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॥ वन्दे श्री गुरू तारणम् ॥
अध्यात्म
चन्द्र भजनमाला
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रचयित्री श्रीमती चन्द्रकांता डेरिया गंजबासौदा (म.प्र.)
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॥ वन्दे श्री गुरू तारणम् ।।
अध्यात्मचन्द्रभजनमाला प्रकाशन वर्ष-पर्युषण पर्व सितम्बर १९९९
प्रथम संस्करण- १०००
सर्वाधिकार सुरक्षित | मूल्य-अध्यात्म चिंतन |
अध्यात्म
चन्द्र भजनमाला
रचयित्री श्रीमती चन्द्रकांता डेरिया
गंजबासौदा (म.प्र.)
*शुभकामना सहयोग * श्रीमती मेवाबाई धर्मपत्निस्व. श्री हीरालालजी, पुत्र-आनन्द तारण, दिनेशतारण,
दीपकतारण भोपाल (म.प्र.) श्रीमती रिषभकांता तारण, धर्मपनि श्री विमल कुमार जीतारण, पुत्र-उमाकान्त,
श्रीकान्त तारण, भोपाल (म.प्र.) * श्रीमती प्रेमलता जैनधर्मपत्नि श्री सनत कुमारजी जैन,पुत्र-डा. रूपेशजैन
भोपाल (म.प्र.) * श्रीमती पुष्पलताजैन धर्मपत्निश्रीबसंत कुमारजीजैन, पुत्र-आदेश, आशीष,
अतुल जैन इटारसी (म.प्र.) * श्रीमती ब्रजबालाजैन धर्मपत्नि श्री राजकुमारजी जैन, पुत्र-संजेश जैन विदिशा (म.प्र.) • श्रीमती सुनीता जैन धर्मपत्नि श्री आनन्द कुमारजी जैन, पुत्र-उत्सव जैन बांदा (उ.प्र.)
प्रकाशक एवं प्राप्ति स्थल
* प्रतिष्ठान १. मे. हजारी लाल प्रेमचंद डेरिया, गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र. २. मे. डेरिया एंड संस, गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र.. ३. मे. डेरिया हैण्डलूम हाउस, गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र. ४. मे. सरस रेडिमेड स्टोर्स, गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र. ५. मे. सौगात परिधान, गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र.
फोन : (०७५९४) निवास - २०३०३ प्रतिष्ठान-२०५१७,२१६२६,२१५७४, २०८२३
प्रकाशक श्रीमती सोनाबाई जैन
डेरिया एंड संस गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र.
आवरण, अक्षर संयोजन एवं अभिकल्पन:- एडवांस्ड लाईन नानक अपार्टमेंट, कस्तूरबा नगर, भोपाल. फोन:२७४२८६
मुद्रक :- प्रियंका प्रिन्टर्स बी-८४, कस्तूरबा नगर,भोपाल.फोन:५८७३८७
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मंगलमय अध्यात्म 4 अध्यात्म का मार्ग अपने आत्म स्वरूप की साधना, ज्ञान का मार्ग है। अध्यात्म का अर्थ अपने आत्म बोध को उपलब्ध होना है। यह मनुष्य र को पलायन करना नहीं सिखाता बल्कि जीवन को अंतर एवं बाह्य से भी व्यवस्थित कर जीवन को मंगलमय बना देता है। वर्तमान में तेजी से बदलते भौतिकतापूर्ण परिवेश में एकमात्र अध्यात्म ही शरण है। अपने आत्म स्वरूप को भूलकर जीव चार गति चौरासी लाख योनि रूप संसार में अनादिकाल से भटक रहा है। महान सौभाग्य पुण्य उदय से यह मनुष्य भव संसार से मुक्त होने आनन्द परमानन्द मय परम पद, अविनाशी सिद्धि मुक्ति को प्राप्त करने के लिये मिल गया है। इस जीवन का सदुपयोग एकमात्र आत्म साधना ज्ञान ध्यान पूर्वक आत्म कल्याण का पथ प्रशस्त करने में ही है। ऐसा अवसर संसार की अनादिकालीन यात्रा में इतनी सहजता से मिल जाना महान सौभाग्य की बात है।
श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने हमें ज्ञानी होकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त किया है। अपने को जानना, स्वरूप साधना करना ही ज्ञानी का ध्येय होता है और यही जीवन की सार्थकता का मूल आधार है।
अपने आत्म कल्याण की भावना, गुरू ग्रंथों के स्वाध्याय एवं श्री संघ के सान्निध्य से प्रेरणा प्राप्त कर बहिन श्रीमती चंद्रकांता जी डेरिया ने अपने जीवन को भी गुरूभक्ति और धर्मश्रद्धा से संयुक्त किया, इसी क्रम में समय-समय पर जो सहज अंतर्भावना उठी और लेखनीबद्ध हुई, वही भावना इस 'अध्यात्म चन्द्र भजन माला' में भजन और अन्य रचनाओं में परिणत हो गई है। श्री प्रेमचंद जी डेरिया और उनका पूरा परिवार श्री गुरू महाराज के प्रति, धर्म प्रभावना के लिये पूर्ण समर्पित है। सांसारिक विविधताओं के बीच रहते हुए भी उनकी भावना गुरू भक्ति और धर्म मय है यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है। श्रीमती चंद्रकांता जी डेरिया द्वारा लिखित यह भजन अध्यात्म और वैराग्य से पूर्ण है। वर्तमान समय की धारा के अनुरूप भी इस कृति में भजन हैं जो सभी के लिये उपयोगी होंगे। श्री प्रेमचंद जी डेरिया परिवार द्वारा इस अध्यात्म चंद्र भजन माला का प्रकाशन सभी के लाभ हेतु ज्ञानदान की प्रभावना के शुभ भाव सहित कराया गया है। इन भजनों से सभी भव्यात्माओं को अपने आत्म कल्याण करने की प्रेरणा प्राप्त हो यही मंगल भावना है।
भोपाल वर्षावास * दिनांक १४.९.९९ (भाद्र पद सुदी पंचमी)
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आमुख यह जीव अनादिकाल से चार गति चौरासी लाख योनियों रूपी अटवी - में भटकता चला आ रहा है, लेकिन इसे थकान नहीं लगी, कहा है कि 'बहु पुण्य पुंज प्रसंग से शुभदेह मानव का मिला वर्तमान में श्री भगवान महावीर स्वामी जी की विशुद्ध आम्नाय में जन्मे सद्गुरू श्रीमद् जिन तारण तरण स्वामी जी की परम्परा से लाभान्वित होती हुई, श्रीमती चन्द्रकांता डेरिया ने अपने निर्मल भावों को भजनों के माध्यम से शब्दों में अंकित कर अपनी विशुद्ध परिणति का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। श्री गुरू महाराज से प्रार्थना है कि इस शुद्ध भावों की प्रतीक अध्यात्म चन्द्र भजन माला के मनन से सभी भव्य जीव अपने आत्म कल्याण के मार्ग को प्रशस्त कर भावी जीवन को मंगलमय बनावें।
इसी भावना के साथ, गंजबासौदा
पं.सरदारमल जैन दिनांक ३०.८.९९
अध्यात्म गंगा अध्यात्म की निरंतर बहती धारा के अमृत बिन्दु को ग्रहण करने के लिये मानव मन सदैव प्रतीक्षारत रहता है। हृदय कमल खिल उठता है, जब कहीं दूर से ऐसी स्व-पर कल्याण की ध्वनि सुनाई देती है, आज भी भजनों के स्वर और संगीत लहरियों में खो जाने का अवसर है। भजन प्राय: पर्व या मंदिर विधि के अवसर पर ही हमें सुनने को मिलते हैं, पूज्य ब्रह्मचारी बसन्त जी के भजन कैसेट को हम कितने मनोभावों से तल्लीन होकर सुनते हैं, यह हम ही जानते हैं। भजन पुस्तक रूप में भी हमारे सामने आये हैं.यह कह कर हम आपसे यह कहना चाह रहे हैं कि सृजन अति दष्कर कार्य है। गृहस्थाश्रम में रहकर अध्यात्म साहित्य की रचना में सक्रिय भूमिका का निर्वाह भी इसी श्रेणी में रखा जाना उचित लगता है। आज जब हम पाश्चात्य संस्कृति की
ओर भाग रहे हैं, तो अपना धर्म और अध्यात्म कहां तथा किस अवस्था में है, हमें ध्यान ही नहीं है। हमारा समाज, हमारी परम्परायें और यहां तक कि हमारी धारणाएं बदल रही हैं, ऐसे में एक नवीन कृति "अध्यात्म चंद्र भजन माला" हमें पाश्चात्य संस्कृति से दूर रख कर धर्म के निकट लाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। हमारी बड़ी दीदी का यह प्रयास निश्चित रूप से हमें सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित कर रहा है, उनके इस कदम से हमें मार्गदर्शन मिला है। अध्यात्म की श्री गंगा में सदैव स्नान का यह पथपाकर हम गौरवान्वित हैं और ऐसा विश्वास करते हैं कि यह भजन सभी लोगों को भक्ति के माध्यम से स्व-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगे। र भोपाल
आनंद तारण, दिनेश तारण EGORY दिनांक १.९.९९
दीपक तारण :
ब्र.बसन्त
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दो शब्द 4. मनुष्य भव हमें आत्म कल्याण करने के लिये मिला है। हम अत्यंत
सौभाग्यशाली हैं कि हमें श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के द्वारा बताया हुआ शुद्ध अध्यात्म का मार्ग और सत्य धर्म आत्म स्वरूप को सुनने समझने और आत्म कल्याण के मार्ग पर चलने का सुअवसर मिला । पूज्य गुरुदेव श्री जिन तारण स्वामी के सिद्धांत मनुष्य मात्र के लिये आत्म कल्याणकारी है। आत्मा ही परमात्मा है,यही साधना जीवन को सार्थक बनाने वाली है। यही अध्यात्म सिद्धांत श्री गुरू महाराज के चौदह ग्रंथों की एक-एक गाथा में प्रगट हुआ है। पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज एवं श्री संघ के सभी साधक इसी साधना के मार्ग पर चलते हुए स्वयं आत्म कल्याण पथ पर अग्रसर होते हुए हम सभी के लिये भी गुरूवाणी के सिद्धांतों से परिचित करा रहे हैं। पूरी समाज और देश में प्रभावना जागरण कर रहे हैं यह हमारे लिये अत्यंत प्रसन्नता और गौरव की बात है। इस वर्ष सन् १९९९ में भोपाल में दो विशेष कार्य हुए-पहला तो यह कि श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र की स्थापना हुई और बहुत कम समय में ही बहुत से ग्रंथों का प्रकाशन हुआ, समाज और पूरे देश में इस साहित्य से धर्म प्रभावना हुई और अभी भी हो रही है।
दूसरा विशेष कार्य-बाल ब्र. पू. बसंत जी महाराज का भोपाल में वर्षावास। यह भोपाल के लिये परम सौभाग्य और पहली बार ऐसा सौभाग्य मिला है। तीनों चैत्यालयों में समवशरण लग रहा है, अपूर्व धर्म प्रभावना
और जागरण हो रहा है। वर्षावास के अवसर पर ही यह अध्यात्म चन्द्र भजन माला का प्रकाशन हुआ है।
हमारी सुपुत्री श्रीमती चंद्रकांता गृहस्थ जीवन में रहते हुए साधना ज्ञान ध्यान करती रहती हैं,सम्यक्दर्शन की सीढी पाने के लिये वे निरंतर प्रयत्नशील हैं, वे हमारे लिये प्रेरणास्रोत भी हैं। उनके सहज चिंतन में जो भजन आदि लिखने में आये हैं वे आध्यात्मिक वैराग्य जगाने वाले हैं। श्री डेरिया जी का पूरा परिवार ही धर्म श्रद्धा मय हो रहा है, यह सब देखकर मेरी आत्मा गद्गद् हो रही है। श्रीमती चंद्रकांता के लिये मेरी ओर से आशीर्वाद है एवं पूरे परिवार के प्रति शुभकामना है इसी प्रकार सभी जीव आत्म कल्याण के मार्ग पर चलते रहें। भोपाल
श्रीमती मेवाबाई दिनांक - २६.८.९९ ason रक्षाबंधन पर्व)
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अंतर्भावना " आज मानव भौतिकता की चकाचौंध से प्रभावित होकर भौतिक २ पदार्थों के संग्रह में इतना व्यस्त है कि अपने हित-अहित का विचार भीर नहीं कर पा रहा है। यह यथार्थ सत्य है कि आदमी कितना ही भौतिक संसार में भाग-दौड़ कर ले किन्तु आत्म शांति की प्राप्ति बाह्य वैभव, भौतिक वस्तुओं से कभी भी नहीं होगी.यह मात्र मृगतृष्णा भर है जिसका परिणाम अंत में दुःख ही मिलता है। आत्म कल्याण और आत्मशांति का मार्ग एक मात्र अध्यात्म, अपने आत्म स्वरूप की श्रद्धा साधना आराधना से ही बनता है, यही मनुष्य जीवन को सफल करने का मार्ग है।
___ मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि मेरी बड़ी बहिन श्रीमती चंद्रकांता जी धर्मपनि श्री प्रेमचंद जी डेरिया गंजबासौदा, वर्षों से धर्म आराधना में संलग्न हैं। घर परिवार के बीच रहते हुए उनकी विचारधारा, सहजता, सरलता, सहिष्णुता देखकर उनके प्रति श्रद्धा से हृदय भर जाता है। धार्मिक क्षेत्र में उनसे मुझे बहुत ही प्रेरणा मिली है। पारिवारिक व्यस्तताओं में से भी अपने लिये समय निकाल कर वे धर्म आराधना कर अपने जीवन को तो धर्ममय बना ही रही हैं, हमारे पूरे परिवार के लिये प्रेरणा स्रोत भी हैं। उनकी सहज धर्म साधना के अंतर्गत उन्होंने अनेकों भजन, मुक्तक व अन्य रचनायें लिखी हैं। सन् १९९१ में उनके भजनों की लघु पुस्तिका 'चंद्रभाव भजनमाला' प्रकाशित हुई थी और इस वर्ष सन् १९९९ में अध्यात्म रत्न बाल ब्र.पू. श्री बसन्त जी महाराज के भोपाल वर्षावास के मंगलमय सुअवसर पर प्रस्तुत 'अध्यात्मचंद्र भजन माला' का प्रकाशन श्री डेरिया जी की ओर से हुआ है।
श्रीमती चंद्रकांताजी ने ज्ञान और अनुभूतियों को शब्दों में पिरोकर अंतर में जो ज्ञानधारा वही है उसको ही भजन आदि के रूप में प्रस्तुत किया है। भजनों की भाषा बहुत ही सरल सहज एवं अंतरात्मा को छू लेने वाली है। उनके भजन सुनकर हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। हमारा महान सौभाग्य है कि आत्म निष्ठ साधक पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज, अध्यात्म रत्न बाल ब्र.पू. बसन्त जी महाराज का मार्गदर्शन आत्म कल्याण हेतु हमें मिलता है तथा श्री संघ के सान्निध्य में आत्मबल बढ़ता है। हम सभी जीव, संतों के बताये मार्ग पर चलकर अपना आत्मकल्याण करें, ऐसी पवित्र भावना है।
