Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७३०, ७३१]
[ ११५ आहार करते हैं । उन जलयोनिक वृक्षों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । वे जीव स्वकर्मोदयवश ही जलयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं । जैसे पृथ्वीयोनिक वृक्ष के चार भेदों के प्रत्येक के चार-चार आलापक बताए गए थे, वैसे ही यहाँ जलयोनिक वृक्षों के भी चार भेदों (वृक्ष, अध्यारूह वृक्ष, तृण और हरित) के भी प्रत्येक के चार-चार आलापक कहने चाहिए।
७३०-प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगत्तिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु' उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हढत्ताए कसेरुयत्ताए कच्छ०भाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुदत्ताए नलिणत्ताए सुभग० सोगंधियत्ताए पोंडरिय० महापोंडरिय० सयपत्त० सहस्सपत्त० एवं कल्हार० कोकणत० अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिस० भिसमुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलत्थिमगत्ताए विउंट्टति, ते जीवा तेसिं नाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा प्राहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खल त्थिभगाणं सरोरा नाणावण्णा जाव मक्खायं, एक्को चेव पालावगो [१]।
७३०–श्रीतीर्थंकर भगवान् ने वनस्पतिकाय के और भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकायजगत् में कई जीव उदकयोनिक होते हैं, जो जल में उत्पन्न होते हैं, वहीं रहते और वहीं संवृद्धि पाते हैं। वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण ही तथारूप वनस्पतिकाय में आते हैं और वहाँ वे अनेक प्रकार की योनि (जाति) के उदकों में उदक, अवक, पनक (काई), शैवाल, कलम्बुक, हड, कसेरुक, कच्छभाणितक, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, भिस, मृणाल, पुष्कर, पुष्कराक्षिभग के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना जाति वाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन जलयोनिक वनस्पतियों के उदक से लेकर पुष्कराक्षिभग तक जो नाम बताए गए हैं, उनके विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान (अवयवरचना) से युक्त एवं नानाविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । वे सभी जीव स्व-कृतकर्मानुसार ही इन जीवों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है । इसमें केवल एक ही आलापक होता है।
७३१-[१] अहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता तेहि चेव पुढवि-जोणिएहि रुक्खेहि रुक्खजोणिएहि रुखेंह, रुक्खजोणिएहि मूलेहिं जाव बीएहि [३], रुक्खजोणिएहि अज्झोरुहेहि, अज्झोरुहजोणिएहि अज्झोरुहेहि, अन्झोरुहजोणिएहि मूलेहि जाव बीएहि [३], पुढविजोणिएहि तणेहि, तणजोणिएहि तेणेहि, तणजोणिएहि मूलेहि जाव बीएहि [३], एवं प्रोसहीहि तिण्णि पालावगा [३], एवं हरिएहि वि तिण्णि पालावगा [३], पुढविजोणिएहिं पाएहिं काएहिं जाव कूरेहि [१], उदगजोणिएहि रुक्षेहि, रुक्खजोणिएहि रुखैहि, रुक्खजोणिएहि मूलेहि जाव बीएहि [३], एवं
१. तुलना-"जलरुहा अणेगविहा पन्नत्ता, तं-उदए अवए पणए"पोक्खलस्थिभए"""
-प्रज्ञापनासूत्र प्रथम पद