Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र ७९८-८०० ]
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करते हो । प्रावादुकगण ( धर्मव्याख्याकार) अपने-अपने धर्म - सिद्धान्तों की पृथक् पृथक् व्याख्या ( या प्रशंसा) करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि या मान्यता प्रकट करते हैं ।
७६८ - ते प्रणमण्णस्स वि गरहमाणा, श्रक्खंति उ समणा माहणा य । सतोय प्रत्थी असतो य णत्थी, गरहामो दिट्ठि ण गरहामो किंचि ॥ १२ ॥ ७६६ - ण किंचि रुवेणऽभिधारयामो, सं दिट्टिमग्गं तु करेमो पाउं । मग्गे इमे किट्टिते श्रारिएहि, श्रणुत्तरे सप्पुरिसेहि अंजू ॥१३॥
७६८-७६६ - (आर्द्रक मुनि गोशालक से कहते हैं -) वे ब्राह्मण परस्पर एक-दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने धर्म की कथित अनुष्ठान से ही पुण्य धर्म या मोक्ष होना कहते हैं, दूसरे धर्म नहीं ।' हम उनकी ( इस एकान्त व एकांगी ) दृष्टि की निन्दा करते हैं, नहीं करते ।
में
( श्रन्यधर्मतीर्थिक ) श्रमण और प्रशंसा करते हैं । अपने धर्म में कथित क्रिया के अनुष्ठान से किसी व्यक्ति विशेष की निन्दा
हम किसी के रूप, वेष आदि की निन्दा नहीं करते, अपितु हम अपनी दृष्टि ( अनेकान्तात्मक दर्शन) से पुनीत मार्ग ( यथार्थ वस्तु स्वरूप) को अभिव्यक्त करते हैं । यह मार्ग अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट ) है, और आर्य सत्पुरुषों ने इसे ही निर्दोष कहा है ।
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- उड्ड श्रहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । भूयाभिसंकाए दुगु छमाणा, जो गरहति वुसिमं किचि लोए || १४ ||
८०० - ऊर्ध्वदिशा अधोदिशा एवं तिर्यक् (तिरछी - पूर्वादि) दिशाओं में जो जो त्रस या स्थावर प्राणी हैं, उन प्राणियों की हिंसा ( की आशंका ) से घृणा करने वाले संयमी पुरुष इस लोक में किसी की निन्दा नहीं करते । ( अतः वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करना निन्दा नहीं है ।)
विवेचन - दार्शनिकों के विवाद के सम्बन्ध में गोशालक की दृष्टि का समाधान - प्रस्तुत ४ सूत्र गाथाओं में आर्द्रक पर निन्दा करने का आक्षेप और आर्द्र के द्वारा किया गया स्पष्ट समाधान अंकित है ।
गोशालक द्वारा पर-निन्दा का प्राक्षेप - “विभिन्न दार्शनिक अपनी-अपनी दृष्टि से सचित्त जलादि-सेवन करते हुए धर्म, पुण्य या मोक्ष बताते हैं, परन्तु तुमने उनकी निन्दा करके अपना अहंकार प्रदर्शित किया है ।"
प्राक द्वारा समाधान - ( १ ) समभावी साधु के लिए व्यक्तिगत रूप, वेष आदि की निन्दा करना अनुचित है । हम किसी के वेषादि की निन्दा नहीं करते । सत्य मार्ग का कथन करना ही हमारा उद्देश्य है । ( २ ) अन्य धर्मतीर्थिक ही एकान्त दृष्टि से स्वमतप्रशंसा और परमत निन्दा करते
| हम तो अनेकान्तदृष्टि से वस्तुस्वरूप का यथार्थ कथन कर रहे हैं । मध्यस्थभाव से सत्य की अभिव्यक्ति करना निन्दा नहीं है ।" जैसे नेत्रवान् पुरुष अपनी ग्राँखों से बिल, काँटे, कीड़े और सांप
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति ३९२ का सारांश ।