Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७३६, ७३७ ]
[ १२३ करते है । उस अंडे के फूट जाने पर उसमें से कभी स्त्री (मादा) होती है, कभी नर पैदा होता है,
और कभी नपुंसक होता है । वे जीव बाल्यावस्था में वायुकाय (हवा) का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े होने पर वे वनस्पतिकाय तथा अन्य स-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी के शरीर से लेकर वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं, फिर उन्हें पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन (पूर्वोक्त) उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श, प्राकृति एवं संस्थान (रचना) वाले अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरप्रभु ने कहा है।
७३६-प्रहावरं पुरक्खायं-नाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-गोहाणं नउलाणं सेहाणं सरडाणं सल्लाणं संरथाणं खोराणं घरकोइलियाणं विस्समराणं मूसगाणं मंगुसाणं पयलाइयाणं विरालियाणं जोहाणं चाउप्पाइयाणं, तेसि च णं अहाबीएणं प्रहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियध्वं जाव सारूविकडं संतं, प्रवरे वि य णं तेसि नाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिदियथलयरतिरिक्खाणं तं गोहाणं जाव मक्खातं ।
७३६-इसके पश्चात् भुजा के सहारे से पृथ्वी पर चलने वाले (भुजपरिसर्प) अनेक प्रकार के स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के विषय में श्री तीर्थंकर भगवान् ने कहा है । जैसे कि-गोह, नेवला, सेह, सरट, सल्लक, सरथ, खोर, गृहकोकिला (घरोली-छिपकली), विषम्भरा, मूषक (चूहा), मंगुस, पदलातिक, विडालिक जोध और चातुष्पद आदि भुजपरिसर्प हैं। उन जीवों की उत्पत्ति भी अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है । उरःपरिसर्पजीवों के समान ये जीव भी स्त्री पुरुष-संयोग से उत्पन्न होते हैं । शेष सब बातें पूर्ववत् जान लेनी चाहिए। ये जीव भी अपने किये हुए आहार को पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं । गोह से लेकर चातुष्पद तक (पूर्वोक्त) उन अनेक जाति वाले भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के नाना वर्णादि को ले कर अनेक शरीर होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है।
७३७-प्रहावरं पुरक्खातं–णाणाविहाणं खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहाचम्मपक्खीणं लोमपक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं, तेसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए जहा उरपरिसप्पाणं, नाणत्तं ते जीवा डहरगा समाणा माउं-गात्तसिणेहं प्राहारेंति अणुपुग्वेणं वुड्ढा वणस्सतिकायं तस-थावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य गं तेसि नाणाविहाणं खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीणं जाव मक्खातं ।
७३७–इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार की जाति वाले आकाशचारी (खेचर)
१. तुलना-भुजपरिसप्पा अणेगविहा"""नउला सेहा...."जाहा चउप्पाइया""-प्रज्ञापना सूत्र पद १
"माउगात्तसिणेह'-"सीपक्खिणी अंडगाणिकाएण पेल्लिऊरण अच्छति । एवं गातुम्हाए फसंति, सरीरं च नित्वत्त ति ।" अर्थात-बह पक्षिणी (मादा पक्षी) अण्डों पर अपने पंखों को फैला कर बैठती है, और अपने शरीर की उष्मा (गर्मी) के स्पर्श से आहार देकर बच्चे (अण्डे) को सेती है, जिससे वह क्रमशः बढ़ता हैपरिपक्व होता है। -सूत्र कृ. चूणि (मू. पा. टि ) २०५.