भोपाल - प!षण पर्व श्रीमती रिषभकांता तारण B दिनांक २०.९.१९९९
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शुभकामना यह अध्यात्म चंद्र भजन माला प्रकाशित होने जा रही है। यह १ भजन मेरी स्नेहमयी बड़ी बहिन सौ. चंद्रकांता डेरिया द्वारा बनाए हुए हैं.र वैसे तो इनकी बचपन से ही धार्मिक रूचि थी तथा पिता श्री स्व.हीरालाल जीद्वारा प्रेरणा,कुछ माताजी के संस्कार,सभी मिलाकर आज जो आपके सामने पुस्तक है, यह सब उसी की ओर इंगित करता है। स्वास्थ्य की प्रतिकूलता समयाभाव के बावजूद भी, धर्म में प्रगाढ रूचि होती गई. हर धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेना, स्वाध्याय करना उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया, कितनी ही प्रतिकूलता रहने पर भी हमेशा मधुर मुस्कान चेहरे पर खिली रहती है। जो उनके आत्मीक आनंद की परिचायक है, इसी तरह उन्होंने धीरे-धीरे भजन बनाना शुरू किया तथा आध्यात्मिक भजन के रूप में यह माला का रूप लेकर आज प्रकाशित होने जा रही है।
हमारे जीजा जी श्री प्रेमचंद जी डेरिया ने जब उनकी धर्म में प्रगाढ़ रूचि देखी तो उन्होंने भी उनका हमेशा तन-मन-धन से सहयोग दिया तथा वे भी हर धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेते हैं। मेरी ओर से तथा परिवार की ओर से यही शुभकामना है कि वह इसी प्रकार अपने हृदय के उद्गारों को भजन के रूप में हमेशा प्रस्तुत करती रहें। भोपाल
श्रीमती प्रेमलता जैन दिनांक - २३.८.९९
एवं समस्त परिवार
मनुष्य भव : एक सुअवसर eles 7 सांसारिक मोह राग कर्म आदि की श्रृंखलाओं में बद्ध जीव को एक
तो धर्म की रूचि बहुत दुर्लभता से जागती है और फिर जागने के बाद भी र सद्गुरू या सत्संग के बिना वह स्थिर नहीं हो पाती। हमारा परम सौभाग्य है कि हमें प्रारंभ से ही धर्ममय संस्कार प्राप्त हुए। परिवार में धर्म श्रद्धा की भावनायें होने से एक-दूसरे को धर्म की आराधना,गुरूभक्ति करने में बहुत सहयोग मिल जाता है।
वर्तमान समय के बदलते परिवेश में धर्म निष्ठा में दृढ़ रहना बहुत पुरूषार्थ का कार्य है फिर भी सत्संग, सद्गुरू का शुभयोग प्राप्त हो तो फिर कुछ भी कठिन नहीं है। आज भौतिकता के युग में देखा जाये तो बड़ा आश्चर्य लगता है कि आदमी बाहर से ऊंची उड़ानें भर रहा है, अनुकूलताओं को प्राप्त कर रहा है किन्तु मानवता, धर्म और सत्य से विमुख होता जा रहा है।
यदि बाह्य संसाधनों का सदुपयोग हम अपने आत्म हित में करें तो इन्सान से भगवान बन सकते हैं। यह मनुष्य भव हमें भगवान बनने के लिए ही मिला है। यह हमारा धन्य भाग्य है कि हमें आत्म हित के मार्ग में लगाने के लिये पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज, बाल ब्र. पूज्य श्री बसन्त जी महाराज, श्री संघ के सभी पूज्य साधक जन एवं ब्रह्मचारिणी दीदीयों का मंगलमय सान्निध्य मिला, जिनसे हमें आत्म हित के मार्ग में आगे बढ़ने की सतत् प्रेरणा, मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिलता रहता है। हमें परम प्रसन्नता है कि हमारी आदरणीया माता जी (श्रीमती चंद्रकांता जी डेरिया) की विशेष धर्म भावनायें हमको भी धर्ममय जीवन बनाने के लिये प्रेरित और उत्साहित करती हैं। उनके द्वारा सहजता पूर्वक लिखे गये आध्यात्मिक भजन हम लोगों को अध्यात्म और धर्म की रूचि जगाने में निमित्त बने हैं। प्रस्तुत अध्यात्म चन्द्र भजनमाला में आदरणीया माताजी द्वारा लिखित भजन प्रकाशित हुए हैं। हमें अत्यंत हर्ष है कि हमारे आदरणीय पिताजी श्री प्रेमचंद जी डेरिया, धर्म कार्यों में हम सभी का निरंतर उत्साहवर्द्धन करते हैं उनकी शुभ भावनानुरूपयह अध्यात्म चन्द्र भजनमाला डेरिया परिवार गंजबासौदा की ओर से आपको भेंट करते हुए असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
यह आध्यात्मिक भजन आपके जीवन में भी अध्यात्म ज्ञान की गंगा प्रवाहित करें, यही पवित्र भावना है।
दिनांक : १४.९.९९ श्रीमती सुनीता जैन (बांदा)
(पयूषण पर्व) मुकेश कुमार, सुकेश कुमार & गंजबासौदा (म.प्र.) कु. समीक्षा डेरिया 4GB
अध्यात्म अमृत धारा स्वस्थ विचारों का अंकुरण मृदुल और निर्मल मन की धरा पर होता है। मानव मन में अनेक विचारधारायें तरंगों की तरह उठकर अस्थिरता लाती हैं, ऐसे क्षणों में आत्मा में शांति और सुख की प्राप्ति हो, यही सब जीवों का एकमात्र प्रयोजन होता है और इस प्रयोजन की पूर्ति आत्म साधना से होती है। यह भजन माला अध्यात्म का अनुपम खजाना है, इसमें अज्ञान का अंधेरा, ज्ञान की ज्योति में क्षय हो जाता है। आदरणीय मौसीजी की प्रत्येक रचना में अध्यात्म की अमृतधारा प्रवाहित होती मिलेगी। यह अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भी ऐसी ही आध्यात्मिक रचना है, जिसका प्रत्येक शब्द अंतर्मुख होने की प्रेरणा देता है। 2 दिल्ली 2 दिनांक ५.९.९९
श्रीमती वर्षा तारण
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अपनी बात आज का युग क्रान्तिकारी युग है जिससे हम अपने जीवन में नई र क्रान्ति ला सकते हैं, वह क्रान्ति है - जो हमारी दृष्टि अनादि काल से पर पदार्थों की ओर जा रही थी, उसे अपने स्वभाव की ओर करना, जिस स्वभाव में रंचमात्र भी पर पदार्थों का सूक्ष्म भी समावेश नहीं है। हम इस संसारी व्यामोह से ऊबते चले जा रहे हैं। हम जिन संयोगों में रह रहे हैं वे हमें पग-पग पर शिक्षा देते चले जा रहे हैं, इस संसार में कोई किसी का नहीं है, सारा जग स्वास्थ का सगा है, बगैर मतलब के कोई किसी को पूछता भी नहीं है, यह हमारे समझने की बात है कि हम अपने जीवन की दिशा बदल दें, दशा तो अपने आप बदल जायेगी। हमारा हृदय अति आनंद से पुलकित हो उठा है, जो हमने सुख शान्ति रूपी आनंद अनादि से नहीं पाया था उसे हमने अब पा लिया है, हमारे हृदय रूपी वीणा के तार झंकृत हो उठे, हमारे हृदय का वेग आनंद और उत्साह से नाच उठा है। आत्म शान्ति ही परम सुख का कारण है, वस्तु स्वरूप को यथार्थ रूप से ज्यों का त्यों, जैसे का तैसा समझने में ही समता का प्रादुर्भाव है,जब हृदय सुख शान्ति रूपी आल्हाद से भर उठता है, तब यह भजन अपने आप लिखाते चले जाते हैं, इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है, और इन भजनों के माध्यम से मैं अपने आपको टटोलती हूँ कि ये शल्ये विषय कषाय राग-द्वेष आदि की काली परछाईयों से मैं कितनी दूर होती जा रही हूँ और कितनी अभी लगी हैं।
यह भजन अपने आत्म कल्याण की भावना से लिखा गये हैं। इसमें आप सबका आत्म कल्याण हो, यही भावना है। इस क्षेत्र में आगे बढ़ने में मुझे पूरे परिवार का विशेष सहयोग मिलता है, यह मुझे गौरव का विषय है। आदरणीय स्व. दद्दा जी श्री हजारीलाल जी का आशीर्वाद प्रेरणाप्रद सिद्ध हुआ, आदरणीय सासु जी (अम्मा जी) श्रीमती सोनाबाई जी की प्रेरणा और आशीष आत्मबल में वृद्धि करता है। मेरे पूज्य पिताजी स्व. श्री हीरालाल जी से प्राप्त संस्कारों को पूज्या माताजी श्रीमती मेवाबाई जी ने आगे बढ़ाया जिसके कारण आज मैं यहां तक पहुंच सकी।
मेरी सभी बहिनों और भाइयों का धर्म वात्सल्य मिलने से बहुत उत्साह बढ़ता है। आत्मनिष्ठ साधक पूज्य गुरुदेव श्री ज्ञानानंद जी महाराज की परम कृपा और आशीर्वाद मेरे जीवन की अनमोल निधि है। श्री संघ का सान्निध्य ज्ञान भाव में वृद्धि करता है।
___ इस वर्ष सन् १९९९ में अध्यात्म रत्न बाल ब्र. पूज्य श्री बसन्त जी " महाराज के भोपाल वर्षावास के अवसर पर यह अध्यात्म चन्द्र भजनमाला र
का इतना सुन्दर प्रकाशन संभव हो सका, उनके प्रति एवं श्री संघ के प्रति हम हृदय से कृतज्ञ हैं।
सभी सहयोगीजनों के प्रति हम आभारी हैं, जिनका इस कार्य में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है। सभी जीवों के लिये यह भजन ज्ञान वैराग्य और आत्म-कल्याण में साधन बनें यही पवित्र भावना है। गंजबासौदा
विनयावनत दिनांक १५.९.९९
श्रीमती चन्द्रकांता डेरिया (पयूषण पर्व)
*आध्यात्मिकसूत्र * * विचारवान पुरूष के लिये अपने स्वरूपानुसन्धान में प्रमाद करने से
बढकर और कोई अनर्थ नहीं है क्योंकि इसी से मोह होता है - मोह से अज्ञान, अज्ञान से बन्धन तथा बन्धन से क्लेश और दुःख की प्राप्ति
होती है। * मुमुक्ष पुरूष के लिये आत्म तत्व के ज्ञान को छोड़कर संसार बन्धन से
छूटने का और कोई मार्ग नहीं है। * दु:ख के कारण और मोहरूप अनात्म चिन्तन को छोड़कर आनन्द स्वरूप
आत्मा का चिन्तन करो जो साक्षात् मुक्ति का कारण है। हृदय के भाव छह बातों से परिलक्षित होते हैं - बचन, बुद्धि, स्वभाव,
चारित्र, आचार और व्यवहार। * बेडीचाहे लोहे की हो या सोने की-बन्धन कारिणी तो दोनों ही हैं. अत:
शुभाशुभ सभी कर्मों का क्षय होने पर ही मुक्ति होती है। कर्मक्षय तो ज्ञानमयी अनाशक्ति से ही होता है - कर्म से.संतति उत्पन्न करने से या धन से मुक्ति नहीं होती - वह तो आत्म ज्ञान से ही होती है। शुद्धात्मा जिनका सु-रत्नत्रय, निधि का कोष था। रमण करते थे सदा, निज में जिन्हें संतोष था 11 तारण तरण गुरूवर्य के, चरणार विंदों में सदा । हो नमन बारम्बार निज गुण, दीजिये शिव सर्वदा 11
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४.
* अनुक्रम * पृष्ठ क्रमांक
विषय
८.
९.
विषय
मंगलाचरण वंदना
जय तारण तरण
हे आतम पाऊँ पद.
आतम से नेह जोड़ के..... आतम जाना है किस देश ....
छोडी मिथ्या से मैंने प्रीत.....
४
समकित को हमने पा लिया.... ५
१
१
२
५.
६. अतीन्द्रिय ज्ञान के धारी......
७.
हम सिद्धों की नगरी में.....
आत्म अनुभूति कैसी है.....
आतम में अलख जगा ..... १०. शुद्धातम नगरी में आ...... ११. करो आतम उद्धार..... १२. सम्यक्दर्शन धार, ज्ञान.... १३. तारण पंथ कैसा होता..... १४. ज्ञान मूर्ति हो प्यारे...... १५. हृदय में है खुशी अपार...... १६. चेतन तेरे शरण में मैं आई.. १७. आत्मा है अलबेली......
१८. कर्मों का हुआ सर्वनाश....
१२
१९. आतम है मेरी अति सुन्दर... १३
२०. चेतन ले ले तू जग से....
१३
२१. निज आत्म रमण अब २२. हे आतम! मुक्ति परम...... २३. चेतन काये रूलो जग...... २४. मेरी है यही अरदास.... २५. आत्मा अपने में रम जा..... २६. आज आये द्वार गुरूवर......
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८
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२७. जिया मैं तो आतम अनुभव .... १८ २८. सिद्ध दशा पाने के लिये..... २९. ममल स्वभावी हमें बनना. ३०. तुम तो ज्ञानी महा..... ३१. जगा लइयो भइया जागा..... ३२. सम्यक् दृष्टि को हर पल..... ३३. ज्ञाता दृष्टा मेरी आतम..... ३४. हुये आतम मगन मिली..... ३५. मेरे गुरूवर तरण तारण...... ३६. गुरूवर तेरे चरणों में अब..... २६ ३७. बहिरात्मा था हुआ...... २७
२५
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४०.
