Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७३२ ]
[ ११६ संचिणित्ता तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुसगत्ताए विउत्ति, ते जीवा मातुप्रोयं पितुसुक्कं तं तदुभयं संसर्ल्ड कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेंति, ततो पच्छा जं से माता णाणाविहाम्रो रसविगईप्रो' प्राहारमाहारेति ततो एगदेसेणं प्रोयमाहारेंति, अणुपुत्वेणं वुड्ढा पलिपागमणुचिन्ना ततो कायातो अभिनिव्वट्टमाणा इत्थि वेगता जणयंति पुरिसं वेगता जणयंति णपुसगं वेगता जणयंति, ते जीवा डहरा समाणा मातु खीरं सप्पि पाहारेंति, अणुपुत्वेणं वुड्ढा प्रोयणं कुम्मासं तस-थावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेति पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि णाणाविहाणं मणुस्साणं अंतरदीवगाणं पारियाणं मिलक्खणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं ।
___७३२-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार के मनुष्यों का स्वरूप बतलाया है। जैसे कि-कई मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न होते हैं, कई अकर्मभूमि में और कई अन्तर्वीपों (५६ अन्तर्वीपों) में उत्पन्न होते हैं। कोई आर्य हैं, कोई म्लेच्छ (अनार्य)। उन जीवों की उत्पति अपने अपने बीज और अपने-अपने अवकाश के अनुसार होतो है। इस उत्पत्ति के कारणरूप पूर्वकर्मनिर्मित योनि में स्त्री पुरुष का मैथनहेतक संयोग उत्पन्न होता है। (उस संयोग के होने पर) उत्पन्न होने वाले वे जीव तैजस् और कार्मण शरीर द्वारा) दोनों के स्नेह का आहार (ग्रहण) करते हैं, तत्पश्चात् वे जीव वहाँ स्त्रीरूप में, पुरुषरूप में और नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं। सर्वप्रथम (वहां) वे जीव माता के रज (शोणित) और पिता के वीर्य (शुक्र) का, जो परस्पर मिले हुए (संसृष्ट) कलुष (मलिन) और घृणित होते हैं, प्रोज-पाहार करते हैं। उसके पश्चात् माता, जिन अनेक प्रकार की सरस वस्तुओं का आहार करती है, वे जीव उसके एकदेश (अंश) का अोज आहार करते हैं। क्रमशः (गर्भ की) वृद्धि एवं परिपाक को प्राप्त वे जीव माता के शरीर से निकलते हुए कोई स्त्रीरूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव बालक होकर माता के दूध और घी का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े हो कर वे जीव चावल, कुल्माष (उड़द या थोड़ा भीजा हुआ मूग) एवं त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । फिर वे उनके शरीर को अचित करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज, आर्य और म्लेच्छ आदि अनेकविध मनुष्यों के शरीर नानावर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श एवं संस्थान वाले नाना पुद्गलों से रचित होते हैं। ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है।
विवेचन-मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं प्राहार की प्रक्रिया-प्रस्तुत सूत्र में अनेक प्रकार के मनुष्यों की उत्पत्ति, आदि की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है।
नारक और देव से पहले मनुष्यों के आहारादि का वर्णन क्यों ?-त्रस जीवों के ४ भेद हैं-नारक, देव, तिर्यञ्च और मनुष्य । इन चारों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसके अतिरिक्त
१. रसविगईओ-'रसविगई थीखीरादिपायो णव विग्गइयो।' अर्थात् माता के दूध आदि ९ विग्गई (विकृतियाँ)
कहलाती हैं । भगवती सूत्र (१/७/६१) में कहा है-'जंसे माया नाणाविहाओ रसविगइओ आहार माहारेइ'वह माता नाना प्रकार की रसविकृतियाँ आहार के रूप में ग्रहण करती है।
-सूत्र कृ. चू. (मू. पा. टि) पृ. २०२