी श्रमण क्यों नहीं माने जाएँगे ? वे भी पूर्वोक्त विषयों का सेवन करते हैं । (तथा वे भी परदेश आदि में अकेले रहते या घूमते हैं, और कुछ तप भी करते हैं ।)
७९६ - जे यावि बीप्रोदगभोति भिक्खु भिक्खं विहं जायति जीवियट्ठी । ते णातिसंजोगमवि पहाय, कानोवगाऽणंतकरा भवंति ॥ १०॥
७९६ - ( अतः ) जो भिक्षु (अनगार) हो कर भी सचित्त, बीजकाय, ( सचित्त) जल एवं आधा कर्मदोष युक्त प्रहारादि का उपभोग करते हैं, वे केवल जीविका ( जीवन निर्वाह ) के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं । वे अपने ज्ञातिजनों (परिवार आदि) का संयोग छोड़कर भी अपनी काया के ही पोषक हैं, वे अपने कर्मों का या जन्म-मरण रूप संसार का अन्त करने वाले नहीं हैं ।
विवेचन- गोशालक द्वारा अपने सुविधावादी धर्म की चर्चाः श्रार्द्रक मुनि द्वारा प्रतिवादप्रस्तुत सूत्रगाथाओं में गोशालक ने प्रथम अपने सुविधावादी भिक्षुधर्म की चर्चा की है, और आर्द्र क मुनि ने इसका युक्तिपूर्वक खण्डन किया है। उन्होंने सचित्त जलादि सेवन करने वाले भिक्षुओं को गृहस्थतुल्य, जीविका के लिए भिक्षावृत्ति अपनाने वाले, शरीरपोषक एवं (जीवोपमर्दक प्रारम्भ प्रवृत्त होने से ) जन्म-मरणरूप संसार का अन्त करने में असमर्थ बताया है । '
७६७ - इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं, पावाइणो गरहसि सव्व एव । पावाइणो उ पुढो किट्टयंता, सयं सयं दिट्टि करेंति पाउं ॥ ११ ॥
७६७ - ( गोशालक ने पुनः आर्द्रक से खण्डनात्मक प्रतिवाद) को कह कर तुम समस्त
१. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३९१ का सारांश
कहा-) हे आर्द्रक ! इस वचन ( भिक्षुधर्माचार का प्रावादुकों (विभिन्न धर्म के व्याख्याताओं) की निन्दा