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पृष्ठ क्रमांक
श्री जिनदेव हो मेरे, शरण.... २८ पर्युषण पर्व आया रे..... २९ आतम वैभव की कहानी......
धर्म को धारो सदा, शिव...
७६.
७७.
३० ३०
आतम की क्या तारीफ.... ३१
आतम कब आएगी, चैतन्य.... ३१
जिनवाणी की श्रद्धा उर में.... ३२
कर्मों की मार से आतम....
३३
३४
मोह की दीवार न तोडी...... रोम-रोम में हर्षित होता.... ३५
ज्ञाता दृष्टा निज आत्मा...... ४१ शुद्धात्मा हूँ शुद्धातमा हूँ..... ४१ आतम के अनंत गुणों की.... ४२ ६१. धन्य-धन्य अगहन सप्तमी.... ४२ ६२. गुरू तारण तुम्हारी शरण..... ४३
६३. जिनवर की भक्ति में मगन... ४३
६४.
आतम मेरी राग द्वेषादि में.... ४४
६५.
६६.
आत्मा हूँ आत्मा हूँ आत्मा... ३५
आत्म अनुभूति से तूने....
३६
गुरू तारण को अध्यात्म..... ३६
बन जा रे चेतन तू बन जा .... ३७
भैया मेरे आतम से नेहा......
३७
३८
ये कर्मों ने मुझको बहुत ......
दस धर्मों को धार.....
३८
शुद्धातम अंगना में पलना
३९
शुद्धातम अंगीकार, रत्नत्रय .... ४० कब ऐसो अवसर पाऊँ....
४०
आए हैं आए हैं सेमरखेडी.... ४४
हे आतम तू परमातम स्वयं.... ४५
हे भवियन तुम आनंदमयं
मेरी आतम की सम्पदा.....
मेरे चेतन भूल न जाना...... आतम की ज्योति, शिव..... ममल आतम सुनो अब ...... ४७ आज हमारे द्वारे आए गुरू.... ४८
शील संयम मार्ग पर ही....
४५
४६
४८
४९
४९
वीतरागी के चरणों में आना.... ५०
५१
मेरी आतम में पाँच महा.....
आत्म श्रद्धा की, मैं तो....
५१
मम आतम शरणा लहिये.... ५२
विषय
पृष्ठ क्रमांक ७८. आतम की अकथ कहानी.... ५३ ७९. सुनो मेरी प्यारी बहिना...... ५३
५४
५४
८०. झूले रे मेरे अन्तर में झूले.... ८१. त्रिलोकीनाथ आतम की.... ८२. मेरी आतम जगत के पर.... ५५ ८३. अपने आतम की मैं तो..... ५५ ८४. दर्शन दो शुद्धात्म देव, मेरी.... ५६ गुरूवर आए हम तेरी शरण .... ५६ राग द्वेष मैं छोडूं विचार के...... ५७ धरो हृदय में समता प्राणी ५७
८५.
८६.
८७.
८८. कहाँ से आए हो ओ चेतन.... ५८
८९. मेरी अजर अमर आतम.....
५८
आतम की ज्योति जगायेंगे.... ५९ आतम पे कर ले नजरिया.... ५९ ओ हो हो हो आतम से.....
६०
हे चेतन कब अपने में आऊँ....६०
चेतन के गुण चेतन में है......
९०.
९१.
९२.
९३.
९४.
९५. ब्रह्मचारी बसंत जी का...... आए हैं आत्म मिलन को....
६१
६१
६२
६२
६३
९६.
९७.
अपने में अपने को देखो....
९८. आये चेतन शरण, मेटो.....
६३
९९. अपरिणामी को देखो..... १००. नर जन्म पाने वाले, मोह... ६४ १०१. आतम को पाना होगा.... १०२. आतम का सुख आतम में.... १०३. भेदज्ञान को जिसने पाया.... ६६
६५
६५
१०४. काया की सुधि बिसार दो.... ६७ १०५. खजाना गुणों का खजाना.... ६७ १०६. जिनमती माता का हुआ....
६८
६९
१०७. आतम मेरी है शुद्धातम...... १०८. ॐ नमः सिद्धं का मंत्र....
७०
७२
१०९. ज्ञानानंद जी का हुआ दर्श... ७१ ११०. आतम आतम जपोगे तो..... १११. यह शांत स्वरूप निजातम.... ७२ ११२. चेतन बात तुम करियो.... ११३. सुनो आत्म की महिमा.... ११४. मेरी आतम है अनुपम .... ११५. मैंने मंदिर में दर्शन को...... ११६. मेरी आतम निज में समाई... ११७. श्रद्धा करूँ मैं भक्ति करूँ..... ११८. जाते हैं गुरूवर अपने नगर.... ७७ ११९. ज्ञान है स्वरूप तेरा, ज्ञान... ७८ १२०. ज्ञान आतम का पाया ये...... ७९
७७
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७५
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विषय
पृष्ठ क्रमांक १२१. आतम मेरी तो शुद्धातम ७९ १२२. ज्ञान इक ज्योति है, ध्यान.... ८० १२३. दर्श पायो दर्श पायो दर्श..... ८१ १२४. निज आत्मा की तू ज्योति... ८२ १२५. आतम निहार अब देर न..... દર १२६. फंसा है चेतन मोहजाल में.... ८३ १२७. हे आतम अनुपम दृगवासी... ८४ १२८. आतम को जाना है, ये ही.... ८५ १२९. लागी निज से लगन, हुये.... ८६ १३०. आतम मेरी सुख की धारी.... ८७ १३१. ज्ञान से ज्ञान को पाओ..... १३२. ज्ञानी ने ज्ञान भाव को.... १३३. हे शाश्वत सुख के वासी...... ८९ १३४. आत्मा आत्मा में रहेगी सदा.... ९० १३५. चिदानंद ज्ञान के धारी, तुम्हीं... ९१ १३६. हम आतम से आतम में..... ९२ १३७. शुद्धातम की पुजारी हो...... ९३ १३८. अनेकों जन्म से स्वामी..... ९३ १३९. ज्ञानानंद स्वभावी है मेरी.....
८८ ८८
९४
१४०. ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हो...... ९५
९६ ९७
१४१. दिख रहा दिख रहा दिख.... १४२. सहजातम निर्विकारी हो... १४३. प्रीत आतम से मेरी रहेगी.... ९८ १४४. दर्शन को पाये हैं, आतम... ९९ १४५. अब तो आतम से आतम... १०० १४६. आतम बड़ी गम्भीर निज १०१ १४७. आतम हमें शिव सुख को.... १०१ १४८. आतम तेरी बात अटल.... १०२ १४९. आतम तेरी प्रीति अमर..... १०२ १५०. ज्ञान हमारा देश हम तो.... १०३ प्रभाती
१५१. अब चेतन तुम क्यों बौराने...... . १०४ १५२. ध्रुव शुद्धात्मा निहार मेरे...... १०५ १५३. राग-द्वेष मिथ्या के बादल.... १०५ १५४. सिद्धोहं सिद्धोहं सिद्धोहं...... १०६ १५५. ज्ञान का प्रकाश हुआ...... १०६ १५६. आत्म निकंदन जग दुःख.... १०७ १५७. जय हो आतम देव.... १०७ १५८. चेतन से अब लगन..... १०८ १५९. निज सत्ता अपनाओ..... १०८ * शुद्धात्म भावना १०९-११४ * आध्यात्मिक चिंतन बोध११५-१३०
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
*मंगलाचरण* हे आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा, शत्-शत् नमन । हे ज्ञान और विज्ञानधारी, तुम्हें हो शत्-शत् नमन ।। १. निर्णय किया मैंने, स्वयं का ही स्वयं को हो नमन ।
सत् शील और सन्मार्ग दाता, आत्मा तुमको नमन ।। २. ज्ञानी तुम्हीं ध्यानी तुम्हीं. हो वीतरागी आत्मन् । धुव धाम में ही तुम विराजो, ज्ञानात्मन् तुमको नमन ।। ३. तुम्हीं सहज सुबोध हो, सत् मार्ग को जो चुन लिया। गुरूवर के ही उपदेश को, अपने में ही जो गुन लिया । ४. उन गुरू के चरणों में हो, शतबार वन्दन हो नमन । ज्ञान और विज्ञान दाता, तुम्हें हो शत् शत् नमन ||
वंदना तारण तरण हे गुरूवर, तुमको लाखों प्रणाम।
तुमको लाखों प्रणाम। तुम हो आत्म तत्व के ज्ञाता, निर्विकल्प आतम के ध्याता । अक्षय सुख के धारी, तुमको लाखों प्रणाम ॥
तुमको लाखों प्रणाम.... २. तुम हो ज्ञान सिंधु के सागर, रत्नत्रय गुणों के हो आगर । सहजातम सुखकारी, तुमको लाखों प्रणाम।
तुमको लाखों प्रणाम... ३. तुमने मोह महातम नाशा, तुमने सत्य स्वरूप प्रकाशा । ज्ञानानन्द स्वभावी, तुमको लाखों प्रणाम ॥
तुमको लाखों प्रणाम... ४. तुमने विषयों से मुँह मोडा, जग जीवन से नाता तोड़ा। शुद्ध बुद्धि के धारी, तुमको लाखों प्रणाम ॥
तुमको लाखों प्रणाम... ५. अजर अमर हो सिद्ध स्वरूपी, नन्द आनंद चेयानंद रूपी। शाश्वत पद के धारी,तुमको लाखों प्रणाम ॥
तुमको लाखों प्रणाम...
जय तारण तरण तारण-तरण, तारण-तरण, तारण-तरण बोलिये । तारण-तरण बोल के, आनन्द रस को घोलिये ॥ १. ओंकार उवन पउ, नंद आनंद मउ ।
विन्यान विंद पउ, जिनय जिनेंद मउ॥ सत् चिदानंद में अमृत रस घोलिये...तारण-तरण.... आतम की महिमा का, सुर नर न पार पा सके। स्वात्म रसिया ही महिमा, को तेरी गा सके | स्वात्म चतुष्टय की महिमा अब तौलिये...तारण-तरण.... अलख निरंजन ये, आत्मा हमारी है। द्रव्य भाव नो कर्मों से ये न्यारी है ॥
यही तरण तारण जय तारण-तरण बोलिये...तारण-तरण.... | ४. आत्मा का निज वैभव दर्शन और ज्ञान है।
निर्विकल्प अनुभव ही इसकी पहिचान है ॥
जाग जाओ चेतन चिर काल पर में सो लिये...तारण-तरण.... ५. उत्पाद व्यय धौव्य अनंत गुण की खान है।
यही निर्विकल्प शुद्ध चेतन भगवान है ॥ स्वात्म रमण से अब अन्तर के द्वार खोलिए...तारण-तरण....
१.
भजन - १
हे आतम पाऊँपद निर्वाण। ममल स्वभाव की करूँ साधना, विमल गुणों की खान॥ १. सिद्ध स्वरूप में लीन रहूँ नित, ज्ञान की ज्योति महान ॥
हे आतम.... आतम है सर्वज्ञ स्वभावी, ज्ञान की पुंज महान ॥
हे आतम.... पूर्णानन्द स्वभावी है यह, निज ध्रुवता पहिचान ।।
हे आतम.... परमातम को निज में लखकर, होऊँ सिद्ध समान ।।
हे आतम....
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अध्यात्म चन्द भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -२ तर्ज-घर द्वार छोड़कर, गुरूवर... आतम से नेह जोड़ के, हम धर्म पे अड़े । पुद्गल से नेह तोड़ के, हम शिव नगर चले ॥ १. आतम ही ज्ञान ध्यान है, आतम महान है। अक्षय सुखों का पान कर, होवे शुद्ध ध्यान है ॥ वो ज्ञान की गरिमा, बना करके चले गये.... २. हे ज्ञान के सागर, तुम्हें अपनी ही सुनाऊँ। हो बन्धनों से मुक्त, शीघ्र अपने में आऊँ ॥ गुरूवर तुम्हारे साथ ही, कर्मों से हम लड़ें.... ३. ज्ञानी का मार्ग एक है, निःशल्य निर्विकार । अजर अमर अनुपम, ये आत्मा हमार ॥ टंकोत्कीर्ण आत्मा का, ध्यान कर चले.... ४. निशंक आत्मज्ञान है, ध्रुव की करो पहिचान । ज्ञायक स्वरूपी आत्म ने, ध्रुव को लिया पहिचान ।। धुव ध्यान की अखंडता में, एक हो लिये.... ५. तीन लोक के हो नाथ, तुम्हें वंदना करूँ। निज स्वात्मा में लीन, जग के दु:ख को मैं हरूँ ॥ धुव आत्मा शुद्धात्मा को, मैंने लख लिये....
भजन -४
तर्ज-आ लौट के आ जा... छोडी मिथ्या से मैंने प्रीत. मुझे शुद्धातम बुलाते हैं। हुआ आतम त्रिलोकीनाथ, कि हम जग से तर जाते हैं। १. लागी निज से लगन, हुए आतम मगन,
ओ सजन अब तो, निज घर को आ जा। मिटे जन्म मरण, करूं आत्म रमण,
हो उवन मुक्ति मारग, पै आ जा ॥ हुई आतम से मेरी प्रीत, कर्म के झुण्ड बिलाते हैं.... छोड़ी... २. श्री मालारोहण, किया जग से तोरण,
पंडित पूजा जी से, ज्ञान जगाया। त्रय रत्नत्रय पाल, आतम को सम्हाल,
सत्य धर्म को निज में लखाया ॥ श्री कमलबत्तीसी का किया पाठ, स्वात्म तल्लीन दिखाते हैं, छोडी... ३. श्री श्रावकाचार आचरण सुधार,
ज्ञानसमुच्चयसार पै, दृष्टि को रखना। श्री उपदेशशुद्धसार, ज्ञान का हो भंडार,
शुद्धात्म पै दृष्टि को रखना ॥ त्रिभंगीसार ने किया कमाल, आयु का बंध बताते हैं...छोड़ी... ४. श्री चौबीस ठाणा, दुर्गति न जाना,
ममल पाहुड जी की कथनी निराली। स्वानुभूति का है ढेर, रसास्वादन सुमेल,
ये परमातम पद का है प्याला ॥ ज्ञान झरना बहे दिन रैन, मुक्ति पद को हम पाते हैं...छोड़ी... ५. श्री खातिका विशेष, कर्म रहे न शेष,
सत्ता एक शून्य विन्द में समाये । श्री सिद्ध स्वभाव मिटे सारे विभाव,
छद्मस्थवाणी जी से अलख जगाये ॥ नाम माला जी में शिष्य समुदाय, ममल ध्रुवता को पाते हैं...छोड़ी...
