Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७०३ ]
[ ६३ डूबा रहता है, एवं हथेली पर मुह रख कर (उदासीन मुद्रा में) पृथ्वी पर दृष्टि किये हुए आर्तध्यान करता रहता है । निःसन्देह उसके हृदय में संचित चार कारण हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । वस्तुतः क्रोध, मान, माया और लोभ (आत्मा-अन्तःकरण में उत्पन्न होने के कारण) आध्यात्मिक भाव हैं । उस प्रकार अध्यात्मभाव के कारण सावद्यकर्म का बन्ध होता है। अतः आठवें क्रियास्थान को अध्यात्मप्रत्ययिक कहा गया है ।
विवेचन-आठवां क्रियास्थान : अध्यात्मप्रत्ययिक : स्वरूप और कारण–प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप समझाते हुए चार तथ्य प्रस्तुत किये हैं(१) अन्तःकरण (आत्मा) से प्रादुर्भूत होने के कारण इसे अध्यात्मप्रत्ययिक कहते हैं, (२) मनुष्य अपने चिन्ता, संशयग्रस्त दुर्मन के कारण ही हीन, दीन, दुश्चिन्त, हो कर प्रार्तध्यान में प्रवृत्त होता है, (३) इस अध्यात्म क्रिया के पीछे क्रोधादि चार कारण होते हैं । (४) इसलिए आत्मा में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि चार के कारण जो क्रिया होती है, उसके निमित्त से पापकर्म बन्ध होता है।' नौवां क्रियास्थान-मानप्रत्ययिक : स्वरूप, कारण, परिणाम
___ ७०३–प्रहावरे णवमे किरियाठाणे माणवत्तिए त्ति पाहिज्जई । से जहाणामए केइ पुरिसे जातिमदेण वा कुलमदेण वा बलमदेण वा रूवमएण वा तवमएण वा सुयमदेण वा लाभमदेण वा इस्सरियमदेण वा पण्णामदेण वा अन्नतरेण वा मट्ठाणेणं मत्ते समाणे परं होलेति निदति खिसति गरहति परिभवइ अवमण्णेति, इत्तरिए अयमंसि प्रप्पाणं समुक्कसे, देहा चुए कम्मबितिए अवसे पयाति, तंजहा गन्भातो गम्भं, जम्मातो जम्मं, मारातो मारं, णरगानो णरगं, चंडे थद्ध चवले माणी यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, णवमे किरियाठाणे माणवत्तिए त्ति प्राहिते।
७०३-इसके पश्चात् नौवां क्रियास्थान मानप्रत्ययिक कहा गया है। जैसे कोई व्यक्ति जातिमद, कुलमद, रूपमद, तपोमद, श्रु त (शास्त्रज्ञान) मद, लाभमद, ऐश्वर्यमद एवं प्रज्ञामद, इन आठ मदस्थानों में से किसी एक मद-स्थान से मत्त हो कर दूसरे व्यक्ति की अवहेलना (अवज्ञा) करता है, निन्दा करता है, उसे झिड़कता है, या घृणा करता है, गर्दा करता है, दूसरे को नीचा दिखाता (पराभव करता) है, उसका अपमान करता है। (वह समझता है--) यह व्यक्ति हीन (योग्यता, गुण आदि में मुझ से न्यून) है, मैं विशिष्ट जाति, कुल, बल आदि गुणों से सम्पन्न हूँ, इस प्रकार अपने आपको उत्कृष्ट मानता हा गर्व करता है।
__ इस प्रकार जाति आदि मदों से उन्मत्त पुरुष आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर को (यहीं) छोड़ कर कर्ममात्र को साथ ले कर विवशतापूर्वक परलोक प्रयाण करता है। वहाँ वह एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को और एक नरक से दूसरे नरक को प्राप्त करता है । परलोक में वह चण्ड (भयंकर क्रोधी अतिरौद्र), नम्रतारहित चपल, और अतिमानी होता है।
इस प्रकार वह व्यक्ति उक्त अभिमान (मद) की क्रिया के कारण सावद्यकर्मबन्ध करता है। यह नौवां क्रियास्थान मानप्रत्ययिक कहा गया है । १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३१० का सारांश