Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्धे धर्मपक्ष नामक द्वितीय स्थान के विकल्प
___ ७११-प्रहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति–इह खलु पाईणं वा पडोणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-पारिया वेगे प्रणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे ह्रस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति, एसो पालावगो तहा तव्वो जहा पोंडरीए' जाव सम्वोवसंता सव्वताए परिनिव्वुड त्ति बेमि । एस ठाणे पारिए केवले जाव' सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू, दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते ।
७११-इसके पश्चात् द्वितीय स्थान धर्मपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा जाता है-इस मनुष्यलोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में अनेक प्रकार के मनुष्य रहते हैं, जैसे किकई आर्य होते हैं, कई अनार्य अथवा कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय, कई विशालकाय (लम्बे कद के) होते हैं, कई ह्रस्वकाय (छोटे-नाटे कद के) कई अच्छे वर्ण के होते हैं, कई खराब वर्ण के अथवा कई सुरूप (अच्छे डीलडौल के) होते हैं, कई कुरूप (बेडौल या अंगविकल)। उन मनुष्यों के खेत और मकान परिग्रह होते हैं। यह सब वर्णन जैसे 'पौण्डरीक' के प्रकरण में किया गया है, वैसा ही यहाँ (इस आलापक में) समझ लेना चाहिए। यहाँ से लेकर – 'जो पुरुष समस्त कषायों से उपशान्त हैं, समस्त इन्द्रिय भोगों से निवृत्त हैं, वे धर्मपक्षीय हैं, ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ'–यहाँ तक उसी (पौण्डरीक प्रकरणगत) आलापक के समान कहना चाहिए। यह (द्वितीय) स्थान आर्य है, केवलज्ञान की प्राप्ति का कारण हैं, (यहाँ से लेकर) 'समस्त दुःखों का नाश करनेवाला मार्ग है' (यावत्-तक)। यह एकान्त सम्यक् और उत्तम स्थान है।
इस प्रकार धर्मपक्षनामक द्वितीय स्थान का विचार प्रतिपादित किया गया है।
विवेचन-धर्मपक्षनामक द्वितीय स्थान के विकल्प-प्रस्तुत सूत्र में धर्मपक्षनामक द्वितीय स्थान के स्वरूप की झांकी दी गई है। तीन विकल्पों द्वारा इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है
धर्मपक्ष के अधिकारी इस सूत्र में सर्वप्रथम धर्मपक्ष के अधिकारीगण के कतिपय नाम गिनाए हैं, इन सबका निष्कर्ष यह है कि सभी दिशाओं, देशों, आर्य-अनार्यवंशों, समस्त रंग-रूप, वर्ण एवं जाति में उत्पन्न जन धर्ममक्ष के अधिकारी हो सकते हैं, । इस पर किसी एक विशिष्ट वर्ण, जाति, वंश, देश आदि का अधिकार नहीं है । हाँ, इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि अनार्यदेशोत्पन्न या अनार्यवंशज व्यक्तियों में जो दोष बताये गए हैं, उन दोषों से रहित उत्तम आचार में प्रवृत्त, मिष्ठजन ही धर्मपक्ष के अधिकारी होंगे।
धर्मपक्षीय व्यक्तियों की अर्हताएँ-पौण्डरीक अध्ययन में जो अर्हताएँ दुर्लभ पुण्डरीक को १. यहाँ 'जहा पोंडरीए' से 'परिग्गहियाणि भवंति'—से आगे पुण्डरीक अध्ययन के सूत्र संख्या ६६७ के 'तंजहा
—'अप्पयरा वा भुज्जयरा वा' से लेकर सूत्र संख्या ६९१ के 'ते एवं सव्वोवरता' तक का सारा पाठ समझ
लेना चाहिए। २. यहाँ 'जाव' शब्द से पडिपुणे से लेकर 'सव्वदुक्खपहीणमग्गे' तक का पाठ समझ लेना चाहिए। ३. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३२६ के आधार पर ।