भजन-३
आतम जाना है किस देश॥ १. नरक स्वर्ग के बहु दु:ख भुगते, सुख न पाया लेश, आतम... २. तिर्यंच गति में बोझा ढोया, भारी पाया क्लेश, आतम... ३. मुश्किल से नर तन को पाया, भोगों में करता ऐश, आतम... ४. पंचेन्द्रिय विषयों को भोगत, छोड़ा अपना होश, आतम... ५. अब चेतन सुधि अपनी ले ले, धार दिगंबर भेष, आतम... ६. आतम ज्ञान के दर्शन कर ले, पावे सम्यक् देश, आतम... ७. रत्नत्रय का सुमरण कर ले, शाश्वत होवे भेष, आतम... ८. अजर अमर अविनाशी आतम, हो परमातम वेश, आतम...
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -५
तर्ज - तुम तो ठहरे परदेशी.... समकित को हमने पा लिया, मुक्ति को हम जायेंगे । वीतरागी हम बने, दूर मोह को भगायेंगे | १. अन्तर में दृष्टि है, स्वानुभूति में रमायेंगे ॥
अजर अमर अक्षय है, आतम के गुण गायेंगे...समकित... २. उत्पाद व्यय और ध्रौव्य, आतम में है भरे पड़े।
अविनाशी अरस अरूप, आतम में नंत गुण रहे...समकित... ३. गुरूवर तुम हमको, अब याद आने लगे ॥
संसार दु:खों से, हम घबराने लगे...समकित... ४. आतम मेरी शुद्धातम, करूणा की सागर है ॥ चिदानंद चैतन्यमयी, शील समता की गागर है...समकित....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -७ हम सिद्धों की नगरी में आये हुये हैं।
आतम आनन्द में समाये हुये हैं । १. जगत सारा देखा, कहीं सुख नहीं है। चिदानन्द चैतन्य में, समाये हुए हैं...हम सिद्धों.... २. ये आतम हमारी है, सिद्ध स्वरूपी।
त्रि रत्नत्रय को, पाये हुये हैं...हम सिद्धों.... ३. ये सिद्ध स्वरूप है, ममल स्वभावी। त्रिकाली से लौ, हम लगाये हुये हैं...हम सिद्धों.... ४. शुद्धातम से प्रीति, मेरी हो गई है।
ये कर्मावरण को हटाये हुये हैं...हम सिद्धों.... ५. ये आतम हमारी, सदा निर्विकारी। अखंड अविनाशी को, पाये हुये हैं...हम सिद्धों....
भजन -६ अतीन्द्रिय ज्ञान के धारी, गुरूवर शीघ्र आ जाओ। ये आतम ही शुद्धातम है, अलख फिर से जगा जाओ ।। १. जला दो ज्ञान का दीपक, मिटे अंधकार जीवन से । सिद्ध स्वरूप आतम का, ज्ञान ये सबको करवाओ || २. छवि वैराग्य मूरति है, आत्म हित की ये सूरति है। स्वात्मदर्शी तिमिर नाशक, आत्म का ध्यान करवाओ । ३. ये तन माटी का पुतला है, चार दिन की ये जिंदगानी।
शुद्धात्म की नगरिया में, स्वात्म दर्शन करे प्राणी ।। ४. संवेदन ज्ञान के द्वारा, बना ये पूर्ण भगवन है ।
शुद्धातम दृष्टि को लख के, ज्ञान कण और बिखराओ । ५. गुरू के ज्ञान का संगम, सेमरखेड़ी में हम कीना।
आत्मा मेरी सिद्धातम, इसी में चित्त अब दीना ॥ ६. दे दो आशीष अब गुरूवर, शून्य विंद में समा जाऊँ। ममल ध्रुव तत्व में अब तो, धूम मचा मुक्ति में पाऊँ ।
भजन-८
तर्ज - नगर में शोर भारी... आत्म अनुभूति कैसी है, आनन्द अनूभूति जैसी है।
अमर ध्रुवता को लख लेगी, स्वानुभूति भी ऐसी है। १. आत्म के बगीचे में, आत्म को हमने पाया है ॥
उवन की झनझनाहट से, उवन में ही समाया है...आत्म.... २. अनादि से मेरी आतम, कर्म बन्धन में जकड़ी थी ।
राग द्वेषों में खोयी थी, विभावों को पकड़े थी...आत्म.... ३. पाया समकित को अब हमने, निशंकित अंगधारी जो ।।
नहीं इच्छा कोई हमको, निकांक्षित अंगधारी है ...आत्म.... ४. निर्विचिकित्सा को पाकर के, मूढ दृष्टी को त्यागा है ।। ___ममल दृष्टि को लख करके, उपगूहन अंग पाया है...आत्म.... ५. आत्मा में रत रहने को, स्थिति अंग कहते हैं ॥
अचल अविनाशी आतम ही, वात्सल्य अंगधारी है...आत्म.... ६. मेरी आतम है परमातम, प्रभावना अंगधारी है ॥
ये शाश्वतसुख की कड़ियाँ हैं, ममल शुचिता की धारी है...आत्म....
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -९ आतम में अलख जगा लइयो,ये है सद्गुरू की वाणी।। १. आतम मेरी ध्रुव अविनाशी, सरल शांत है शिवपर वासी ॥
ज्ञान की ज्योति जगा लइयो, ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में... २. आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी, एक अखंड अरस और अरूपी॥
अजर अमर अविनाशी हो जइयो,ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में... ३. मिला ये अवसर, अब मत चूको, स्वानुभूति का आनन्द लूटो॥
ज्ञानामृत प्याला पिला दइयो, ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में... ४. विषय कषायों को अब खोकर, दर्शन ज्ञान चरणमय होकर ॥
निज सत्ता अपना लइयो, ये है सद्गुरू की वाणी...आतम में...
भजन-११ करो आतम उद्धार, दृढ़ता को चित में धारो | १. मै ज्ञायक हूँ सिद्ध स्वरूपी, निज को जानन हारा । ज्ञान स्वभाव ही ध्रुव वस्तु है, स्व पर प्रकाशक हारा ।। शिव सुख का दातार, दृढ़ता को चित में धारो... करो.... २. चेतन चिंतामणि रत्न है, निज को निज में जाने । पूर्णानन्द स्वभावी आतम, को ही वह पहिचाने || निज धुवता विचार, दृढ़ता को चित में धारो...करो.... ३. ज्ञान पुंज है मेरी आतम, है सर्वज्ञ स्वभावी । सरल शांत समता को धारे, है यह शुद्ध स्वभावी ।। ज्ञान की दिव्य धार, दृढ़ता को चित में धारो...करो....
भजन - १० शुद्धातम नगरी में आ जइयो मेरे चैतन्य राजा ।
चैतन्य राजा, मेरे चैतन्य राजा, शुद्धातम...|| आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी, निराकार है अरस अरूपी॥ आतम में ही समा जइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी.... सुख सत्ता का धारी चेतन, अजर अमर अविनाशी चेतन ॥ ज्ञान की ज्योति जला लइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी.... ध्रुव ओंकारमयी है चेतन, आनन्द घन चितपिंड है चेतन ॥ परमानन्द मयी हो जइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी.... शून्य समाधि में आतम विराजे, अंतर में बजे दुन्दुभि बाजे ॥ अचिंत्य चिंतामणि को पा जइयो, मेरे चैतन्य राजा... शुद्धातम नगरी....
भजन - १२ सम्यक्दर्शन धार, ज्ञान की दृढ़ता करले।
मोह मान मिथ्या को तजके, निज को ही अब भजले । आतम शुद्धातम परमातम, को ही नित्य सुमर ले |
___ होगा जीवन सुखकार, ज्ञान की दृढ़ता करले.... २. अब तक सारा जीवन भैया, भोगों में ही बीता। सद्गुरू की अब शरण मिली, तो मैंने जग को जीता ।।
किया आतम श्रंगार, ज्ञान की दृढ़ता करले.... ३. आतम अनुभव की मैं महिमा, नित प्रति ही अब गाऊँ। दर्शन ज्ञान चरण को धर के, परमातम हो जाऊँ ॥
त्रिकाली हितकार, ज्ञान की दृढ़ता करले....
* मुक्तक* परोन्मुखी दृष्टि जब तक कर्मों का ही तब बन्धन है। स्वोन्मुखी दृष्टि होने से होते सब कर्म निकन्दन है ।। जिन धर्म की महिमा गाने से सारे ही कर्म विला जाते। ध्रुव शुद्धातम की महिमा लख वह शीघ्र मुक्ति को हैं पाते ॥
मुक्तक हे सिद्धातम शुद्धात्म प्रभो मैंने तुमको पहिचान लिया । चेतन चेतन में रमण करे शिवपुर जाने को ठान लिया । शुद्ध बुद्ध टंकोत्कीर्ण ध्रुव आतम में ही बसन्त है । ममल स्वभावी सिद्ध स्वरूपी निज आतम को ही भजना है।
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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भजन - १३ तारण पंथ कैसा होता, तारणपंथी कैसा होता । आतम अनुभूति के क्षणों में, ज्ञानी मतवाला हो जाता ॥
आतम की अनुपम ध्रुवता लख, वह शाश्वत पद को है पाता। ये सहजानन्द बिहारी है, ये मुक्ति का अधिकारी है ॥ पी स्वानुभूति अमृत प्याला, वह परमातम पद को है पाता...आतम..., आए गुरूवर इस नगरी में, आतम में अलख जगाने को। सोई समाज अब जाग उठे, आनन्द का अमृत पाने को | सत्ता इक शून्य विन्द में ध्यान लगा, वह सिद्धातम ही हो जाता...आतम.. ब्रम्हानंद जी अब आ गए हैं, संस्कारित हमें बनाने को। भैया प्रकाश जी भी आए, हम सबको प्रकाशित करने को ॥ जो ब्रम्ह मूहुर्त में उठकर के, प्रतिदिन चैत्यालय है जाता...आतम. जपता जो ॐ नमः सिद्धं, और स्वाध्याय भी है करता। जय तारण तरण सुमर करके, अठदश क्रिया का पालन करता ॥ संस्कार शिविर के माध्यम से, सद्ज्ञान का झरना बह जाता...आतम मेरा आतम शुद्धात्म प्रभो, अक्षय अनंत गुण का धारी । रत्नत्रय का ही साधन कर, बन गया अनंत चतुष्टय धारी ॥ धुव है ये अटल और अविनाशी, अनुपम है मुक्ति का दाता...आतम..
भजन - १४
तर्ज - सोनागिर मत जाय... ज्ञान मूर्ति हो प्यारे आतम मोह में, अब क्यों सो रहे हो। जागो उठो भोर अब हो गई, वृथा समय क्यों खो रहे हो। १. स्वानुभूति में रमण करो अब, ज्ञान में गोते लगाओ जी। भेष दिगम्बर धारण करके, मुक्ति श्री को पाओ जी ॥
ज्ञानमूर्ति हो.... २. पर को अपना मान के चेतन, काल अनादि भटक रहा। विषय भोग में लम्पट होकर, चारों गति में लटक रहा ।।
ज्ञानमूर्ति हो.... ३. सुख सत्ता के धारी चेतन, नन्द आनन्द में मगन रहो। शुद्ध स्वरूप निहारो अपना, समता रस में शीघ्र बहो ।
ज्ञानमूर्ति हो.... ४. निज स्वरूप पहिचाना तुमने, मोह ममता को छोड़ो जी। सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण की, शील चुनरिया ओढो जी ।।
ज्ञानमूर्ति हो.... ५. धुव तत्व शुद्धातम हो तुम, अक्षय सुख के धारी हो। आतम से आतम में देखो, सहजानंद बिहारी हो ।
ज्ञानमूर्ति हो....
मुक्तक* ज्ञान की पुंज अमर आत्मा को लखना है । धुव शक्ति धारी निज आत्मरस को चखना है । शून्य बिन्दु सत्ता शुद्धात्म की कहानी है । जो इसमें रमण करे मिले मुक्ति रानी है ॥
* मुक्तक जिन शासन का मूल आधार है ये, ये ही मुक्ति का कारण है। आतम शुद्धातम चिंतन कर, बतलाते सद्गुरू तारण हैं ।। ये ही विश्व व्यवस्था है, करो संयम तप को धारण है। मंगलमय तेरा जीवन हो, कर शुद्ध दृष्टि अब धारण है ।। क्रान्ति आई है जीवन में आतम की अलख जगायेंगे । आतम शुद्धातम परमातम का शंखनाद करायेंगे | चैतन्य स्वरूपी आतम ही धुव सत्ता की ये धारी है । तारण तरण श्री गुरूवर की युग युगों से ही बलिहारी है ।
ज्ञान का ही पुंज है ज्ञान की ही ज्योति है । कैसे कुछ कहें हम आनन्द की वृद्धि होती है ॥ ऐसे आत्म सिन्धु में गोते लगायेंगे हम । धुव में ही वास करें धुव को ही पायेंगे हम ॥
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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भजन - १५ हृदय में है खुशी अपार, आए गुरू दर्शन को । मेरे चित्त में हुआ आल्हाद, गुरू के गुण सुमरन को ।। १. निसई क्षेत्र हमारा प्यारा, दर्शन करने आये ।
जन्म-जन्म के पापों को, हमने दूर भगाये ॥
धन्य हुए हमारे भाग्य, आए गुरू दर्शन को...हृदय... २. आषाढ सुदी पूर्णिमा को, गुरू चरणों में बलिहारी।
इस संसार महावन भीतर, थक-थक के मैं हारी ।। विषय भोगों से प्रीत छुड़ाये, आए गुरू दर्शन को...हृदय... मोह ममत्व को दूर करें, हम गुरू चरणों में आके । आतम के हम बनें पुजारी, उपदेशामृत पीके ॥
आनन्द बरस रहा है आज, आए गुरू दर्शन को...हृदय... ४. अजर अमर अविनाशी पद को, हम जल्दी से पायें।
दृढता की मूरत, आतम की कली-कली विकसाए । रत्नत्रय से शोभित होकर, आए गुरू दर्शन को...हृदय...
