Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध
परिणामित करके अपने स्वरूप में मिला लेते हैं। उन वृक्षयोनिक अध्यारूह वनस्पति के नाना प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले तथा अनेकविध रचनावाले एवं विविध पुद्गलों से बने हुए दूसरे शरीर भी होते हैं । वे अध्यारूह वनस्पति जीव स्वकर्मोदयवश कर्मप्रेरित होकर ही वहाँ उस रूप में उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है ।
(२) श्रीतीर्थकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेद कहे हैं। इस वनस्पतिकायजगत् में अध्यारूहयोनिक जीव अध्यारूह में ही उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित रहते, एवं संवद्धित होते हैं । वे जीव कर्मोदय के कारण ही वहां आकर वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में अध्यारूह के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन वक्षयोनिक अध्यारूहों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वेज से लेकर वनस्पतिक के शरीर का आहार करते हैं। वे त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त कर डालते हैं, फिर उनके परिविध्वस्त शरीर को पचा कर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वनस्पतियों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले, नाना संस्थानवाले, अनेकविध पुद्गलों से बने हुए और भी शरीर होते हैं, वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के प्रभाव से ही अध्यारूहयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर प्रभु ने कहा है ।
(३) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेदों का प्रतिपादन पहले किया है । इस वनस्पतिकायिक जगत् में कई अध्यारूहयोनिक प्राणी अध्यारूह वृक्षों में ही उत्पन्न होते हैं, उन्हीं में उनकी स्थिति और संवृद्धि होती है। वे प्राणी तथाप्रकार के कर्मोदयवश वहाँ आते हैं और अध्यारूहयोनिक वृक्षों में अध्यारूह रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं। तथा वे जीव त्रस और स्थावरप्राणियों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त प्रासुक एवं विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों से युक्त, विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । स्वकृतकर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकर भगवान् ने कहा है।
(४) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेदों का निरूपण किया है। इस वनस्पतिकायजगत् में कई जीव अध्यारूहयोनिक होते हैं। वे अध्यारूह वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, तथा उन्हीं में स्थित रहते हैं और बढ़ते हैं। वे अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर अध्यारूह वृक्षों में आते हैं और अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे (पूर्वोक्त) जीव उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। तदतिरिक्त वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं। वे जीव त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त कर देते हैं। प्रासुक हुए उस शरीर को वे विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारूहयोनिक वृक्षों के मूल से लेकर बीज तक के जीवों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त, अनेक प्रकार के पुद्गलों से रचित अन्य शरीर भी होते हैं। वे (पूर्वोक्त सभी जीव) स्व-स्वकर्मोदयवश ही इनमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है।
७२५–(१) प्रहावरं पुरक्खातं इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविह