Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
९८]
[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
ओर किसी (सूक्ष्म एवं प्रारम्भी) प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते, (इसी प्रकार मृषावाद, प्रदत्तादान मैथुन और परिग्रह से कथंचित् स्थूलरूप से ) निवृत्त और कथंचित् (सूक्ष्म रूप से) अनिवृत्त होते हैं । और इसी प्रकार के अन्य बोधिनाशक एवं अन्य प्राणियों को परिताप देने वाले जो सावद्यकर्म ( नरकादिगमन के कारणभूत यंत्रपीड़नादि कर्मादानरूप पापव्यवसाय ) हैं उनसे निवृत्त होते हैं, दूसरी ओर कतिपय (अल्पसावद्य) कर्मों - व्यवसायों से वे निवृत्त नहीं होते ।
जैसा कि उनके नाम से विदित है, ( इस मिश्रस्थान के अधिकारी) श्रमणोपासक ( श्रमणों के उपासक श्रावक) होते हैं, जो जीव और अजीव के स्वरूप के ज्ञाता पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध किये हुए, तथा प्राश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं । वे श्रावक असहाय होने पर भी देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देव गणों (से सहायता की अपेक्षा नहीं रखते) और इन के द्वारा दबाव st जाने पर भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन नहीं करते । वे श्रावक इस निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित, निष्कांक्षित, एवं निर्विचिकित्स ( फलाशंका से रहित ) होते हैं । वे सूत्रार्थ के ज्ञाता, उसे समझे हुए, और गुरु से पूछे हुए होते हैं, ( प्रतएव ) सूत्रार्थ का निश्चय किये हुए तथा भली भांति अधिगत किए होते हैं। उनकी हड्डियाँ और रगें (मज्जाएँ) उसके प्रति अनुराग से रंजित होती हैं । (किसी के पूछने पर वे श्रावक कहते हैं- 'आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सार्थक (सत्य) है, परमार्थ है, शेष सब अनर्थक हैं ।' वे स्फटिक के समान स्वच्छ और निर्मल हृदय वाले होते हैं (अथवा वे अपने घर में प्रवेश करने की टाटी (फलिया) खुली रखते हैं), उनके घर के द्वार भी खुले रहते हैं; उन्हें राजा के अन्तःपुर के समान दूसरे के घर में प्रवेश अप्रीतिकर-अरुचिकर लगता है, वे श्रावक चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा आदि पर्व तिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए तथा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भैषज्य, पीठ, फलक, शय्या संस्तारक, तृण (घास ) आदि भिक्षारूप में देकर बहुत लाभ लेते हुए, एवं यथाशक्ति यथारुचि स्वीकृत किये हुए बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, अणुव्रत, त्याग, प्रत्याख्यान, पौषध और उपवास आदि तपः कर्मों द्वारा (बहुत वर्षों तक ) अपनी आत्मा को भावित ( वासित) करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं ।
वे इस प्रकार के आचरणपूर्वक जीवनयापन ( विचरण ) करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय (श्रावकव्रतों का ) पालन करते हैं । यों श्रावकव्रतों की प्राराधना करते हुए रोगादि कोई बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर भी बहुत लम्बे दिनों तक का भक्त - प्रत्याख्यान (अनशन) करते हैं । वे चिरकाल तक का भक्त प्रत्याख्यान ( अनशन) करके उस अनशन - संथारे को पूर्ण (सिद्ध) करके करते हैं । उस अवमरण अनशन ( संथारे) को सिद्ध करके अपने भूतकालीन पापों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके समाधिप्राप्त होकर मृत्यु (काल) का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं (विशिष्ट) देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । तदनुसार वे महाऋद्धि, महाद्युति, महाबल, महायश यावत् महासुख वाले देवलोकों में महाऋद्धि आदि से सम्पन्न देव होते हैं । शेष बातें पूर्वपाठानुसार जान लेनी चाहिए। यह ( तृतीय मिश्रपक्षीय) स्थान प्रार्य (आर्यों द्वारा सेवित), एकान्त सम्यक् और उत्तम है ।
तीसरा जो मिश्रस्थान है, उसका विचार इस प्रकार निरूपित किया गया है ।