भजन-१७ तर्ज - तुम तो ठहरे परदेशी. आत्मा है अलबेली, शिवपुर को जायेगी।
गतियों में भ्रमण किया, अब तो सुख पायेगी। १. शुद्धता प्रत्येक अंश में, आत्मा में भरी पड़ी। तत्व निर्णय स्व पर ज्ञान की, आत्मा में लग रही झड़ी ॥
आत्मा है.... २. राग मोह की सहेली है, इसको अब दूर करो। अज्ञान परदा हटा, आतम से प्रीति करो ॥
आत्मा है.... ३. आत्मा के गुण अनंत हैं, इसका तुम ध्यान करो। सत्ता एक शून्य विंद की, आराधना नित्य तुम करो ॥
आत्मा है.... ४. समकित से हृदय भरा, नित्य आनंद में रहो। स्वर्ण दिवस आया है, रत्नत्रय को तुम गहो ॥
आत्मा है....
भजन - १६ चेतन तेरे शरण में, मैं आई, अब मुझको है तेरी दुहाई॥ १. संसार में अब नहीं फंसना, पंच परावर्तन के दु:ख न सहना । मैंने आतम से नेह लगाई, अब मुझको है तेरी दुहाई.... २. दृढ़ता की मूरति हूँ मैं, निज ज्ञान की सूरति हूँ मैं। कर्मों की करूँ मैं विदाई, अब मुझको है तेरी दुहाई.... ३. शुद्ध रूप को मैंने जाना, निज स्वभाव को अब पहिचाना।
ममल भाव को मैं अपनाई, अब मुझको है तेरी दुहाई.... ४. राग द्वेष ये मेरे नहीं हैं, मोह ममत्व भी मेरे नहीं हैं । मैंने धुव सत्ता अपनाई, अब मुझको है तेरी दुहाई.... ५. जल्दी मैं परम पद पाऊँ,ज्ञान ज्योति से ज्योति जलाऊँ। शिव लक्ष्मी मेरे उर समाई, अब मुझको है तेरी दुहाई....
भजन - १८ कर्मों का हुआ सर्वनाश, देखो रे मैं तो मुक्ति चली। १. भेदज्ञान तत्व निर्णय हो गओ, अब मोहे कछु न सुहाय ।
अब तो शीघ्र मुक्त होना है, परमातम पद भाय...देखो रे... २. आतम ही देखो परमातम, शुद्ध स्वरूप हमारो ।
द्रव्य भाव नो कर्मों से, ये चेतन सदा न्यारो...देखो रे... ३. ज्ञायक ज्ञायक ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक मेरो काम |
ज्ञायक रहने से कर्मों का, होता काम तमाम...देखो रे... ४. अन्तर में छाया है, मेरे ज्ञान का सुखद सबेरा ।
लीन होऊँ मैं ध्रुव आतम में, पाया निज का बसेरा...देखो रे...
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भजन - १९
तर्ज - चांद सी मेहबूबा... आतम है मेरी अति सुन्दर, इसको मैंने अपनाया। इसको पाकर के हमने, मुक्ति मारग है अपनाया ॥
आतम चैतन्य की ज्योति है, निर्मल गुणों की खानी है। यह शुद्ध बुद्ध अविनाशी है, ममल शुचिता की धारी है । इसका रूप है जग से न्यारा, इसको हमने पाया है...इसको पाकर.... धुव है ये अचल अनुपम है, अमिट पूर्णानन्द बिहारी है। अनन्त गुणों की मूर्ति है, ये सब कर्मों से न्यारी है ॥ ध्रुवता निज की लख के हमने,सुखद क्षणों को पाया है...इसको पाकर.... कैसे आतम गुणगान करें, अनगिनत गुणों की पूंजी है। निज पूर्ण गुणों को प्राप्त करें, यह बात हमें अब सूझी है। चलते भी दिखे, फिरते भी दिखे, सपने में ऐसा आया है...इसको पाकर....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -२१ निज आत्म रमण अब होय, जगत ये सारो छूट गयो। १. द्रव्य गुण पर्यायें सत् हैं, ऐसा मैंने जाना । मेरा आतम परम शांत है, इसे अभी पहिचाना ॥
परमात्म प्रकाशी होय, जगत ये सारो छूट गयो... २. आतम तो मेरी शुद्धातम, पूर्णानन्द बिहारी । तीन लोक तिहुँकाल मांही, इस जग से है वह न्यारी ।। नन्द आनन्द में मगन होय, जगत ये सारो छूट गयो... ३. दर्शन ज्ञान गुणों का धारी, है आतम अविकारी । सुख सत्ता चैतन्य बोध से, अमिट गुणों का धारी ।। रत्नत्रय से अलंकृत होय, जगत ये सारो छूट गयो... ४. अरस अरूपी निज आतम की, महिमा को मैं गाऊँ। ममल स्वभावी आतम की, शक्ति को अब प्रगटाऊँ ॥ ज्ञान कुंड में गोते लगाऊँ, जगत ये सारो छूट गयो...
|१.
भजन - २० चेतन ले ले तू जग से विदाई, तेरा भव चक्कर नश जाई॥ अज्ञान का परदा पड़ा था, नरकों में तू औंधा पड़ा था। भूख प्यास से बैचेन था तू, सर्दी गर्मी में हैवान था तू ॥ वैतरणी के दु:ख सहे न जाई...तेरा भव चक्कर नश जाई.... फिर निकल पशुगति में आया, छेदन भेदन का अति दुःख पाया। ताड़न मारण से भारी बोझा ढोया, बलवानों से पीड़ित हो रोया ॥ संक्लेषित हो मर जाई ...तेरा भव चक्कर नश जाई.... मुश्किल से नरतन पाया, विषय भोगों में तू भरमाया। कषायों में तू झुलसाया, फिर अर्द्धमृतक सम काया । निज रूप ही तेरा सहाई...तेरा भव चक्कर नश जाई.... सुर पदवी की सुन ले कहानी, मास छै पहले माला मुरझानी। यह देख रूदन अति कीना, फिर दुर्गति में जन्म लीना ॥ दृष्टि फेर ले चेतन राई...तेरा भव चक्कर नश जाई....
भजन-२२ हे आतम ! मुक्ति परम पद पाओ। १. कोई नहीं है कछु भी नहीं है, परम शांति अपनाओ। ममलह ममल स्वभाव है तेरा, ध्रुवता चित में लाओ ।।
हे आतम.... २. सम्यक्दर्शन प्राप्त किया अब, ज्ञान का दीप जलाओ। चिदानंद चैतन्य प्रभु तुम, अविनाशी कहलाओ ॥
हे आतम....
३. हो निशंक अक्षय सुखधारी, अजर अमर हो जाओ। अतीन्द्रिय पद का हूँ मैं धारी, सहजानन्द सुभावो ।
हे आतम.... ४. अनन्त गुणों का नाथ स्वयं मैं, मोह को दूर भगाओ। शुद्धातम में रमण करो नित, कृत्य कृत्य हो जाओ ।।
हे आतम....
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भजन - २३
तर्ज-तू तो सो जा बारे वीर... चेतन काये रूलो जग बीच, चेतन काये रूलो जग बीच । जब अपने को जान लिया है, कूद पड़ो रण बीच ।। १. द्रव्य भाव नो कर्मों से, जिय तोड़ दे अपना नाता । ज्ञान की बगिया लहरायेगी, पाओगे सुख साता ।।
अपने धर्म ध्यान को खींच-खींच, जब अपने.... २. निज शुद्धातम के स्वरूप को, भूल कभी न पाए। ज्ञाता दृष्टा और अमूर्ति, हमको सदा सुहाये ॥
स्वात्म की धुन लाई है खींच-खींच, जब अपने.... ३. सम्यक्दर्शन प्राप्त किया अब, आत्म ज्ञान को धारें। टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी, की सत्ता को पा लें ॥
शील समता को बाँधे चीर-चीर, जब अपने.... अनन्त गुणों में अवगाहन कर, उसकी साधना करने। अध्यात्म की नगरी में अब, बारम्बार विचरने ॥
ध्यान चिन्तन होगा गम्भीर-गम्भीर, जब अपने....
भजन - २४
तर्ज-तेरे द्वार खड़ा भगवान... मेरी है यही अरदास, हे चेतन अपने में आओ । मैं निशदिन धरूँ तेरा ध्यान, हे चेतन अपने में आओ ॥ १. देख लो अपना कोई नहीं है, तन धन महल अटारी। जग रिश्ते सारे झूठे हैं, झूठी दुनियादारी ॥ इस जग को तू पहिचान, हे चेतन अपने में आओ...
मेरी है यही.... २. राग द्वेष के भाव छोड़कर, बन तू आत्म पुजारी । धर्म की शरणा ले ले अब तो, हे चेतन अविकारी ॥ होगा अब भव का अवसान, हे चेतन अपने में आओ...
मेरी है यही.... ३. वस्तु स्वरूप का निर्णय करके, बनें स्व-पर विज्ञानी।
आत्म तत्व की करूँ साधना, होकर दृढ़ श्रद्धानी ॥ तूने धर्म लिया पहचान, हे चेतन अपने में आओ...
मेरी है यही.... ४. अनन्त गुणों का अभेद पिंड है, चेतन की यह ज्योति । स्वात्म रमण करने से सारे, कर्म मलों को धोती ।। मैं पाऊँ पद निर्वाण, हे चेतन अपने में आओ...
मेरी है यही....
मुक्तक
धन्य है भाग मेरे, यह धन्य घड़ी । आत्म साधना को लेने में मस्त खड़ी॥ ज्ञान की घंटिया, हृदयस्थल में बजी। इसकी आवाज सुन, उल्लसित हो उठी ॥ ज्ञान ही ज्ञान का ज्ञान अरमान था । ज्ञान ही ज्ञान से ज्ञान में ध्यान था । ज्ञान की ही तरंगें उछलने लगी । ज्ञान के ध्यान में मस्त उड़ने लगी ॥
*मुक्तक तुम जहां भी रहो आत्म सुख में रहो, यही कामना है यही भावना है। तुम्हें आत्मा से ही अब लगन लगेगी, बस यही मेरी सद्भावना है ॥ सुखमयी जीवन बने तेरा निरन्तर, बस यह मेरी हार्दिक भावना है। जग में रहते हुये निज धर्मी बनो तुम, मूढ़तायें छोड़ो यही भावना है ॥
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भजन -
સ્વ
तर्ज मेरी आतम ने ये समझा....
आत्मा अपने में रम जा, विरह अब सहना नहीं । दृष्टि अपनी ओर कर ले, दूर अब रहना नहीं ॥
१. बोल आतम क्या खता है, हमसे जो तू दूर है।
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
बह रहा तेरा समन्दर, शांति से भरपूर है ॥
स्वानुभूति में समाये, कर्म रज उड़ते सभी... आत्मा अपने में....
२. काल अनन्ते जग में भटके, आत्मा को भूल के ।
ज्ञान की गठरी को देखे, माया ममता छोड़ के ॥ शील समता की चुनरिया
ओढ़ ली हमने अभी... आत्मा अपने में....
३. चेतना के साधकों की बात ही कुछ और है।
·
धर्म के ही शरण में है, धर्म पर ही जोर है ।
चन्द्र अपने में समाओ, जग में रह सकते नहीं... आत्मा अपने में ...
४. मैं तो अपने ही लिये हूँ, मुझमें मेरी आस है।
मैं नहीं मेरे से बिछयूँ, यही तो उल्लास है ॥
परम पद को जल्दी पाऊँ, अपने में मिलते तभी...आत्मा अपने में...
★ मुक्तक *
मुक्ति की जिसको तड़फ लगे उसको मुमुक्षु हम कहते हैं। मोह मिथ्या माया को छोड़ के जो शुद्ध ध्यान में रहते हैं । कोई नहीं कुछ भी नहीं जिनको अन्तर में दृढ़ता है। संसार के बन्धन छूट चुके अपना जीवन स्वयं जीता है ।
वे भूल स्वयं ही रहते हैं अपनी दुर्गति को देखो तो । संयोग में हम जैसे रहते, वैसे ही भाव संजोये तो ॥ ये मोह माया के भाव हमें, कहां से कहां को ले जाते हैं। मन चैन नहीं लेने देता, वह इधर उधर भटकाते हैं ।
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन
तर्ज
मेरी आतम ने ये समझा...
१.
आज आये द्वार गुरूवर, धर्म वर्षा हो रही । खिल उठे सबके हृदय, मनु रंक चिंतामणि लही ॥ मुख कमल के तेज से, समता की धारा बह रही । लीन निज में ही रहें, ममता न जिनके उर लही ॥ अंत:करण की शुचिता, इनके हृदय में बह रही । शांति की आनंद धारा, आत्म से ये कह रही ॥ चेत चेतन जाग प्यारे, जागने की है घड़ी । अब समय आया है तेरा, आई मंगल यह घड़ी ॥ आज आये...... आत्म पथ के रसिक गुरूवर, कर जोड़ के विनती करूँ। लीन मैं होऊँ स्वयं में, और भव दधि से तरूँ | दीजिये आशीष गुरूवर, सहजता में ही रहूँ । स्वानूभूति में रमण कर शिवपुरी को मैं वरूँ । आज आये.....
२.
१.
३.
-
४.
भजन
૨૭
जिया मैं तो आतम अनुभव भासी ॥
आतम आतम आतम हूँ मैं, वेदन अति अभिलाषी । आतम में नित लीन रहूँ मैं, शांति चित्त में वासी ॥ जिया मैं तो...
,
२. पर द्रव्यों की रूचि तोड़ के हो अब तू वनवासी। अनन्त गुणों का नाथ स्वयं है, ज्ञानी ने ये भासी ॥ जिया मैं तो... ज्ञानी ज्ञान स्वरूप में रहता, शुद्धातम अभिलाषी महा ज्ञान सुधारस चाखा, हो चैतन्य विलासी ॥ जिया मैं तो... आतम रतन अमोलक मेरा, सिद्धालय का वासी। ममल स्वभाव में रहे निरन्तर, है यह दिव्य प्रकाशी ॥ जिया मैं तो...
