Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

Previous | Next

Page 12
________________ ज्ञान मीमांसा ११ परन्तु प्रश्न है कि आत्मा अपने ज्ञान को कैसे जान सकता है? ज्ञान स्वयं को स्वयं से जानता है, यह बात जल्दी समझ में नहीं आती। जैसे अग्नि स्वयं को नहीं जला सकती है, वह पदार्थ को ही जलाती है, वैसे ही ज्ञान, ज्ञान को कैसे जान सकता है, वह दूसरे को ही जान सकता है। प्रस्तुत प्रश्न के समाधान में जैन-दर्शन का कथन है, कि ज्ञान अपने आपको जानता हुआ ही दूसरे पदार्थों को जानता है। जैसे दीपक स्वयं अपने को प्रकाशित करता हुआ ही परपदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान अपने आप को जानता हुआ ही परपदार्थों को जानता है। दीपक में यह गुण है कि वह स्वयं को भी प्रकाशित करता है और अपनी शक्ति के अनुसार अपने समीपस्थ पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। दीपक को प्रकाशित करने के लिए प्रदेश में स्थित अन्य किसी दीपक की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार ज्ञान को जानने के लिए भी ज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। अतः ज्ञान दीपक के समान स्वयं और पर प्रकाशक माना गया है। मैं आपसे ज्ञान के सम्बन्ध में विचार-विनिमय कर रहा था।आगम में अभेद दृष्टि से कहा गया है, कि जो ज्ञान है, वह आत्मा है, और जो आत्मा है वही ज्ञान है। जो आत्मा है, वह जानता है और जो जानता है, वह आत्मा है। भेद दृष्टि से कथन करते हुए ज्ञान को आत्मा का गुण कहा गया है। अतः भेदाभेद दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा ज्ञान से सर्वथा भिन्न भी नहीं है और अभिन्न भी नहीं है, किन्तु कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। ज्ञान आत्मा ही है, इसलिए वह आत्मा से अभिन्न है। और ज्ञान आत्मा का गुण है, इसलिए वह उससे भिन्न भी है। फलितार्थ यह है कि आत्मा ज्ञान-स्वरूप है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। प्रश्न होता है, कि ज्ञान उत्पन्न कैसे होता है? जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान और ज्ञेय दोनों स्वतन्त्र हैं। मैंने आपसे कहा, कि ज्ञान आत्मा का गुण है और वह अपने ज्ञेय को जानता है। ज्ञेय तीन प्रकार का होता है-द्रव्य, गुण और पर्याय।जहाँ तक ज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न है, जैन दर्शन के अनुसार यह कहा जा सकता है, कि न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञेय ज्ञान से। हमारा ज्ञान ज्ञेय को जानता है, ज्ञेय से उत्पन्न नहीं होता है। ज्ञान आत्मा में अपने गुण स्वरूप से सदा अवस्थित रहता है और पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। शास्त्र में ज्ञान के पाँच भेद माने गए हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान। इन पाँच ज्ञानों के सम्बन्ध में मूलतः किसी प्रकार का विचार-भेद न होने पर भी इनके वर्गीकरण की पद्धति अवश्य ही भिन्न-भिन्न प्रकार की रही है। आगम काल से आगे चलकर प्रमाण-शास्त्र में ज्ञान के भेद-प्रभेद का जो कथन किया गया है, वह वस्तुतः तर्क विकास का प्रतीक है। जब हम दर्शन-शास्त्र का अध्ययन करते हैं, तब ज्ञात होता है, कि मूल में ज्ञान के जो पाँच भेद हैं, उन्हीं को दर्शन-शास्त्र एवं प्रमाण-शास्त्र में तर्कानुकूल बनाने का प्रयल किया गया है। परन्तु इस प्रयल में मूल मान्यता में किसी भी प्रकार की गड़बड़ नहीं हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 170