Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध श्रन्नयरातो दुक्खातो रोगायंकातो पडिमोएह श्रणिट्ठाम्रो जाव णो सुहातो । एवामेव णो लद्धपुव्वं भवति ।
६७२ - ( किन्तु उक्त शास्त्रज्ञ ) बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से ही सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग- आतंक (जो कि मेरे लिए अनिष्ट, कान्त, अप्रिय यावत् दुःखदायक है) पैदा होने पर मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करू कि हे भय का अन्त करने वाले ज्ञातिजनों ! मेरे इस अनिष्ट, अप्रिय यावत् दुःखरूप या असुखरूप दुःख या रोगातंक को आप लोग बराबर बांट लें, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित, यावत् प्रतिसंतप्त न होऊं । आप सब मुझे इस अनिष्ट यावत् उत्पीड़क दुःख या रोगातंक से मुक्त करा (छुटकारा दिला) दें ।" इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःख और रोगातंक को बांट कर ले लें, या मुझे इस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता ।
६७३ - सिवा विभयंताराणं मम णाययाणं श्रण्णयरे दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा प्रणिट्ठे जाव नो सुहे, से हंता श्रहमेतसि भयंताराणं णाययाणं इमं श्रण्णतरं दुक्खं रोगातंकं परियाइयामि प्रणिट्ठ जाव णो सुहं, मा में दुक्खंतु वा जाव परितप्पंतु वा इमाम्रो णं श्रण्णतरातो दुक्खातो रोगको परिमएम अणिट्ठातो जाव नो सुहातो । एवामेव णो लद्धपुव्वं भवति ।
६७३ - अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाए, जो अनिष्ट, अप्रिय यावत् सुखकर हो, तो मैं उन भयत्राता ज्ञातिजनों के अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखरूप उस दुःख या रोगातंक को बांट कर ले लूं, ताकि वे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाएँ यावत् वे प्रतिसंतप्त न हों, तथा मैं उन ज्ञातिजनों को उनके किसी अनिष्ट यावत् सुखरूप दुःख या रोगातंक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता ।
६७४ - प्रण्णस्स दुक्खं श्रण्णो नो परियाइयति, अन्नेण कडं कम्मं श्रन्नो नो पडिसंवेदेति, पत्तेयं जाति, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयति, पत्तेयं उववज्जति, पत्तेयं कंझा, पत्तेयं सण्णा, पत्तेयं मण्णा, एवं विष्णू, वेदणा, इति खलु णातिसंयोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसो वा एगता पुव्वि जातिसंयोगे विवजहति, नातिसंयोगा वा एगता पुव्वि पुरिसं विप्पजहंति, श्रन्ने खलु णातिसंयोगा श्रन्नो श्रहमंसि, से किमंग पुण वयं श्रन्नमन्नेहिं णातिसंयोगेहि मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं णातिसंयोगे विप्पजहिस्सामा |
६७४ - (क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बांट कर नहीं ले सकता । दूसरे के द्वारा कृत कर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता । प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, आयुष्य क्षय होने पर अकेला ही मरता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही ( धन-धान्य- हिरण्य- सुवर्णादि परिग्रह, शब्दादि विषयों या माता-पितादि के संयोगों का ) त्याग करता है, अकेला ही प्रत्येक व्यक्ति इन वस्तुओंों का उपभोग या स्वीकार करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा ( कलह ) आदि कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का परिज्ञान ( संज्ञान) करता है, तथा प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन- चिन्तन करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान् होता है, ( उसके बदले में दूसरा कोई विद्वान् नहीं बनता ), प्रत्येक व्यक्ति