-
१८
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भजन - २८
तर्ज-संसार चक्र में भ्रमते.. सिद्ध दशा पाने के लिए, स्वानुभूति रस पान करें। अशरीरी बनने के लिए, आत्म से नेहा जोड़ चलें॥
आतम ने आतम को पाया, अपने में ही वह हुलसाया। निजात्म में रमने के लिये, रत्नत्रय को धार चलें ॥
सिद्ध दशा... २. उवन उवन में आन समाया,पर पद भूल स्वपद को पाया। आत्म ध्यान करने के लिए, ॐ नम: सिद्ध जपते चलें ॥
सिद्ध दशा... ३. अचिंत्य चिंतामणि आतम मेरी, दु:ख द्वन्दों से है न्यारी। सुख सत्ता पाने के लिए, ज्ञान में गोते लगाते चलें ॥
सिद्ध दशा... ४. चेतन मेरा चित्त में समाया, रमते जगते निज पद पाया। शिव की डगर जाने के लिए, आठों कर्म नष्ट करते चलें ॥
सिद्ध दशा... भजन - २९ ममल स्वभावी हमें बनना ही पड़ेगा। संसार के चक्कर से निकलना ही पड़ेगा। १. जन्म मरण रोग से बचते ही रहेंगे । निज ज्ञान अनुभूति सदा करते ही रहेंगे ॥ निज ज्ञान को अपने में ढलना ही पड़ेगा ।
ममल स्वभावी... २. आनन्द अमृत पान हम करते ही रहेंगे ।
शुद्ध दृष्टि में सदा बहते ही रहेंगे ॥ दिव्य प्रकाशी को अब लखना ही पड़ेगा ।
ममल स्वभावी... ३. अजर अमर आत्म को भजते ही रहेंगे ।
वीतरागता में सदा मौज करेंगे ॥ परमात्म पद में सदा रहना ही पड़ेगा ।
___ ममल स्वभावी...
भजन -३०
तर्ज - तुमसे लागी लगन... तुम तो ज्ञानी महा, आये गुरूवर यहाँ, हो हमारे।
तुमको शत्-शत् वंदन हैं हमारे॥ १. गुरूवर बासौदा नगरी पधारे, हुए हैं धन्य भाग्य हमारे ।
तेरा दर्श किया, जन्म सफल हुआ, मेरे प्यारे, तुमको शत्.... २. गुरू ने शांति सुधारस को चाखा, करते मोह का सतत निवारा ।
आत्म सुमरण किया, राग को तज दिया, धर्म धारे,तुमको शत्.... ३. गुरू हैं शान्ति मुद्रा के धारी, तेरे चरणों में नमन हमारी ।
तुम हो ज्ञानी महा, कर्म नाशे घना, संयम धारे,तुमको शत्.... ४. गुरू ने आतम की ज्योति जगाई, दिव्य दर्शन को अपने लखाई।
निज वैभव को देखा,शुद्ध वृद्धि में लेखा, आनन्दधारे, तुमको शत्.... ५. निज आतम की महिमा निराली, है पर द्रव्यों से खाली ।
अक्षय सुख है यहाँ, स्वानुभूति महा, ज्ञान धारे, तुमको शत्....
pakadaKALENDAR
*मुक्तक
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, निधियाँ दी गुरूवर ने हमको इनका प्रयोग हम करवायेंगे।' शिक्षण शिविर ही होगा अब, और ध्यान की क्लास लगायेंगे। सोती समाज अब जाग उठे, धर्म की प्रभावना करायेंगे । द्रव्यानुयोग पै बैठ के हम, करणानुयोग के गीत गायेंगे ।
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श्री संघ का यह शिविर हर जगह चलता रहे। धर्म की प्रभावना अब हर जगह मचती रहे ॥ धर्म की प्रमुखता से हर सभी काम हो।
ज्ञान ध्यान आत्मा में शीघ्र ही विश्राम हो ॥ POONAKJACADEMAND
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२२
२.
भजन -३१ तर्ज - काय बोली आतम... जगा लइयो भइया जगा लइयो । सोई आतम को अब तो जगा लइयो । नरकों के दु:खों को कैसे कहूँ मैं। भूख अरू प्यास के दु:ख कैसे सहूँ मैं। अरे वैतरणी के दु:ख सहेनजइयो,सोई आतम.... तिर्यंच गति की सुन लो कहानी । भारी बोझा दिया दाना न पानी ॥ अरे सर्दी गर्मी से मर जइयो, सोई आतम... मनुष्य गति में जब मैं आया। विषय भोगों में मन भरमाया ॥ अरे मोह मिथ्या में न फंस जइयो, सोई आतम.... पुण्य उदय से सुर गति पाई। छह मास पहले गले माल मुरझाई॥ अरे रूदन मचा के निगौद जइयो,सोई आतम.... चारों गति की दुखद कहानी । अब तक न संभले होय हैरानी ॥ अरे आतम में अब तो समा जइयो, सोई आतम...
भजन -३२ सम्यक् दृष्टि को हर पल में, बहती आनन्द धारा है।
सम्यक दर्शन को पाने से. होता भव से पारा है। १. चिन्मय सत्ता का धनी आतम, रूप निहारे निज का हो। क्षमा शान्ति को हिय में पाले, अन्तर में उजियारा हो ।
सम्यक् दृष्टि को.... २. बहती रहती ज्ञान सुधा सी, धारा उसके जीवन में। निज परिणति को स्व में देखे, ज्ञान बगीचा अन्तर में |
सम्यक् दृष्टि को.... ३. ज्ञान स्वभावी आतम मेरी, ध्रुव अभेद है अविनाशी। अजर अमर चैतन्य अमूरति, अनंत गुणों की है वासी ।।
सम्यक् दृष्टि को.... ४. ज्ञान वैराग्य में लीन रहे, नित अनंत चतुष्टय धारी है। ऐसी मेरी प्यारी आतम, युग युग से बलिहारी है ॥
सम्यक् दृष्टि को.... ५. अगम अगोचर महिमा तेरी, निज स्वरूप को जाना है। ज्ञान ध्यान तप में दृढ़ होकर, निज सत्ता को पाना है ।
सम्यक् दृष्टि को.... ६. आया समय सुहाना तेरा, अब सम्यक् पुरूषार्थ करो। शुद्ध स्वरूप की करो साधना, शिवरमणी को शीघ्र वरो ।।
सम्यक् दृष्टि को....
*मुक्तक* निज आतम ने देखो भवियन, एक कमाल कर डाला।
आतम से आतम में बैठा, आतम को पा डाला॥ निर्झर सरित ज्ञान झरने से, रोज लगाये गोते। ज्ञान ज्योति की ज्ञान किरण से, आलोकित हम होते ॥
*मुक्तक शुद्धातम की पूजा करता, अपने पद का अनुभव करता। जिनवाणी के माध्यम से, वह ज्ञान स्वभाव में ही रहता ॥ चिद्रूप को ही देखा करता, उसमें ही वह मस्ती करता। शुद्ध दृष्टि होकर के वह, तो अनन्त चतुष्टय को धरता ।।
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भजन -33 ज्ञाता दृष्टा मेरी आतम सदा अमोलक है। स्वानुभूति से ये सदा भरी चकाचक है । ज्ञान वैराग्य की वर्षा हुई यकायक है। ध्यान आनन्द की बाड़ी हुई ये रोचक है ॥ सत्य धर्म का प्याला पियो मेरे भाई । यह शुद्धातम का दरिया परम ही सुखदाई ॥ मोह मिथ्यात के दरिया में मैं भटकता रहा। राग तृष्णा की आग में सदा झुलसता रहा ॥ जीवन ज्योति बनी है आज ज्ञान का दरिया । चौदह ग्रन्थ की टकसाल है चेतन हरिया ॥ धुव ज्ञान से मिथ्या का शमन करना है। जड़ पत्थर की प्रीति को हमें अब तजना है। व्यर्थ आडम्बरों से सावधान हमको रहना है। क्रिया कांडों में अब हमको नहीं फंसना है ॥ तीन लोकों में अविनाशी आतम को जान लिया। शील समता की सागर है इसे पहिचान लिया । मिला है आत्मा अनुपम ज्ञान का सागर । स्वानुभूति की समता से भरी इसकी गागर ॥
भजन -३४
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तर्ज - छोड़ बाबुल का घर... हुये आतम मगन मिली सद्गुरू शरण,
अब तो हम आ गये-हाँ ॥ १. मोह मिथ्या की भ्रांति सदा को चली, माया ममता से अब टूटेगी लड़ी-हाँ । शल्यों को छोड़कर, राग को तोड़कर,
अब तो हम आ गये-हाँ ॥ २. अब तो आतम से नेह लगाते चलें,
झूठे रिश्तों को अब ठुकराते चलें-हाँ। उनसे मुँह मोड़कर, ज्ञान उघाड़कर,
अब तो हम आ गये- हाँ॥ ३. देखो सिद्धों की नगरी में हम आ गये,
सत्ता एक शून्य विन्द में समा गये-हाँ । ज्ञान घन आत्मा हुई शुद्धात्मा,
सिद्ध पद पा गये - हाँ ॥ ४. पूर्णानन्द बिहारी मेरा आत्मा,
राग द्वेषादि भी अब हुये खातमा-हाँ । आनन्द अमृत भरा, वह लबालब भरा,
स्वात्म पद पा गये-हाँ ॥ ५. नन्द आनन्द चिदानंद मयी आत्मा,
शांत समता मयी भी मेरी आत्मा-हाँ । करे निज में बसर, धरे मुक्ति डगर,
अब तो हम आ गये - हाँ॥
* मुक्तक * इस तरह तेरी आयु, क्षण-क्षण में बीत जाये। 5 इसका ही ज्ञान करके, निज आत्मा ही भाये ॥ Cनिज ज्ञान को ही देखे, निज ज्ञान को ही जाने।5
निज ज्ञान में मगन हो, अन्तर दृष्टि हो जाये। UUUUUUUUUUUUUUUU
*मुक्तक वीतराग की नगरी में जायेंगे हम । ज्ञान वैभव से निज को लखायेंगे हम॥ शांत समता का गहरा समन्दर भरा। आत्म सागर में गोते लगायेंगे हम ॥
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भजन-३५
तर्ज - मेरे मेहबूब शायद... मेरे गुरूवर तरण तारण, शरण में तेरे आये हैं।
मेरी आतम शुद्धातम हो,ये आशा लेके आये हैं। १. संकल्प विकल्पों में अटके हो, ज्ञान बिन ए मेरे भाई । आर्त रौद्र ध्यान छोड़ करके, स्वरूप सन्मुख है हो जाई ।
मेरे गुरूवर... २. इसी संसार में देखो, कहीं कोई नहीं मेरा । नजर जाये जहाँ देखू, ये चिड़िया रैन बसेरा ॥
मेरे गुरूवर... ३. ये रत्नों में अमोलक रत्न, सम्यक्दर्श प्यारा है। ये चक्रवर्ती की निधि से, अमूल्य और न्यारा है ॥
मेरे गुरूवर... ४. चन्द्र अब क्लेश को छोडो, नाता अपने से अब जोडो। ये जग के झूठे रिश्ते हैं, दिल में ये बात समायी है ॥
मेरे गुरूवर...
भजन -३६ तर्ज-बाबुल का ये घर बहना... गुरूवर तेरे चरणों में, अब मेरा ठिकाना है।
हृदय में शान्ति मिले, सच्ची श्रद्धा उर लाना है। १. शल्यों को छोड़ करके, मूढताओं को हटायेंगे। लेश्याओं को मंद करके, निज आतम को पायेंगे । चौदह ग्रंथ समझ करके, आतम निधि को पाना है।
गुरूवर तेरे चरणों में... २. सुखों के सागर तुम, काहे गफलत में पड़ते हो। सहजानंद में आओ, तुम काहे कर्मों से लड़ते हो । चन्द्र की अरज यही, इस जग से तर जाना है।
गुरूवर तेरे चरणों में... ३. संयोगों में पड़के, आत्म तत्व को भूले हो। चैतन्य को पाओ, क्यों जग में फूले हो ॥ आनन्द में हो जाओ, आतम में समाना है ।
गुरूवर तेरे चरणों में...
*मुक्तक अनादि से सम्बन्ध अपना मोह माया से जुड़ रहा । खाते पीते सोते उठते बैठते मन उड़ रहा ॥ देखलो सुनलो सभी अब मंत्र जप तुम नित करो। सप्त व्यसन का त्याग कर अठदस क्रियाओं को धरो॥
*मुक्तक ध्रुव में ही वास हो, धुव में हो बसेरा। ज्ञान की ज्योति से, ज्ञान में हो ज्ञान का ही उजेरा॥ हे तत्व निष्ठ योगी, आपके गुणों का वर्णन मैं कैसे करूं। सत्य तो यह है, मैं भी आपके समान बनके भव सागर से तरूं ॥
जिन शासन का मूल आधार है ये,ये ही मुक्ति का कारण है। PO आतम शुद्धातम चिंतन कर, बतलाते सद्गुरू तारण है |
ये ही विश्व व्यवस्था है, करो संयम तप को धारण है। M मंगलमय तेरा जीवन हो, कर शुद्ध दृष्टि अब धारण है ||
आत्म के आनन्द की, इक बात हमको कहना है। उस खुमारी से भरे, आनन्द को ही गहना है ॥ शाश्वत सुख के शांति का रस, याद आने लगा है। रोम रोम में हो रोमांचित, ज्ञान के रस में पगा है।
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भजन -३७ तर्ज - आया कहाँ से जाना कहाँ है.... बहिरात्मा था हुआ अन्तरात्मा, परमातम बन जाना प्यारे ।
परमातम बन जाना॥ १. मोह मदिरा को पीकर तूने, काल अनादि गंवाया है।
विषय कषायों की संगति कर, जग में तू ठुकराया है । इनको तू छोड़, आतम को देखे, शुद्धातम बन जाना प्यारे,
शुद्धातम बन जाना... बहिरात्मा.... २. वस्तु स्वरूप को समझ ले प्यारे, तत्वों की श्रद्धा करले।
नव पदार्थ और छह द्रव्यों की, श्रद्धा को हिय में धर ले। आनंद का पाना, आतम का ध्याना, सहजानंद बन जाना प्यारे,
सहजानंद बन जाना....बहिरात्मा... ३. पर्यायें क्रमबद्ध बदलती, इसका तू निर्णय कर ले ।
श्रेष्ठ यही पुरूषार्थ जगत में, इसका तू निश्चय कर ले। समकित का आना, भव से तर जाना, पूर्णानंद को पाना प्यारे,
पूर्णानंद को पाना प्यारे... बहिरात्मा....
भजन -३८ तर्ज-बहारो फूल बरसाओ... श्री जिनदेव हो मेरे, शरण में तेरे आई हूँ।
यही गौरव प्रभु मेरा, कि दर पे आज आई हूँ॥ १. बहुत ही देव देखे हैं, प्रभु तुझ सा नहीं देखा । न रागी है न द्वेषी है, तुझे वीतरागी ही देखा ॥ सभी को छोड़कर ही मैं, धर्म की आस लगाये हूँ,
श्री जिनदेव हो मेरे.... २. चन्द्र अब मान ले कहना, तू इस दुनिया से न छलना धर्म के मार्ग पर चलना, बना समता का तू गहना ॥ धर्म सबसे अमोलक है, ये दृढ़ श्रद्धान भारी है,
श्री जिनदेव हो मेरे.... ३. अनादि से पड़ी आतम, मोह मदिरा के घेरे में। मान मिथ्यात्व को तज दे, ज्ञान के शुभ सबेरे में | अतीन्द्रिय ज्ञान को पाकर, मुझे शिवपुर को वरना है।
श्री जिनदेव हो मेरे....
