Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७१४ ]
[ ६५ कोई अन्त या प्रान्त आहार से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं, कोई पुरिमड्ढ तप (अपराह्न काल में आहार सेवन) करते हैं, कोई प्रायम्बिल तप-श्चरण करते हैं, कोई निर्विगयी (जिस तप में घी, दूध, दही, तेल, मीठा, आदि विगइयों का सेवन न किया जाए) तप करते हैं, वे मद्य और मांस का सेवन कदापि नहीं करते, वे अधिक मात्रा में सरस आहार का सेवन नहीं करते, कई कायोत्सर्ग (स्थान) में स्थित रहते हैं, कई प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्गस्थ रहते हैं, कई उत्कट प्रासन से बैठते हैं, कई ग्रासनयक्त भमि पर ही बैठते हैं. कई वीरासन लगा कर बैठते हैं. क
डंडे की तरह आयत-लम्बे हो कर लेटते हैं, कई लगंडशायी होते हैं (लक्कड़ की तरह टेढ़े हो कर) सोते हैं । कई बाह्य प्रावरण (वस्त्रादि के आवरण) से रहित हो कर रहते हैं, कई कायोत्सर्ग में एक जगह स्थित हो कर रहते हैं (अथवा शरीर की चिन्ता नहीं करते)। कई शरीर को नहीं खुजलाते, वे थूक को भी बाहर नहीं फेंकते । (इस प्रकार औपपातिक सूत्र में अनगार के जो गुण बताए हैं, उन सबको यहां समझ लेना चाहिए)। वे सिर के केश, मूछ, दाढ़ी, रोम और नख की काँटछांट (साज सज्जा) नहीं करते, तथा अपने सारे शरीर का परिकर्म (धोना, नहाना, तेलादि लगाना, संवारना आदि) नहीं करते ।
__ वे महात्मा इस प्रकार उग्रविहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करते हैं। रोगादि अनेकानेक बाधाओं के उपस्थित होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग करते हैं । वे अनेक दिनों तक भक्त प्रत्याख्यान (संथारा) करके उसे पूर्ण करते हैं। अनशन (संथारे) को पूर्णतया सिद्ध करके जिस प्रयोजन से उन महात्माओं द्वारा नग्नभाव, मुण्डित भाव, अस्नान भाव, अदन्तधावन (दाँत साफ न करना), छाते और जूते का उपयोग न करना, भूमिशयन, काष्ठफलकशयन, केशलुचन, ब्रह्मचर्य-वास (या ब्रह्मचर्य = गुरुकुल में निवास), भिक्षार्थ परगृह-प्रवेश आदि कार्य किये जाते हैं, तथा जिसके लिए लाभ और अलाभ (भिक्षा में कभी पाहार प्राप्त होना, कभी न होना) मान-अपमान, अवहेलना, निन्दा, फटकार, तर्जना (झिड़कियां), मार-पीट, (ताड़ना), धमकियाँ तथा ऊँची-नीची बातें, एवं कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन आदि बावीस प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहे जाते हैं, (तथा जिस उद्देश्य से वे महामुनि साधुधर्म में दीक्षित हुए थे) उस उद्देश्य (लक्ष्य) की आराधना कर लेते हैं । उस उद्देश्य की आराधना (सिद्धि) करके अन्तिम श्वासोच्छ्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, (निराबाध), निरावरण, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं । केवलज्ञान-केवल दर्शन उपार्जित करने के पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं; परिनिर्वाण (अक्षय शान्ति) को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त दु:खों का अन्त कर देते हैं।
कई महात्मा एक ही भव (जन्म) में संसार का अन्त (मोक्ष प्राप्त) कर लेते हैं। दूसरे कई महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने के कारण मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । जैसे कि-महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त महायशस्वी, महान् बलशाली महाप्रभावशाली और महासुखदायी जो देवलोक हैं, उनमें वे देवरूप में उत्पन्न होते हैं, वे देव महाऋद्धि सम्पन्न, महाद्य तिसम्पन्न यावत् महासुखसम्पन्न होते हैं। उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित रहते हैं, उनकी भुजाओं में कड़े, बाजबन्द आदि आभूषण पहने होते हैं, उनके कपोलों पर अंगद और कुण्डल लटकते रहते हैं। वे कानों में कर्णफूल धारण किये होते हैं । उनके हाथ विचित्र आभूषणों से युक्त रहते हैं । वे सिर पर विचित्र मालाओं से सुशोभित मुकुट धारण