Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रत्याख्यान - क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र ७५० ]
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बना रहता है, उन्हें धोखे से मारने का दुष्ट विचार करता है, एवं नित्य उन जीवों के शठतापूर्वक ( दण्ड ) घात की बात चित्त में घोटता रहता है ।
स्पष्ट है कि ऐसे अज्ञानी जीव जब तक प्रत्याख्यान नहीं करते, तब तक वे पापकर्म से जरा भी विरत नहीं होते, इसलिए उनके पापकर्म का बन्ध होता रहता है ।
विवेचन - प्रत्याख्यान क्रियारहितः सदैव पापकर्मबन्धकर्ता क्यों और कैसे ? प्रस्तुत दो सूत्रों में प्रेरक द्वारा अप्रत्याख्यानी के द्वारा सतत पापकर्मबन्ध के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्न का प्ररूपक द्वारा दृष्टान्त समाधान किया गया है । संक्षेप में प्रश्न और उत्तर इस प्रकार हैं
प्रश्न - जिस प्राणी मन-वचन-काया पापयुक्त हों, जो समनस्क हो, जो हिंसा युक्त मनोव्यापार से युक्त हो, हिंसा करता हो, जो विचारपूर्वक, मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता हो, जो व्यक्तचेतनाशील हो, वैसा प्राणी ही पापकर्म का बन्ध करता है, मगर इसके विपरीत जो प्राणी अमनस्क हो एवं जिसके मन-वचन-काया पापयुक्त न हों, जो विचारपूर्वक इनका प्रयोग न करता हो, अव्यक्त चेतनाशील हो वह भी पापकर्मबन्ध करता है, ऐसा कहना कैसे उचित हो सकता है ?
उत्तर – सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्वोक्त मन्तव्य ही सत्य है, क्योंकि षड्जीवनिकाय की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिसने तप आदि द्वारा नष्ट नहीं किया, न भावी पाप को प्रत्याख्यान द्वारा रोका, वह जीव चाहे कैसी भी अवस्था में हो, चाहे उसके मन, वचन, काया पापयुक्त न हों वह श्रमनस्क हो, अविचारी हो, अस्पष्ट चेतनाशील हो तो भी श्रप्रत्याख्यानी होने के कारण उसके सतत पापकर्म का ध होता रहता है |
जैसे कोई हत्यारा किसी व्यक्ति का वध करना चाहता है, सोते-जागते, दिन-रात इसी फिराक में रहता है कि कब मौका मिले और कब मैं उसे मारू । ऐसा शत्रु के समान प्रतिकूल व्यवहार करने को उद्यत हत्यारा चाहे अवसर न मिलने से उस व्यक्ति की हत्या न कर सके, परन्तु कहलाएगा वह हत्यारा ही । उसका हिंसा का पाप लगता रहता है । इसी प्रकार एकान्त अप्रत्याख्यानी जीव द्वारा भी किसी जीव को न मारने का, या पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया होने से, भले ही अमनस्क हो, मन-वचन-काया का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, सुषुप्त चेतनाशील हो, तब भी उसके अठारह ही पापस्थान तथा समस्त जीवों की हिंसा खुली होने से, उसके पापकर्म का बन्ध होता रहता है । प्रत्याख्यान न करने के कारण वह सर्वथा असंयत, अविरत, पापों का तप आदि से नाश एवं प्रत्याख्यान से निरोध न करने वाला, संवररहित, एकान्त प्राणिहिंसक, एकान्त बाल एवं सर्वथा सुप्त होता है । '
फलितार्थ - जन प्राणियों का मन राग-द्वेष से पूर्ण और प्रज्ञान से श्रावृत होता है, उनका अन्य समस्त प्राणियों के प्रति दूषित भाव रहता है। इन दूषित भावों से जब तक विरति नहीं होती, तब तक वे प्रत्याख्यान क्रिया नहीं कर पाते, और प्रत्याख्यानक्रिया के प्रभाव में, वे सभी (एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के ) प्राणियों का द्रव्य से चाहे ( अवसर न मिलने के कारण या अन्य कारणों से) घात न कर पाते हों, किन्तु भाव तो घातक ही हैं, अघातक नहीं, वे भाव से उन प्राणियों के वैरी हैं ।
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३६३-३६४ का सारांश २. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३६४ के अनुसार