Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७२० ]
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विवेचन-दो स्थानों में सबका समावेश : क्यों कैसे और दोनों की पहचान क्या ?-प्रस्तुत चार सूत्रों में धर्म और अधर्म दो स्थानों में पूर्वोक्त तीनों स्थानों का विशेषत: ३६३ प्रावादुकों का अधर्मपक्ष में युक्तिपूर्वक समावेश किया गया है, साथ ही अन्त में धर्म-स्थान और अधर्मस्थान दोनों की मुख्य पहचान बताई गई है।।
धर्म और अधर्म दो ही पक्षों में सबका समावेश कैसे?-पूर्वसूत्रों में उक्त तीन पक्षों का धर्म और अधर्म, इन दो पक्षों में ही समावेश हो जाता है, जो मिश्रपक्ष है, वह धर्म और अधर्म, इन दोनों से मिश्रित होने के कारण इन्ही दो के अन्तर्गत है। इसी शास्त्र में जिन ३६३ प्रावादुकों का उल्लेख किया गया था, उनका समावेश भी अधर्मपक्ष में हो जाता है, क्योंकि ये प्रावादुक धर्मपक्ष से रहित और मिथ्या हैं।
मिथ्या कैसे ? धर्मपक्ष से रहित कैसे ?–यद्यपि बौद्ध, सांख्य नैयायिक और वैशेषिक ये चारों मोक्ष या निर्वाण को एक या दूसरी तरह से मानते हैं, अपने भक्तों को धर्म की व्याख्या करके समझाते हैं, किन्तु वे सब बातें मिथ्या, थोथी एवं युक्तिरहित हैं। जैसे कि बौद्ध दर्शन की मान्यता है-ज्ञानसन्तति के अतिरिक्त आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है । ज्ञानसन्तति का अस्तित्त्व कर्मसन्तति के प्रभाव से है, जो संसार कहलाता है। कर्मसन्तति के नाश के साथ ही ज्ञानसंतति का नाश हो जाता है । अतः मोक्षावस्था में प्रात्मा का कोई अस्तित्व न होने से ऐसे निःसार मोक्ष या निर्वाण के लिए प्रयत्न भी वृथा है। इसी प्रकार सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है, ऐसी स्थिति, में जीव के संसार और मोक्ष दोनों ही संगत नहीं होते, कूटस्थ आत्मा चातुर्गतिक संसार में परिणमन गमन (संसरण) कर नहीं सकती, न ही आत्मा के स्वाभाविक गुणों (स्वभाव) में सदैव परिणमन रूप मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इसी प्रकार नैयायिक और वैशेषिक की मोक्ष और आत्मा की मान्यता युक्तिहीन एवं एकान्ताग्रह युक्त होने से दोनों ही मिथ्या हैं।
___इन प्रावादुकों को अधर्मस्थान में इसलिए भी समाविष्ट किया गया है कि इनका मत परस्पर विरुद्ध है, क्योंकि वे सब प्रावादुक अपने-अपने मत के प्रति अत्याग्रही, एकान्तवादी:होते हैं, इस कारण सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, बौद्ध आदि मतवादियों का मत युक्तिविरुद्ध व मिथ्या है । आगे शास्त्रकार इन ३६३ मतवादियों के अधर्मपक्षीय सिद्ध हेतु शास्त्रकार धधकते अंगारों से भरा बर्तन हाथ में कुछ समय तक लेने का दष्टान्त देकर समझाते हैं। जैसे विभिन्न दष्टि वाले प्रावादक अंगारों से भरे बर्तन को हाथ में लेने से इसलिए हिचकिचाते हैं कि उससे उन्हें दुःख होता है और दुःख उन्हें प्रिय नहीं है। इसी प्रकार सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय एवं सुख प्रिय लगता है । ऐसी प्रात्मौपम्य रूप अहिंसा जिसमें हो, वही धर्म है। इस बात को सत्य समझते हुए भी देवपूजा, यज्ञयाग आदि कार्यों में तथा धर्म के निमित्त प्राणियों का वध करना (हिंसा करना) पाप न मान कर धर्म मानते हैं। इसी तरह श्राद्ध के समय रोहित मत्स्य का वध तथा देवयज्ञ में पशुवध करना धर्म का अंग मानते हैं। इस प्रकार हिंसा धर्म का समर्थन और उपदेश करने वाले प्रावादुक अधर्मपक्ष की ही कोटि में आते हैं। इन मुख्य कारणों से ये प्रावादुक तथाकथित श्रमण-ब्राह्मण धर्मपक्ष से रहित हैं । निर्ग्रन्थ श्रमण-ब्राह्मण एकान्त धर्मपक्ष से युक्त हैं। क्योंकि अहिंसा ही धर्म का मुख्य अंग है, जिसका वे सर्वथा सार्वत्रिक रूप से स्वयं पालन करते-कराते हैं दूसरों को उपदेश भी उसी का देते हैं । वे सब प्रकार की हिंसा का सर्वथा निषेध करते हैं। वे किसी के साथ भी वैरविरोध, घृणा, द्वेष, मोह या कलह नहीं रखते ।