Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६७५-६७६ ]
[ ३९ अपने-अपने सुख-दुःख का वेदन (अनुभव) करता है । अतः पूर्वोक्त प्रकार से (अन्यकृत कर्म का फल अन्य नहीं भोगता, तथा प्रत्येक व्यक्ति के जन्म-जरा-मरणादि भिन्न-भिन्न हैं इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञातिजनों का संयोग दुःख से रक्षा करने या पीड़ित मनुष्य को शान्ति या शरण देने में समर्थ नहीं है। कभी (क्रोधादिवश या मरणकाल में) मनुष्य स्वयं ज्ञातिजनों के संयोग को पहले ही छोड़ देता है अथवा कभी ज्ञातिसंयोग भी मनुष्य के दुर्व्यवहार-दुराचरणादि देखकर) मनुष्य को पहले छोड़ देता है।" अतः (मेधावी साधक यह निश्चित जान ले कि) 'ज्ञातिजनसंयोग मेरे से भिन्न है. मैं भी ज्ञातिजन संयोग से भिन्न हूँ।' तब फिर हम अपने से पृथक् (आत्मा से भिन्न) इस ज्ञातिजनसंयोग में क्यों आसक्त हों ? यह भलीभांति जानकर अब हम ज्ञाति-संयोग का परित्याग कर देंगे।
६७५-से मेहावी जाणेज्जा बाहिरगमेतं,' इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा-हत्था मे, पाया मे, बाहा मे, ऊरू मे, सीसं मे, उदरं मे, सीलं मे, पाउं मे, बलं मे, वण्णो मे, तया मे, छाया मे, सोयं मे, चक्खु मे, घाणं मे, जिन्भा मे, फासा मे, ममाति। जंसि वयातो परिजरति तं जहा-पाऊयो बलामो वण्णासो ततानो छाताप्रो सोतानो जाव फासापो, सुसंधीता संधी विसंधी भवति, वलितरंगे गाते भवति, किण्हा केसा पलिता भवंति, तं जहा–जं पि य इमं सरोरगं उरालं पाहारोवचियं एतं पि य मे अणुपुव्वेणं विप्पजहियव्वं भविस्सति ।
६७५–परन्तु मेधावी साधक को यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि ज्ञातिजनसंयोग तो बाह्य वस्तु (आत्मा से भिन्न-परभाव) है ही, इनसे भी निकटतर सम्बन्धी ये सब (शरीर के सम्बन्धित अवयवादि) हैं, जिन पर प्राणी ममत्व करता है, जैसे कि ये मेरे हाथ हैं, ये मेरे पैर हैं, ये मेरी बांहें हैं, ये मेरी जांघे हैं, यह मेरा मस्तक है, यह मेरा शील (स्वभाव या आदत) है, इसी तरह मेरी आयु, मेरा बल, मेरा वर्ण (रंग), मेरी चमड़ी (त्वचा) मेरी छाया (अथवा कान्ति) मेरे कान, मेरे नेत्र, मेरी नासिका, मेरी जिह्वा, मेरी स्पर्शेन्द्रिय, इस प्रकार प्राणी 'मेरा मेरा' करता है। (परन्तु याद रखो) आयु अधिक होने पर ये सब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं। जैसे कि (वृद्ध होने के साथ-साथ मनुष्य) आयु से, बल से, वर्ण से, त्वचा से, कान से, तथा स्पर्शेन्द्रियपर्यन्त सभी शरीर सम्बन्धी पदार्थों से क्षीण-हीन हो जाता है। उसकी सुघटित (गठी हुई) दृढ़ सन्धियाँ (जोड़) ढीली हो जाती हैं, उसके शरीर की चमड़ी सिकुड़ कर नसों के जाल से वेष्टित (तरंगरेखावत्) हो जाती है । उसके काले केश सफेद हो जाते हैं, यह जो आहार से उपचित (वृद्धिंगत) औदारिक शरीर है, वह भी क्रमश: अवधि (आयुष्य) पूर्ण होने पर छोड़ देना पड़ेगा।
६७६–एवं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्टितें दुहतो लोगं जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव, तसा चेव, थावरा चेव ।
६७६-यह जान कर भिक्षाचर्या स्वीकार करने हेतु प्रव्रज्या के लिए समुद्यत साधु लोक को दोनों प्रकार से जान ले, जैसे कि-लोक जीवरूप है और अजीवरूप है, तथा त्रसरूप है और स्थावररूप है।
१. पाठान्तर–बाहिरए ताव एस संजोगे -चूणि .