Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ६९८ ]
[ ५९
पुरिसे ममं वा मम वा श्रन्नं वा श्रनि वा हिंसिसु वा हिंसइ वा हिंसिएसइ वा तं दंडं तस-यावरेह पाह यमेव णिसिरति, श्रणेण वि णिसिरावेति, अन्न पि णिसिरंतं समणुजाणति, हिंसावंडे, एवं खलु तस्स तत्पत्तियं सावज्जे ति श्राहिज्जइ, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिए त्ति प्राहिते ।
६६७ - इसके पश्चात् तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे कि कोई पुरुष त्रस और स्थावर प्राणियों को इसलिए स्वयं दण्ड देता है कि इस ( त्रस या स्थावर) जीव ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को तथा दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था, मार रहा है या मारेगा अथवा वह दूसरे से त्रस और स्थावर प्राणी को वह दण्ड दिलाता है, या त्रस और स्थावर प्राणी को दण्ड देते हुए दूसरे पुरुष का अनुमोदन करता है । ऐसा व्यक्ति प्राणियों को हिंसारूप दण्ड देता है । उस व्यक्ति को हिंसाप्रत्ययिक सावद्यकर्म का बन्ध होता है ।
अतः इस तीसरे क्रियास्थान को हिंसादण्डप्रत्ययिक कहा गया है ।
विवेचन - तृतीय क्रियास्थान : हिंसादण्डप्रत्ययिक - स्वरूप और विश्लेषण - प्रस्तुत सूत्र में हिंसा दण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान क्या है, वह कैसे होता है इसका दिग्दर्शन कराया गया है ।
हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान मुख्यतया हिंसा प्रधान होता है । यह त्रैकालिक और कृतकारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से होता है । जैसे कि ( १ ) कई व्यक्ति अपने सम्बन्धी की हत्या का बदला लेने के लिए क्रुद्ध होकर सम्बन्धित व्यक्तियों को मार डालते हैं, जैसे- परशुराम ने अपने पिता की हत्या से क्रुद्ध होकर कार्तवीर्य को मार डाला था । (२) भविष्य में मेरी हत्या कर डालेगा, इस आशंका से कोई व्यक्ति सम्बन्धित व्यक्ति को मार या मरवा डालते हैं, जैसे - कंस ने देवकी के पुत्रों को मरवा डालने का उपक्रम किया था। कई व्यक्ति सिंह, सर्प या बिच्छू आदि प्राणियों का इसलिए वध कर डालते हैं कि ये जिंदा रहेंगे तो मुझे या अन्य प्राणियों को मारेंगे । (३) कई व्यक्ति वर्तमान में कोई किसी को मार रहा है तो उस पर मारने को टूट पड़ते हैं । ये और इस प्रकार की क्रिया हिंसाप्रवृत्तिनिमित्तक होती हैं जो पाप कर्मबन्धका कारण होने से हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान कहलाती है । "
चतुर्थ क्रियास्थान – अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण -
६६८- (१) श्रहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्माद् दंडवत्तिए त्ति प्राहिज्जति । से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा जाव वर्णाविदुग्गंसि वा मियवित्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मियत्ति काउं श्रन्नयरस्स मियस्स वधाए उसु प्रायामेत्ता णं णिसिरेज्जा, से मियं वहिस्सामिति कट्टु तित्तिरं वा वट्टगं वा चडगं वा लावगं वा कवोतगं वा कवि का कविजलं वा विधित्ता भवति ; इति खलु से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ, कस्माद्दंडे |
( २ ) से जहाणामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीहीणि वा कोद्दवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा लाणि वा णिलिज्जमाणे श्रन्नयरस्त तणस्स वहाए सत्यं णिसिरेज्जा, से सामगं मयणगं मुगु दगं वीहरूसितं कासुतं तणं छिदिस्सामि त्ति कठु सालि वा वीहि वा कोद्दवं वा कंगुं वा परगं वा रालयं
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३०८ का सारांश