Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 10
________________ १. ज्ञान-मीमांसा ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध दण्ड और दण्डी के सम्बन्ध से भिन्न है । दण्ड और aust का सम्बन्ध संयोग-सम्बन्ध होता है। संयोग-सम्बन्ध दो भिन्न पदार्थों में ही हो सकता है । आत्मा और ज्ञान के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। क्योंकि ज्ञान आत्मा का एक स्वाभाविक गुण 'है। स्वाभाविक गुण उसे कहा जाता है, जो कभी भी अपने आश्रयभूत द्रव्य का परित्याग नहीं करता। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना करना सम्भव नहीं है। जैन-दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक गुण मानता है, जबकि कुछ अन्य दार्शनिक ज्ञान को आत्मा का मौलिक गुण न मानकर एक आगन्तुक गुण स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन में कहीं-कहीं तो ज्ञान को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है, कि आत्मा अन्य गुणों को गौण करके ज्ञान और आत्मा को एक ही मान लिया गया है। व्यवहार नय की अपेक्षा से ज्ञान और आत्मा में भेद माना गया है, किन्तु निश्चय नय से ज्ञान और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद स्वीकार नहीं किया गया है। इस प्रकार ज्ञान और आत्मा में तादात्म्य सम्बन्ध माना गया है। ज्ञान आत्मा का एक निजगुण है, और जो निजगुण होता है, वह कभी अपने गुणी द्रव्य से भिन्न नहीं हो सकता । जिस प्रकार दण्ड और दण्डी दोनों पृथक्भूत पदार्थ हैं, उस प्रकार आत्मा से भिन्न ज्ञान को नहीं माना जा सकता और आत्मा को भी ज्ञान से भिन्न नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है। दोनों में किसी भी प्रकार का भेद किया नहीं जा सकता है। सम्यक्ज्ञान और मिथ्याज्ञान का अन्तर समझने के लिए, एक बात आपको ध्यान में रखनी चाहिए। दर्शन-शास्त्र में और अध्यात्मशास्त्र में सम्यक्ज्ञान के सम्बन्ध में थोड़ा-सा मतभेद है | दर्शनशास्त्र में ज्ञान का सम्यक्त्व ज्ञेय की यथार्थता पर आधारित रहता है। जिस ज्ञान में ज्ञेय पदार्थ अपने सही रूप में प्रतिभासित होता है, दर्शनशास्त्र में उस ज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहा जाता है । ज्ञेय को अन्यथा रूप में जानने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान कहा जाता है। उदाहरण के लिए, शुक्ति और रजत को लीजिए । शुक्ति को रजत समझ लेना अथवा रज़त को शुक्ति समझ लेना मिथ्याज्ञान है। दर्शन-शास्त्र में सम्यक्ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है और मिथ्याज्ञान को अप्रमाण कहा जाता है। दर्शन - शास्त्र में प्रमेय की यथार्थता और अयथार्थता पर ही प्रमाण की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता निर्भर रहती है। दर्शन - शास्त्र में पदार्थ का सम्यक् निर्णय करने वाला ज्ञान प्रमाण माना जाता है, और जो ज्ञान पदार्थ का सम्यक् निर्णय न करे, उस ज्ञान को दार्शनिक परिभाषा में अप्रमाण कहा जाता है। ९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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