Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अनाचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र
[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र ुतस्कन्ध
७५५ - प्रणादीयं परिण्णाय, श्रणवदग्गे ति वा पुणो । सातमसासते यावि, इति दिट्ठि न धारए ॥२॥ ७५६ - एतेहि दोहि ठाणेह, ववहारो ण विज्जती । एतेहि दोहि ठाणेहि प्रणायारं तु जाणए ||३॥
७५५-७५६ – 'यह ( चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवं धर्माधर्मादिषट्द्रव्यरूप) लोक अनादि ( प्रादिरहित) और अनन्त है, यह जान कर विवेकी पुरुष यह लोक एकान्त नित्य ( शाश्वत) है, अथवा एकान्त अनित्य ( शाश्वत ) है; इस प्रकार की दृष्टि, एकान्त ( श्राग्रहमयी बुद्धि ) न रखे ।
इन दोनों (एकान्त नित्य और एकान्त प्रनित्य) पक्षों (स्थानों) से व्यवहार (शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार) चल नहीं सकता । अतः इन दोनों एकान्त पक्षों के प्राश्रय को अनाचार जानना चाहिए ।
७५७ - समुच्छिज्जिहति सत्थारो, सव्वे पाणा श्रणेलिसा । गंठीगा वा भविस्संति, सासयं ति च णो वदे ॥४॥ ७५८ - एएहि दोहि ठाणेह, ववहारो ण विज्जई । एहि दोहि ठाणे, प्रणायारं तु जाणई ॥५॥
७५७–७५८- प्रशास्ता ( शासनप्रवर्तक तीर्थंकर तथा उनके शासनानुगामी सभी भव्य जीव)
( एकदिन ) भवोच्छेद ( कालक्रम से मोक्षप्राप्ति) कर लेंगे । अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश (एक समान नहीं) हैं, या सभी जीव कर्मग्रन्थि से बद्ध (ग्रन्थिक) रहेंगे, अथवा सभी जीव शाश्वत ( सदा स्थायी एकरूप) रहेंगे, अथवा तीर्थंकर, सदैव शाश्वत ( स्थायी) रहेंगे, इत्यादि एकान्त वचन नहीं बोलने चाहिए ।
क्योंकि इन दोनों (एकान्तमय) पक्षों से (शास्त्रीय या लौकिक ) व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तपक्षों के ग्रहण को अनाचार समझना चाहिए ।
७५६ - जे केति खुड्डगा पाणा, अदुवा संति महालया । सरिसं तेहि वेरं ति श्रसरिसं ति य णों वदे ॥ ६ ॥ ७६० - एतेहि दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विज्जती ।
एहि दोहि ठाणे, श्रणायारं तु जाणए ॥७॥
७५६–७६०—(इस संसार में ) जो ( एकेन्द्रिय प्रादि) क्षुद्र (छोटे) प्राणी हैं, अथवा जो महाकाय (हाथी, ऊँट, मनुष्य आदि) प्राणी हैं, इन दोनों प्रकार के प्राणियों ( की हिंसा से दोनों) के साथ समान ही वैर होता है, अथवा समान वैर नहीं होता; ऐसा नहीं कहना चाहिए ।
क्योंकि इन दोनों ('समान वैर होता है या समान वैर नहीं होता' ;) एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तवचनों को अनाचार जानना चाहिए ।