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आध्यात्मिक चिंतन बोध
आध्यात्मिक चिंतन बोध
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४१. दूसरों का कभी बुरा मत करो और न बुरा चाहो । तुम्हारे चाहने या करने से किसी
का बुरा नहीं होगा, प्रत्येक जीव का भला-बुरा उसके अपने कर्म, कारण रूप में विद्यमान होंगे और जो फलदानोन्मुख (उदय रूप) होंगे, तभी उसका भला-बुरा होगा परन्तु किसी का बुरा चाहते ही तुम्हारा बुरा तो निश्चित रूप से हो ही
गया। १२. जिससे अपना तथा दूसरों का परिणाम में अहित होता हो वही पाप है, और
जिससे अपना तथा दूसरों का हित होता हो वही पुण्य है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जो आत्मा को अपवित्र मलिन करे वह पाप है और जो आत्मा को पवित्र होने में साधन बने, वह पुण्य है। संसार में पाप दु:ख का कारण
है और पुण्य सुख का कारण है। ४३. दूसरों का अहित चाहने और करने वाले का कभी हित नहीं होता और दूसरों का
हित चाहने और करने वाले का कभी अहित नहीं होता । हमारा अहित या नुकसान हमारे ही कर्म के उदय से होता है, दूसरा उसमें कुछ भी नहीं कर सकता, यदि कोई वैसी चेष्टा करता है तो वह अपने लिये ही बुराई का बीज बोता है और जो स्वयं अपने लिये अहित कार्य करता है, वह दया का पात्र है, द्वेष का
पात्र नहीं। ४४. किसी भी स्थिति, अवस्था, प्राणी, पदार्थ या किसी वस्तु आदि से जो जीव सुखी
होने की आशा रखता है, वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता, वह सदा ही निराश रहेगा, फलस्वरूप दु:खी रहेगा। वस्तुत: सुख किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है, सुख का सागर अंतस में लहरा रहा है, अंतर में देखें तो सहज सुखी हो जायें। जहां सुख है ही नहीं वहां ढूंढने से तो वह कभी मिलने वाला नहीं है। सुख अपने स्वभाव में
है वहीं दूँढो, यही सुखी होने का सच्चा उपाय है। ४५. सुख-दु:ख किसी वस्तु या स्थिति में नहीं है, और न ही कोई सुख-दु:ख देता
है। मन की अनुकूलता में सुख है और प्रतिकूलता में दुःख है। यदि हम ज्ञान की दृष्टि बना लें और अपने को निर्लिप्त मात्र ज्ञाता दृष्टा मान लें, स्वीकार कर लें तो हर परिस्थिति में अनुकूलता-प्रतिकूलता की मान्यता समाप्त हो जायेगी और समता भाव का जागरण हो जायेगा फिर सुख-दु:ख से परे हम आनंद को प्राप्त
कर सकेंगे। ४६. किसी को कुछ देकर अहसान की भावना तो करो ही मत, बल्कि बदले में उससे
कृतज्ञता भी मत चाहो और न प्रचार करो - उसी की वस्तु उसे दी गयी है यह समझकर इसे भूल जाओ । विशेष यह कि अपने द्वारा किसी का कभी कुछ हित हुआ हो उसे भूल जाओ, दूसरे के द्वारा अपना कभी अहित हुआ है उसे भूल
जाओ। दूसरे के द्वारा अपना कुछ हित हुआ हो उसे याद रखना चाहिये और
अपने द्वारा कभी किसी का अहित हुआ हो उसे याद रखना चाहिये। ४७. धन की तृष्णा और भोगों की लिप्सा ही जीव के संसार की बंधन का कारण है,
जीब इनसे कभी तृप्त नहीं हो सकता । संसार में संतोष भाव वाला व्यक्ति ही सुखी रहता है, असंतोषी व्यक्ति दु:खी बना रहता है। भोगों की प्राप्ति से भोग इच्छा शांत नहीं हो सकती बल्कि ईधन में घी डालने से जैसे अग्नि अधिकाधिक बढ़ती है उसी प्रकार भोगेच्छा में वृद्धि होती है। ___जो संतुष्ट है, निष्काम है, तथा आत्मा में ही रमण करता है उसे जो सुख मिलता है वैसा सुख काम भोग की लालसा में और धन की इच्छा से इधर-उधर
दौड़ने वालों को कभी नहीं मिल सकता। ४८. माया के झपट्टे में आकर बड़े-बड़े लोग भी चकरा जाते हैं. पहले चाहे जितने
धैर्यशील बनते रहे हों, विपत्ति की चोट उन्हें विचलित कर देती है। सम्मान पाते-पाते आदत इतनी बिगड़ जाती है कि अपमान होते ही, वे अपने को काबू में नहीं रख पाते । शत्रुता का चिन्तन करते-करते वे उसके प्रवाह में इतने बह जाते हैं कि अपने आपको संभाल नहीं पाते । धैर्य का बांध टूट जाता है। उनकी कार्यशैली भी मानवीयता से गिर जाती है यह आसुरी वृत्ति के लक्षण हैं और माया के चक्र में, माया के भंवर में उलझा हुआ जीव इस तरह की पतन रूप
प्रवृत्ति का शिकार बन जाता है। ४९. ममता फांसी है, समता सिंहासन है, जीव ममता से बंधता है और समता से
मुक्त होता है । ममत्व भाव अर्थात् कुछ भी मेरा है ऐसा मानना ही बंधन है, स्वभाव से विलक्षण अचैतन्य, जड़ पदार्थ आत्मा मय नहीं हो सकते और उनमें 'मम' भाव से अपनत्व का संबंध बनाना ही दुःख का कारण है। कुछ भी अपना है ऐसा मानना ही दुःख है, कुछ भी अपना नहीं है ऐसा श्रद्धान ही सुख है। ममता से जीव दु:खी रहता है, और समता सदा ही सुख स्वरूप है इसलिये ममत्व भाव छोड़कर निर्ममत्व भाव का विचार चिंतन मनन करना चाहिये इसी में जीवन का
सार है। ५०. संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव को अनादि काल बीत गया और जिस
जिस शरीर को भी इसने धारण किया उस उस शरीर में ही 'मैं' का अहं भाव किया अर्थात् हर पर्याय में उस शरीर को ही 'मैं' माना किन्तु अपने चैतन्य स्वरूप को नहीं जाना यही अज्ञान महान द:खों का घर है। यह अज्ञानी जीव शरीरादि संयोगी जड़ पदार्थों को तो अपने मानता है किन्तु कोई भी अचेतन