Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र ुतस्कन्ध
(६) भगवान् महावीर का मन्तव्य - एकान्तनियतिवादी नियति को समस्त कार्यों की उत्तरदायी मान कर निःसंकोच सावद्यकर्म एवं कामभोग सेवन करके उक्त कर्मबन्ध के फलस्वरूप संसार में ही फंसे रह कर नाना कष्ट पाते हैं । "
एकान्त नियतिवाद - समीक्षा - नियतिवाद का मन्तव्य यह है कि मनुष्यों को जो कुछ भी भला-बुरा, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि प्राप्त होना नियत निश्चित है, वह उसे अवश्य ही प्राप्त होता है । जो होनहार नहीं है, वह नहीं होता, और जो होनहार है, वह हुए बिना नहीं रहता । अपने-अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए समानरूप से प्रयत्न करने पर भी किसी के कार्य की सिद्धि होती है, किसी के कार्य की नहीं, उसमें नियति ही कारण है । नियति को छोड़ कर काल, ईश्वर, कर्म आदि को कारण मानना प्रज्ञान है । नियतिवादी मानता है कि स्वयं को या दूसरों को प्राप्त होने वाले सुख-दुःखादि स्वकृतकर्म के फल नहीं हैं, वे सब नियतिकृत हैं, जबकि प्रज्ञानी लोग प्राप्त सुख-दुःखादि को ईश्वरकृत, कालकृत या स्वकर्मकृत मानते हैं । शुभ कार्य करने वाले दुःखी और अशुभ कार्य करने वाले सुखी दृष्टिगोचर होते हैं, इसमें नियति की ही प्रबलता है । क्रियावादी जो सक्रिया करता है, या अक्रियावादी जो प्रक्रिया का प्रतिपादन या प्रसत्क्रिया ( दुःखजनक क्रिया) में प्रवृत्ति करता है, वह सब नियति की ही प्र ेरणा से । जीव स्वाधीन नहीं है, नियति के वश है । सभी प्राणी नियति के अधीन हैं ।
यह एकान्तनियतिवाद युक्तिविरुद्ध है । नियति उसे कहते हैं, जो वस्तुनों को अपने-अपने स्वभाव में नियत करती है । ऐसी स्थिति में नियति को अपने ( नियति के) स्वभाव में नियत करने वाली दूसरी नियति की, और दूसरी को स्व-स्वभाव में नियत करने के लिए तीसरी नियति की आवश्यकता रहेगी, यों अनवस्था दोष आएगा । यदि यह कहें कि नियति अपने स्वभाव में स्वतः नियत रहती है, तो यह क्यों नहीं मान लेते कि सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्वतः नियत रहते हैं, उन्हें स्व-स्वभाव में नियत करने के लिए नियति नामक किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहती ।
नियति नियत स्वभाववाली होने के कारण जगत् में प्रत्यक्ष दृश्यमान विचित्रता एवं विविधरूपता को उत्पन्न नहीं कर सकती, यदि वह विचित्र जगत् की उत्पत्ति करने लगेगी तो स्वयं विचित्र स्वभाव वाली हो जाएगी, एक स्वभाव वाली नहीं रह सकेगी । अतः जगत् में दृश्यमान विचित्रता के लिए कर्म को मानना ही उचित है । प्राणिवर्ग अपने-अपने कर्मों की विभिन्नता के कारण
भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं । स्वकृत कर्मों का फल माने बिना जगत् की विचित्रता सिद्ध नहीं हो सकती । अगर नियति को विचित्र स्वभाववाली मानते हैं तो वह कर्म ही है, जिसे नियतिवादी 'नियति' शब्द से कहते हैं । दोनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं रहता । वास्तव में, जिस प्रकार वृक्षों का मूल सींचने से उनकी शाखाओं में फल लगते हैं, उसी प्रकार इस जन्म में किये हुए कर्मों का फल भोग आगामी काल में होता है । मनुष्य पूर्वजन्म में शुभाशुभ कर्म संचित करता है,
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक २८८-२८९ का सारांश ।
२. प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नॄणां शुभोऽशुभो वा ।
भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति, न भाविनोऽस्ति नाशः ॥
— सूत्र. शी. वृत्ति प. २८८ में उद्धत