* मुक्तक*
आतम अनातम की सदा पहिचान करूँगी। परमात्म तत्व को सदा स्वीकार करूँगी। ध्यान साधना सदा निर्जन में करूँगी। टंकोत्कीर्ण ध्रुव शुद्धात्म को मैं लखा करूँगी॥ आत्म उद्यान की कैसे कहूं महिमा न्यारी। अनगिनत गुणों की जहाँ लगी क्यारी ॥ ज्ञान ज्योति से प्रकाशित हुई आतम प्यारी । वसु कर्मों की छोड़ी अब तो मैंने यारी।
TAVAVAVAVA
*मुक्तक भीगे अध्यात्म में, कर्मों का नाश करना है। धुव शुद्धात्म में अब हमको रमण करना है। अतुल अविनाशी अनुपम है आत्मा मेरी । जाऊँ सिद्धों के नगर मिले सुख की ढेरी ॥ ज्ञान वैराग्य की बातें सदा सिरमौर लगती हैं। विषय वासनाओं की रातें सदा आतम को छलती हैं । सत् चित् आनन्द से भर उठा है हृदय मेरा । मुक्ति को जाऊँ अभी आई सुनहरी यह बेरा ॥
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ॐ
भजन-३९
तर्ज-चढ़ गया ऊपर रे.... पर्युषण पर्व आया रे, अब अपने आतम को ध्याले रे॥ उत्तम क्षमा से हृदय को सजा ले, परम शांत दशा अपना ले॥ ये ही सुखदाई रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्दूषण पर्व... मार्दव धर्म की महिमा निराली, विषय कषायों से मन हो खाली॥ विनय भाव से रहियो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पयूषण पर्व... आर्जव भाव सदा सुखकारी, छोड छल कपट मायाचारी॥ सरल स्वभावी रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्युषण पर्व... सत्य वचन को धारो प्राणी, मुख से बोलो श्री जिनवाणी॥ मोह राग को छोड़ो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पयूषण पर्व... शौच धर्म की कीर्ति बखानी, इसमें संतोषित हर प्राणी ॥ अंतर में रहियो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्दूषण पर्व... उत्तम संयम को पा लो भाई, भव-भव के हों पाप नसाई॥ रत्नत्रय को धरियो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्युषण पर्व... उत्तम तप की सुन लो कहानी, क्षण में वरी शिव रमणी रानी॥ शुद्धातम में रहियो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्युषण पर्व... उत्तम त्याग करो मेरे भाई, दान से जीवन सफल हो जाई । इससे निर्भय हो जइयो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पयूषण पर्व... उत्तम आकिंचन मय रहना, शल्यों को तुम छोड़ो बहिना॥ परिग्रह चाह से डरियो रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्युषण पर्व... उत्तम ब्रम्हचर्य निधि पाना, अक्षय सुख का है ये खजाना॥ ज्ञान निधि को पा ले रे, अब अपने आतम को ध्याले रे, पर्युषण पर्व...
मुक्तक आत्म सुख शांति दाता है सदा मंगलकारी। स्वानुभूति की महकती सदा ये फुलवारी॥ ज्ञान दर्शन चरण से की अभी मैंने यारी। सत् चिदानन्द की लगी अनोखी ये क्यारी॥
भजन-४० तर्ज - कौन दिशा में लेके चला....
आतम वैभव की कहानी सुनो भैया। ये कहानी है आत्म वैभव की, धर्म धारो सदा, धारो सदा॥ १. आत्मज्ञान की निधि को पा ले, हो जाए भव पार हो। रत्नत्रय की शान्ति सुधा से, जीवन होगा सार हो । आत्मदेव ही परम देव है, अनन्त ज्ञान भण्डार हो । ज्ञान वैभव को सम्हालो, मेरे भैया... ये कहानी है... २. विषय कषाय में झुलस रहा है. यह संसार असार हो। अक्षय सुख का मिले खजाना, हो जाए भव पार हो । ब्रम्हचर्य बिन कैसे मिलता, ब्रह्म स्वरूपी ज्ञान हो । धर्म का ध्यान धरो मेरे भैया... ये कहानी है... ३. आतम ही तो परमातम है, सहजातम सुखधाम हो। शुद्धातम की करो साधना, अनंत गुणों का गोदाम है । ब्रम्हभाव में लीन रहो तुम पा जाओ, शिव धाम हो । ब्रम्ह स्वरूपी हो मेरे भैया... ये कहानी है...
भजन -४१ तर्ज - खुशी खुशी कर दो विदा... धर्म को धारो सदा, शिव रमणी तेरा वरण करेगी। १. छह द्रव्यों को तू जाने,नव पदार्थ श्रद्धा हिय ठाने ।
सात तत्वों की कर लो श्रद्धा, शिवरमणी तेरा... २. राग भाव से नाता तोड़े, समकित से तू प्रीति है जोड़े।
ज्ञान गुण को प्रगटा ले सदा, शिवरमणी तेरा... ३. जन्मे मरे बहुत दु:ख भोगे, चारों गति के दु:ख से रोवे।
अरे आतम को भजना सदा, शिवरमणी तेरा... ४. जिनवाणी माँ जगा रही है, मोह राग से हटा रही है।
निज सत्ता को पा लो सदा, शिवरमणी तेरा... ५. चन्द्र तू अपने आतम को ध्याले, ध्रुव स्वभाव को तू अपना ले।
सरल शांत ही रहना सदा, शिवरमणी तेरा...
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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भजन -४२
तर्ज-जिन धर्म की क्या.... आतम की क्या तारीफ करूं, वह परमातम बन जाता है। जो आतम ही का ध्यान धरे, वह शुद्धातम हो जाता है | मैं सहज शुद्ध निज आतम हूँ, मैं निरालंब परमातम हूँ। मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ, मैं पूर्ण ब्रम्ह शुद्धातम हूँ॥ ज्ञाता दृष्टा बन जाने से, अन्तर आतम हो जाता है... आतम... मैं चित् प्रकाश चैतन्य ज्योति, मैं शाश्वत पद का धारी हूँ। मैं एक अखंड अभेद पुंज, मैं ब्रह्मानंद बिहारी हूँ ॥ निज आत्म मगन हो जो ज्ञानी, शिवरमणी को वह पाता है... आतम... कर्ता मैं नहीं न भोक्ता हूँ, मैं सहजानंद स्वभावी हूँ। ये राग द्वेष कुछ मेरे नहीं, आकिंचन पद का धारी हूँ॥ चन्द्र रमण करे जो आतम में, वह सिद्धातम हो जाता है...आतम...
भजन -४४
तर्ज - दीदी तेरा देवर... जिनवाणी की श्रद्धा उर में आना. हे माँ रत्नत्रय का दीवाना। तारण गुरू के चरणों में आना, हे माँ रत्नत्रय का दीवाना। १. ये संसार सागर, महा दु:खमय है ।
इसे जो भी त्यागे, वही वीर नर है ॥ मिथ्यात तजकर निजातम निहारें । वे ही शुद्धातम जो श्रद्धा को धारें ॥ ब्रह्मचर्य से हृदय को सजाना, राग द्वेषादि विकारों को हटाना...हे मां रत्नत्रय... गति चार में हम, अनादि से भटके । शरण तेरी आये नहीं, दुनियां में अटके ॥ मैं आनन्द में आऊँ, चिदानन्द पाऊँ । सहज में मगन हो, परमातम को ध्याऊँ॥ माया मिथ्या को दूर भगाना, स्व पर का विवेक जगाना...हे मां रत्नत्रय... अजर है अविनाशी, ये आतम हमारी। अमर है अनोखी, शांत मुद्राधारी ॥ मोह मदिरा को पीकर,पड़ी जग में आकर। दशलक्षण को पाऊँ रत्नत्रय को ध्याऊँ॥ भेदज्ञान की ज्योति जलाना, गति चारों में न भटकना। चौदह ग्रंथ से हृदय को सजाना...हे माँ रत्नत्रय...
भजन-४३ तर्ज-जिया कब तक उलझेगा... आतम कब आयेगी,चैतन्य के अनुभव में।
कितने भव बीत गये, संकल्प विकल्पों में। १. गति चारों में भटके, अपनी मनमानी से । निज वैभव भूल गये, बनकर अज्ञानी से ॥ विषयों को छोड़ आतम, अपने में आ जाओ।
चैतन्य निधि पाकर, काहे उलझे विकल्पों में...आतम... २. निज लीन हुई आतम, समता की मस्ती में। शल्यों को दूर करो, शुद्धात्म की बस्ती में ॥ विषयों की मादकता, भोगों का चक्कर है । शुद्धात्म मगन होकर, लो मोह से टक्कर है...आतम... ३. राग द्वेष का अंश जहाँ, वहाँ कर्म का बन्धन है। पुण्य पाप का भेद मिटे, हो कर्म निकंदन है ॥ स्व संवेदन को पाकर, स्वानुभूति में आ जाओ। हो शिवपुर के वासी, परमानन्द में रम जाओ...आतम...
* मुक्तक जीवन में समता शांति आती कल्याण भी अपना होता है। जब निर्णय ठोस हुआ अपना आतम शुद्धातम होता है | शुद्ध दृष्टि वो अपनी रखता है, नित आतम के दर्शन करता। निर्बन्ध हुआ है वह अब तो, और मुक्ति श्री को है वरता ॥
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भजन-४५
तर्ज- घूंघट की आड़ से .....
कर्मों की मार से आतम में शुभ ध्यान तो पूरा रहता है। जब तक न लगे, आतम से लगन, भेदज्ञान अधूरा रहता है । जब तक न दिखे, शुद्धात्म झलक, धर्म ध्यान अधूरा रहता है । १. यदि पाना है, अपने सहजानंद को, छोड़ो मान मिथ्या, निदान शल्य को । जब तक न हटे, विषयों से लगन, भेदज्ञान अधूरा रहता है... कर्मों की मार... यदि पाना है अपने चिदानंद को, छोड़ो मोह ममता, अरू अज्ञान को । जब तक न मिले, गुरूवर की शरण, भेदज्ञान अधूरा रहता है... कर्मों की मार... यदि मिल जाये अपनी, आतम की शरण, स्व पर ज्ञायक बनूं छोड़ मिथ्या भ्रमण | जब आतम निजातम हो जायेगा, परमातम पद प्राप्त हो जायेगा... कर्मों की मार...
२.
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
३.
★ मुक्तक ★
त्रिलोकीनाथ आतम देव ही हैं मनहारी । ज्ञान दर्शन चरण की छाई है ये हरियाली ॥ मुक्ति का मार्ग सहज साधना से मिलता है । स्वानुभूति में रमण से ये कमल खिलता है ।
है आत्मा अजर अमर और अविनाशी । है शुद्ध गुणों की खानि है शिवपुर वासी ॥ ज्ञायक ही सद् ज्ञान में रहने वाला । शाश्वत है सदा ध्रुवधाम में बहने वाला ||
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - ४६ तर्ज- चांदी की दीवार...
मोह की दीवार न तोड़ी, मिथ्यामत स्वीकार किया ।
इक मिथ्यात की बेटी ने, परभाव से नाता जोड़ लिया ॥
१.
नर्क में जिसने भावना भायी, शुद्धातम को पाने की। भेदज्ञान तत्व निर्णय करके, इस जग से तर जाने की ॥ शुद्ध स्वरूप का स्वाद न चखके, विषयों को स्वीकार किया || मोह की दीवार...
२. अपने शुद्ध स्वरूप को देखो, चिदानन्द रस पान करो। ज्ञान ध्यान तप में रत होकर, आनन्द रस का पान करो ॥ समयसार का स्वाद ही चख के, आनन्दामृत पान किया । मोह की दीवार....
३.
वस्तु स्वरूप का निर्णय करके, बनो स्व-पर श्रद्धानी हो । आत्म तत्व की करो साधना, बनो तुम भेदज्ञानी हो ॥ चन्द्र सार तो इतना ही है, और कथन विस्तार किया || मोह की दीवार....
★ मुक्तक ★
ज्ञान औषधि का निज में विकास होगा
ध्रुव ही ध्रुव का निज में ही वास होगा ॥
ध्रुव की तरंगें उठती रहेंगी ध्रुव में ।
ध्रुव ही निज सत्ता है, ध्रुव में ही प्रकाश होगा |
ज्ञान की पुंज अमर आत्मा को लखना है। ध्रुव शक्ति धारी निज आत्मरस को चखना है । शून्य बिन्दु सत्ता शुद्धात्म की कहानी है । जो इसमें रमण करे मिले मुक्ति रानी है ।
३.४
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -४७ रोम-रोम में हर्षित होता, आत्म हमारा हाँ आत्म हमारा। ऐसी भक्ति करूँ आत्म की, बहे समकित की धारा ॥ १. ज्ञाता दृष्टा है तू ही, चेतन दृष्टा होय । अनंत चतुष्टय रूप तू, केवल ज्ञान को पाय ॥ आत्म जपे परमात्म नाम को हो जाये भव पारा...रोम... २. भेदज्ञान कर जान लो, तुम आतम भगवान। विषयों से मुँह मोड़ कर, पाऊँ सम्यक् ज्ञान ।।
आत्म जपे परमात्म नाम को, बहे चारित्र की धारा...रोम... ३. चार गति चौरासी में, भटकत बारम्बार । आतम तेरी शरण से, हो जाऊँ भव पार ॥ अब मैं पाऊँ भेदज्ञान की, बहे स्व-पर की धारा...रोम... ४. वीतरागता है भली, जामन मरण मिटाय । माया मोह को छोड़ के, आत्म मगन हो जाय ॥ वस्तु स्वरूप का निर्णय करले, बहे आत्म रसधारा...रोम...
