Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७१० ] प्रणारिया एवं वदंति–देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे, अण्णे वि णं उवजीवंति, तमेव पासित्ता प्रारिया वदंति-अभिक्कतकूरकम्मे खलु अयं पुरिसे अतिधुन्ने अतिप्रातरक्खे दाहिणगामिए' नेरइए कण्हपक्खिए प्रागमिस्साणं२ दुल्लभबोहिए यावि भविस्सइ।
___ इच्चेयस्स ठाणस्स उद्विता वेगे अभिगिज्झति, अणुट्टिता वेगे अभिगिझंति, अभिझंझाउरा अभिगिझंति, एस ठाणे प्रणारिए अकेवले अप्पडिपुण्णे अणेप्राउए असंसुद्ध प्रसल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिव्वाणमग्गे अणिज्जाणमग्गे असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छ असाहू । एस खलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते।
७१०-(१) कोई व्यक्ति सभा में खड़ा होकर प्रतिज्ञा करता है-'मैं इस प्राणी को मारूंगा'। तत्पश्चात् वह तीतर, बतख, लावक, कबूतर, कपिंजल या अन्य किसी त्रसजीव को मारता है, छेदनभेदन करता है, यहां तक कि उसे प्राणरहित कर डालता है। अपने इस महान् पापकर्म के कारण वह स्वयं को महापापी के नाम से प्रख्यात कर देता है।
(२) कोई (प्रकृति से क्रोधी) पुरुष किसी (अनिष्ट शब्दरूप आदि आदान) कारण से अथवा सड़े गले, या थोड़ा-सा हलकी किस्म का अन्न आदि दे देने से अथवा किसी दूसरे पदार्थ (सुरास्थालकादि) से अभीष्ट लाभ न होने से (अपने स्वामी गृहपति आदि से) विरुद्ध (नाराज या कुपित) हो कर उस गृहपति के या गृहपति के पुत्रों के खलिहान में रखे शाली, व्रीहि जो, गेहूँ आदि धान्यों को स्वयं आग लगाकर जला देता अथवा दूसरे से आग लगवा कर जलवा देता है, उन (गृहस्थ एवं गृहस्थ के पुत्रों) के धान्य को जलानेवाले (दूसरे व्यक्ति को) अच्छा समझता है। इस प्रकार के महापापकर्म के कारण जगत में वह अपने आपको महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर देता है।
(३) कोई (असहिष्णु) पुरुष अपमानादि प्रतिकूल शब्दादि किसी कारण (आदान) से, अथवा सड़ेगले या तुच्छ या अल्प अन्नादि के देने से या किसी दूसरे पदार्थ (सुराथालक आदि) से अभीष्ट लाभ न होने से उस गृहस्थ या उसके पुत्रों पर कुपित (नाराज या विरुद्ध) होकर उनके ऊँटों, गायों-बैलों, घोड़ों, गधों के जंघा आदि अंगों को स्वयं (कुल्हाड़ी आदि से) काट देता है, दूसरों से उनके अंग कटवा देता है, जो उन गृहस्थादि के पशुओं के अंग काटता है, उसे अच्छा समझता है ।
इस महान् पापकर्म के कारण वह जगत् में अपने आपको महापापी के रूप में प्रसिद्ध कर देता है।
(४) कोई (अतिरौद्र) पुरुष किसी अपमानादिजनक शब्दादि के कारण से, अथवा किसी गृहपतिद्वारा खराब या कम अन्न दिये जाने अथवा उससे अपना इष्ट स्वार्थ-सिद्ध न होने से उस पर अत्यंत बिगड़ कर उस गृहस्थ की अथवा उसके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गोशाला, अश्वशाला अथवा गर्दभशाला
१. दाहिणगामिए, नेरइए कण्हपक्खिए-दाक्षिणात्य नरक, तिर्यञ्च मनुष्य और देवों में उत्पन्न होने वाला
दक्षिणगामी,नैरयिक और कृष्णपक्षी होता है। सिद्धान्तानुसार-दिशाओं में दक्षिण दिशा; गतियों में नरकगति;
पक्षों में कृष्णपक्ष अप्रशस्त माने जाते हैं।-शी. वृत्ति २२५ २. आगमिस्साणं-पागामी तीर्थंकरों के तीर्थ में मनुष्यभव पाकर दुर्लभबोधि होता है। सू. च. (मू.पा.टि.) पृ. १७३