Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 18
________________ जिसमें क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी मतों की विचारणा की गई है। तेरहवें याथातथ्य अध्ययन में २३ गाथाएँ हैं, जिसमें मानव-मन के स्वभाव का सुन्दर वर्णन किया गया है। चौदहवें ग्रन्थ अध्ययन में २७ गाथाएँ हैं, जिसमें ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग का वर्णन किया गया है। पन्द्रहवें आदानीय अध्ययन में २५ गाथाएँ हैं, जिसमें भगवान महावीर के उपदेश का सार दिया गया है। सोलहवाँ गाथा अध्ययन गद्य में है, जिसमें भिक्ष अर्थात् श्रमण का स्वरूप सम्यक् प्रकार से समझाया गया है । सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के सात अध्ययन हैं। उनमें प्रथम अध्ययन पुण्डरीक है, जो गद्य में है। इसमें एक सरोवर के पुण्डरीक कमल की उपमा देकर यह बताया गया है कि विभिन्न मत वाले लोग राज्य के अधिपति राजा को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु स्वयं ही कष्टों में फंस जाते हैं। राजा वहाँ का वहीं रह जाता है। दूसरी ओर सद्धर्म का उपदेश देने वाले भिक्षु के पास राजा अपने आप खिंचा चला आता है। इस अध्ययन में विभिन्न मतों एवं विभिन्न संप्रदायों के भिक्षुओं के आचार का भी वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्ययन क्रियास्थान है, जिसमें कर्मबन्ध के त्रयोदश स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय अध्य. यन आहार-परिज्ञा है, जिसमें बताया गया है कि आत्मार्थी भिक्षु को निर्दोष आहारपानी की एषणा किस प्रकार करनी चाहिए। चौथा अध्ययन प्रत्याख्यान है, जिसमें त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत एवं नियमों का स्वरूप बताया गया है। पाँचवाँ आचारश्रु त अध्ययन है, जिसमें त्याज्य वस्तुओं की गणना की गई है, तथा लोकमूढ़ मान्यताओं का खण्डन किया गया है। छठा अध्ययन आईक है, जिसमें आईककुमार की धर्मकथा बहुत सुन्दर ढंग से कही गई है। यह एक दार्शनिक संवाद है, जो उपनिषदों के संवाद की पद्धति का है। विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आर्द्र ककुमार से विभिन्न प्रश्न करते हैं और आईक उनकी विभिन्न शंकाओं का समाधान करते हैं। सातवाँ नालन्दा अध्ययन है, जिसमें भगवान महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का नालन्दा में दिया गया उपदेश अंकित है। सूत्रकृतांग सूत्र में जिन मतों का उल्लेख है, उनमें से कुछ का सम्बन्ध आचार से है और कुछ का तत्त्ववाद अर्थात् दर्शन-शास्त्र से है। इन मतों का वर्णन करते हुए उस पद्धति को अपनाया गया है, जिसमें पूर्वपक्ष का परिचय देकर बाद में उसका खण्डन किया जाता है । इस दृष्टि से सूत्रकृतांग का अन्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान जैन आगमों में माना जाता है। बौद्ध-परम्परा के अभिधम्मपिटक की रचना भी इसी शैली पर की गई है। दोनों की तुलनात्मक दृष्टि मननीय है। पञ्च महाभूतवाद दर्शनशास्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह रहा कि यह लोक क्या है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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