Book Title: Adhyatma Chandra Bhajanmala
Author(s): Chandrakanta Deriya
Publisher: Sonabai Jain Ganjbasauda

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Page 9
________________ अध्यात्म चन्द भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन -२ तर्ज-घर द्वार छोड़कर, गुरूवर... आतम से नेह जोड़ के, हम धर्म पे अड़े । पुद्गल से नेह तोड़ के, हम शिव नगर चले ॥ १. आतम ही ज्ञान ध्यान है, आतम महान है। अक्षय सुखों का पान कर, होवे शुद्ध ध्यान है ॥ वो ज्ञान की गरिमा, बना करके चले गये.... २. हे ज्ञान के सागर, तुम्हें अपनी ही सुनाऊँ। हो बन्धनों से मुक्त, शीघ्र अपने में आऊँ ॥ गुरूवर तुम्हारे साथ ही, कर्मों से हम लड़ें.... ३. ज्ञानी का मार्ग एक है, निःशल्य निर्विकार । अजर अमर अनुपम, ये आत्मा हमार ॥ टंकोत्कीर्ण आत्मा का, ध्यान कर चले.... ४. निशंक आत्मज्ञान है, ध्रुव की करो पहिचान । ज्ञायक स्वरूपी आत्म ने, ध्रुव को लिया पहिचान ।। धुव ध्यान की अखंडता में, एक हो लिये.... ५. तीन लोक के हो नाथ, तुम्हें वंदना करूँ। निज स्वात्मा में लीन, जग के दु:ख को मैं हरूँ ॥ धुव आत्मा शुद्धात्मा को, मैंने लख लिये.... भजन -४ तर्ज-आ लौट के आ जा... छोडी मिथ्या से मैंने प्रीत. मुझे शुद्धातम बुलाते हैं। हुआ आतम त्रिलोकीनाथ, कि हम जग से तर जाते हैं। १. लागी निज से लगन, हुए आतम मगन, ओ सजन अब तो, निज घर को आ जा। मिटे जन्म मरण, करूं आत्म रमण, हो उवन मुक्ति मारग, पै आ जा ॥ हुई आतम से मेरी प्रीत, कर्म के झुण्ड बिलाते हैं.... छोड़ी... २. श्री मालारोहण, किया जग से तोरण, पंडित पूजा जी से, ज्ञान जगाया। त्रय रत्नत्रय पाल, आतम को सम्हाल, सत्य धर्म को निज में लखाया ॥ श्री कमलबत्तीसी का किया पाठ, स्वात्म तल्लीन दिखाते हैं, छोडी... ३. श्री श्रावकाचार आचरण सुधार, ज्ञानसमुच्चयसार पै, दृष्टि को रखना। श्री उपदेशशुद्धसार, ज्ञान का हो भंडार, शुद्धात्म पै दृष्टि को रखना ॥ त्रिभंगीसार ने किया कमाल, आयु का बंध बताते हैं...छोड़ी... ४. श्री चौबीस ठाणा, दुर्गति न जाना, ममल पाहुड जी की कथनी निराली। स्वानुभूति का है ढेर, रसास्वादन सुमेल, ये परमातम पद का है प्याला ॥ ज्ञान झरना बहे दिन रैन, मुक्ति पद को हम पाते हैं...छोड़ी... ५. श्री खातिका विशेष, कर्म रहे न शेष, सत्ता एक शून्य विन्द में समाये । श्री सिद्ध स्वभाव मिटे सारे विभाव, छद्मस्थवाणी जी से अलख जगाये ॥ नाम माला जी में शिष्य समुदाय, ममल ध्रुवता को पाते हैं...छोड़ी... भजन-३ आतम जाना है किस देश॥ १. नरक स्वर्ग के बहु दु:ख भुगते, सुख न पाया लेश, आतम... २. तिर्यंच गति में बोझा ढोया, भारी पाया क्लेश, आतम... ३. मुश्किल से नर तन को पाया, भोगों में करता ऐश, आतम... ४. पंचेन्द्रिय विषयों को भोगत, छोड़ा अपना होश, आतम... ५. अब चेतन सुधि अपनी ले ले, धार दिगंबर भेष, आतम... ६. आतम ज्ञान के दर्शन कर ले, पावे सम्यक् देश, आतम... ७. रत्नत्रय का सुमरण कर ले, शाश्वत होवे भेष, आतम... ८. अजर अमर अविनाशी आतम, हो परमातम वेश, आतम...

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