Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६६३ ]
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ईश्वरकारणवाद का मन्तव्य - प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्दे शक में स्पष्ट कर दिया गया है, पाठक वही देखें ।
श्रात्माद्वैतवाद का स्वरूप - भी प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में बता दिया गया है । संक्षेप में उनका मन्तव्य यह है कि सारे विश्व में एक ही आत्मा है, वही प्रत्येक प्राणी में स्थित है । वह एक होता हुआ भी विभिन्न जलपात्रों के जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र के समान प्रत्येक जीव में भिन्नभिन्न प्रतीत होता है । जैसे मिट्टी से बने हुए सभी पात्र मृण्मय कहलाते हैं, तन्तु द्वारा बने हुए सभी वस्त्र तन्तुमय कहलाते हैं, इसी प्रकार समस्त विश्व आत्मा द्वारा निर्मित होने से आत्ममय है ।
इस चतुःसूत्री में निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है - ( १ ) ईश्वरकारणवादी अथवा आत्माद्वैतवादी पुरुष का परिचय, (२) ईश्वरकारणवाद या आत्माद्वैतवाद का स्वरूप (३) ईश्वरकारणवाद या श्रात्माद्वैतवाद को सिद्ध करने के लिए प्रतिपादित ७ उपमाएं (क) शरीर में उत्पन्न फोड़े की तरह, (ख) शरीरोत्पन्न प्ररतिवत् ( ग ) पृथ्वी से उत्पन्न वल्मीकवत् (घ) पृथ्वीसमुत्पन्न वृक्षवत् (ङ) पृथ्वी से निर्मित पुष्करिणीवत्, (च) जल से उत्पन्न पुष्करवत् (छ) जल से उत्पन्न बुदबुदवत् । ( ४ ) ईश्वर कर्तृत्ववाद विरोधी श्रमणनिर्ग्रन्थों का द्वादशांगी गणिपिटक ईश्वरकृत न होने से मिथ्या होने का आक्षेप और स्ववाद की सत्यता का प्रतिपादन, (५) ईश्वरकारणवादी या आत्माद्वैतवादी पूर्वसूत्रोक्तवत् क्रिया-प्रक्रिया से लेकर नरकादि गतियों को नहीं मानते । ( ६ ) अपने मिथ्याबाद के आश्रय से पापकर्म एवं कामभोगों का निःसंकोच सेवन, (७) अनार्य एवं विप्रतिपन्न ईश्वरकारणवादियों या आत्माद्वै तवादियों की दुर्दशा का पूर्ववत् वर्णन ।
श्रात्माद्वैतवाद भी युक्तिविरुद्ध - इस जगत् में जब एक आत्मा के सिवाय दूसरी वस्तु है ही नहीं तब फिर मोक्ष के लिए प्रयत्न, शास्त्राध्ययन आदि सब बातें व्यर्थ ही सिद्ध होंगी, सारे जगत् के जीवों का एक आत्मा मानने पर सुखी-दुखी, पापी - पुण्यात्मा आदि प्रत्यक्षदृश्यमान् विचित्रताएं सिद्ध नहीं होंगी, एक के पाप से सभी पापी और एक की मुक्ति से सबकी मुक्ति माननी पड़ेगी, जो कि आत्माद्वैतवादी को अभीष्ट नहीं है । '
चतुर्थ पुरुष : नियतिवादी : स्वरूप और विश्लेषण -
६६३ - प्रहावरे चउत्थे पुरिसजाते णियतिवातिए ति श्राहिज्जति । इह खलु पाईणं वा ४ तहेव जाव सेणावतिपुत्ता वा, तेसि च णं एगतिए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिसु गमणाए जाव जहा मे एस 'धम्मे सुक्खाते सुपण्णत्ते भवति ।
६६३ - तीन पुरुषों का वर्णन करने के पश्चात् अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है । इस मनुष्यलोक में पूर्वादि दिशाओं के वर्णन से लेकर राजा और राजसभा के सभासद सेनापतिपुत्र तक का वर्णन प्रथम पुरुषोक्त पाठ के समान जानना चाहिए। पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है । उसे धर्मश्रद्धालु जान कर ( धर्मोपदेशार्थ ) उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं । यावत् वे उसके पास जाकर कहते हैं"मैं आपको पूर्वपुरुषकथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) धर्म का उपदेश करता हूं ( उसे प्राप ध्यान सुनें ।
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सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक २८४ से २८७ तक का सारांश |