भजन-४९
तर्ज - धर्म बिन बाबरे... आत्म अनुभूति से, तूने नरभव सफल बनाया । किया है तूने आत्म निरीक्षण, मोह ममता को भगाया । १. देख ले अपने निज वैभव को, दर्शन ज्ञान अनंता । चेतन में ही रमते-जमते, वीतराग भगवंता ॥
आत्म अनुभूति... । २. शुद्ध दृष्टि में रत हो ज्ञानी, निज अनुभूति सुमरता । अतुल आत्म वैभव को पाकर, निशंक निर्भय रहता ।।
आत्म अनुभूति... ३. मम स्वभाव से सभी भिन्न है, क्रोध मान अरू माया । निज में ही निज को लखकर के, निज का गीत ही गाया ।
आत्म अनुभूति... ४. चिदानंद रस लीन आत्मा, अजर अमर हो जाये । कर्म बंध टूटेंगे इसके, शिवपुर मिलन कराये ।।
___ आत्म अनुभूति...
भजन-४८
तर्ज - दिल के अरमा आँसूओं... आत्मा हूँ आत्मा हूँ आत्मा, ज्ञानानंदी वीतरागी आत्मा ॥ १. कर्म के चक्कर में अब पड़ता नहीं। मोह मिथ्या ध्यान में धरता नहीं ॥ विषय त्यागी मैं बनी शुद्धात्मा...आत्मा हूँ, आत्मा.... २. अतीन्द्रिय आनन्द रस में मस्त हो। स्वानुभूति की दशा में गुप्त हो ॥ शान्त अनुपम हो, निराली आत्मा...आत्मा हूँ, आत्मा.... ३. अरस अरूपी मैं सदा अविनाशी हूँ। शील संयममय सदा दृगवासी हूँ ॥ द्रव्य नो कर्मों से न्यारी आत्मा...आत्मा हूँ, आत्मा....
भजन -५० गुरू तारण को अध्यात्म सब मिल बांटोरे।
निज आतम को परसाद सब मिल बांटो रे॥ १. देखो नन्द आनंदह नन्द जिनु । भवियन चेयानन्द सुभाव, सब मिल बांटो रे, गुरू.... २. देखो गुरू गुरूओ जिन नन्द जिन।
अप्पा अप्पै में लीन, सब मिल बांटो रे, गुरू... ३. खिपनिक रूवे-रूव भवियन ।
गुरू गुरूओ जिन आनन्द, सब मिल बांटो रे, गुरू... ४. मै मूर्ति न्यान विन्यान मौ। तेरा ज्ञान है ममल स्वभाव, सब मिल बांटो रे गुरू...
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन - ५१ बन जा रे चेतन तू बन जा रे, शुद्धातम का योगी बन जा रे॥ १. आतम तेरी सत्ता निराली, पर भावों से है तू खाली। ममल स्वभाव में रम जा रे, शुद्धातम का योगी बन जा रे ॥
बन जा रे.. २. तेरा रूप है जग से आला, सरल शांत है समता वाला। चिदानंद चेतन में घन जा रे, शुद्धातम का योगी बन जा रे ॥
बन जा रे... ३. शील की चुनरिया डाली, ज्ञान की छाई है उजियारी। धर्म के मार्ग पे चल जा रे, शुद्धातम का योगी बन जा रे ।।
बन जा रे... ४. तत्व निर्णय और भेदज्ञान की, लगी है क्यारी स्व पर ज्ञान की। निर्वाण के पथ पर चल जा रे, शुद्धातम का योगी बन जा रे ॥
बन जा रे... ५. जब तक तू स्व को देखेगा, अपने गुण को ही लेखेगा। संसार से अब उबर जा रे, शुद्धातम का योगी बन जा रे ।।
बन जा रे...
भजन -५३ तर्ज - संभाला है मैंने बहुत .... ये कर्मों ने मुझको बहुत है सताया, इन विषयों में फिर भी मन जा रहा है। कषायों को जब तक भुलाया न जाये,
ये माया मिथ्या मोह में मन जा रहा है ॥ १. ये मिथ्या के छाये, बादल घनेरे, इन्हें छोड़ के कर दे सम्यक् सबेरे । ये संसार सागर, महा दु:खमय है,
निज आतम की भक्ति को मन गा रहा है...ये कर्मों ने मुझको.... २. छह द्रव्यों को जाने, नौ पदार्थ पहिचाने, ये अस्ति की मस्ती में तत्वों को जाने । रत्नत्रय की गागर में, समता की लहरें, अतीन्द्रिय हो जाने को मन गा रहा है...ये कर्मों ने मुझको.. ३. निज आतम को पाऊँ, अनुभूति में आऊँ सहज में मगन हो, शुद्धातम को ध्याऊँ । अजर है अमर है, ये आतम हमारी, परमातम हो जाने को मन गा रहा है...ये कर्मों ने मुझको...
भजन -पर
तर्ज- भैया मेरे राखी.. भैया मेरे आतम से नेहा लगाना, भैया मेरे निज आतम अपनाना। १. पर संबंधों से नेहा लगाये, वो तेरे कुछ काम न आये।
अपने में रम जाना, रम जाना, भैया मेरे आतम... २. मन में गुरू की श्रद्धा लाना, ममल स्वभावी तुम बन जाना।
ज्ञान का दीपक जलाना, जलाना, भैया मेरे आतम... ३. गुरू तारण की वाणी पाकर, भेदज्ञान को उर में धरकर । निज घर में आ जाना, आ जाना, भैया मेरे आतम... ४. माया मोह के जाल में पड़कर, क्यों हंसता है जग में फंसकर । पीछे पड़ेगा पछताना, पछताना, भैया मेरे आतम...
भजन -५४
तर्ज-न कजरे की धार न ..... दश धर्मों को धार, सोलह कारण को पाल । समता का किया श्रंगार, आतम कितनी सुन्दर है । १. भव बंधन तोड़ के आई, जन रंजन छोड़ के आई।
अज्ञान की इस दुनियां में, आतम से नेह लगाई ।। रत्नत्रय की गागर से, आतम का करे श्रृंगार...
दशधर्मों को धार, सोलह कारण को पाल..... २. माया मिथ्या छोड़ के आई, मढतायें तोड के आई।
संसार के इस बंधन को, दृढ़ता से तोड़ के आई ॥ अनुपम है निराली, आतम का कर उद्धार... दशधा को धार, सोलह कारण को पाल...
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन -५५ तर्ज-झिलमिल सितारों का.... शुद्धातम अंगना में पलना होगा, तारण तरण जैसा ललना होगा । ज्ञान स्वभावी तिमिर विनाशी आतम होगा,
शुद्धातम अंगना में पलना होगा ॥ ज्ञान के बगीचे में कई फल खिले हैं,कर्मों की जड़ें इनसे ही हिले हैं। श्रद्धा से नेहा लगाना होगा,आतम से आतम को पाना होगा ।
शुद्धातम अंगना में... वस्तु के स्वभाव को पाना ही धर्म है,ज्ञान की ज्योति से मिटे सारे भ्रम हैं चैतन्य सत्ता को पाना होगा, अनुभूति में अब समाना होगा ।
शुद्धातम अंगना में.... ममल स्वभावी आतम मेरी, दिव्य प्रकाशी आतम मेरी। दृष्टि को अंतर में ढलना होगा, त्रिकाली आतम में चलना होगा।
शुद्धातम अंगना में.... तू तो अनहद सुखों की खान है, स्वात्मोपलब्धि की महिमा महान है। शांति की मुद्रा को धरना होगा, कृत्य कृत्य अब होना होगा ।
शुद्धातम अंगना में.. तारण गुरू को शीश नवायें, जीवन ज्योति को अपनायें। श्रद्धा के सुमन चढ़ाना होगा, परमात्म पद को पाना होगा।
शुद्धातम अंगना में...
भजन-५६
तर्ज - न कजरे की धार न .... शुद्धातम अंगीकार, रत्नत्रय को धार । व्रत समितियों को पाल, ध्यान में सुन्दर मुद्रा है। आतम ज्योति जगा, मिथ्यात को तजा ।
श्रद्धा से लौ लगा, तुम्हीं तो मेरे गुरूवर हो । १. उत्तम क्षमा को धार के आई, मार्दव से गले मिलाई।
आर्जव की इस ऋजुता से, सत्य धर्म को है चमकाई॥ रत्नत्रय की सरिता से, कर जग से बेड़ा पार...आतम ज्योति... शौच धर्म की शुचिता लाऊँ, संयम तप को अपनाऊँ। त्याग धर्म की महिमा गाकर, आकिंचन मैं बन जाऊँ॥ ब्रह्मचर्य का दीप जलाकर, आतम का कर उद्धार...आतम ज्योति...
२.
४.
१.
भजन -५७ कब ऐसो अवसर पाऊँ, निज आतम को ही ध्याऊँ। आतम मेरी सुख की है ढेरी, सो विषयन मार भगाऊँ ॥
कब ऐसो... निज शुद्धातम की अनुभूति, सो परमातम पद पाऊँ ॥
कब ऐसो... एक अखंड अतुल अविनाशी, सो सच्चिदानंद कहाऊँ ॥
कब ऐसो... आतम मेरी अलख निरंजन, सो अरस अरूप ही ध्याऊँ॥
कब ऐसो... निज स्वरूप में रहूँ निरन्तर, सो यह पुरूषार्थ कराऊँ ॥
कब ऐसो...
४.
मुक्तक
क्रान्ति आई है जीवन में आतम की अलख जगायेंगे। आतम शुद्धातम परमातम का शंखनाद करायेंगे । चैतन्य स्वरूपी आतम ही धुव सत्ता की ये धारी है। तारण तरण श्री गुरूवर की युग युगों से ही बलिहारी है।
अध्यात्म एक विज्ञान है, एक कला है, एक दर्शन है, अध्यात्म मानव के जीवन में, जीने की कला के मूल रहस्य
को उद्घाटित कर देता है।
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१.
भजन -५८
तर्ज- सौ साल पहले हमें... ज्ञाता दृष्टा निज, आत्मा थी, निज आत्मा थी। अनादि से है और हमेशा रहेगी ॥ अनादि काल से भव बन्धन में थी । आज नहीं कल भी न रहेगी ॥ चारों गतियों में घूमी, वहाँ निज आतम न जाना। भव चक्कर से छूढूँ, मैंने निज आतम पहिचाना॥ विभावों से बचने को, जिया बेकरार था।
आज भी है और हमेशा रहेगा... ज्ञाता दृष्टा... २.
राग-द्वेष को छोडूं, हृदय में समता आती है। विषयों से मुँह मोडूं,शान्ति उर में छा जाती है। आत्म दर्शन करने का, अरमान था।
आज भी है और हमेशा रहेगा... ज्ञाता दृष्टा... ३. दर्शन ज्ञान को पाया, कि अब चारित्र भी पालूँगी।
रत्नत्रय को पाकर, अष्ट कर्मों को मरोदूंगी॥ अक्षय सुख पाने का ही, यही तो खजाना है यही तो खजाना है।
आज भी है और हमेशा रहेगा... ज्ञाता दृष्टा...
भजन -६०
तर्ज - हे वीर तुम्हारे द्वारे... आतम के अनन्त गुणों की महिमा, ज्ञानी ने हृदय उतारी है। विरले इसको धारण करते, जिनवर ने वयन उचारी है || १. सात तत्वों की श्रद्धा करले, नव पदार्थों का सुमरण करले ।
पंचास्तिकाय की मस्ती में, द्रव्यों की छटा निराली है...आतम... २. ये राग द्वेष कुछ मेरे नहीं, ये विषय कषाय भी मेरे नहीं।
भेदज्ञान तत्व निर्णय करके, आत्म श्रद्धा उर में धारी है...आतम... ३. ज्ञाता दृष्टा निज आतम है, चैतन्य दृष्टा परमातम है ।
रत्नत्रय से भूषित होकर, शिवमार्ग की कर तैयारी है...आतम... ४. दश धर्मों को धारण करती, सोलह कारण पालन करती ।
सम्यक्दर्शन भव नाशक है, कर इसकी अब तैयारी है...आतम... ५. मैं स्वानुभूति में आ जाऊँ, समता रस स्वाद को चख जाऊँ।
इस समयसार मय जीवन की,युग युगों तक बलिहारी है...आतम...
भजन - ५९ शुद्धात्मा हूँ शुद्धात्मा हूँ, एक अनोखी मैं शुद्धात्मा हूँ। परमात्मा हूँ परमात्मा हूँ, शिवपुर का वासी मैं परमात्मा हूँ। १. आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी, कर्म मलों से रहित है अरूपी ।
आतम से आतम मैं सहजात्मा हूँ, एक अनोखी मैं शुद्धात्मा हूँ... २. उत्पाद व्यय ध्रौव्य से मैं सहित हूँ, माया मोह मिथ्या से रहित हूँ।
द्रव्य गुण पर्याय से युक्तात्मा हूँ, एक अनोखी मैं शुद्धात्मा हूँ... ३. विषय कषायों से मैं रहित हूँ, अनाकुल सुख शान्ति से सहित हूँ।
त्रैकालिक चैतन्यात्मा हूँ, एक अनोखी मैं शुद्धात्मा हूँ...
भजन - ६१ तर्ज - धन्य न कार्तिक अमावस प्रभात है.... धन्य-धन्य अगहन, सप्तमी प्रभात है | आनंद की बात है,यह आनंद की बात है।
पुष्पावती नगरी में, तारण ने जन्म लियो । आनन्द महोत्सव, नगरी में छा गयो | शहनाई गूंज उठी, कोई अद्भुत बात है...आनन्द की बात है.... २. वीर श्री माता की कुक्षि धन्य हुई । शुभ संस्कार युक्त बालक की प्राप्ति हुई ॥ खुशियों से झूम उठे पिता गढ़ाशाह है...आनन्द की बात है.... ३. छोटी सी उमरिया में, मिथ्या का विलय किया। स्वात्म रमण करके, सम्यक् दर्शन प्राप्त किया । ज्ञान वैराग्य साधना की ये बात है...आनन्द की बात है....
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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भजन -६४ तर्ज - भैया मेरे राखी के बन्धन... आतम मेरी राग द्वेषादि में न जाना। आतम मेरी निज स्वभाव में आना॥ आठों कर्म बुलाते हमको, गति चारों में फंसाते हमको।
इनसे नेहा छुड़ाना,छुड़ाना, आतम मेरी.... सारे कर्मों की होगी विदाई, आतम का श्रद्धान करो भाई।
ज्ञान में गोते लगाना, लगाना, आतम मेरी.... अलख निरंजन आतम होगा, भव दुःख भंजन आतम होगा।
अब द्रव्य दृष्टि बनाना, बनाना, आतम मेरी.... जब तक तन में सांस है तेरे, आतम के गुण गा सांझ सबेरे।
जीवन का नहीं ठिकाना,ठिकाना, आतम मेरी.... निज का निज से जोड़े नाता, दर्शन ज्ञान चरण है पाता।
रत्नत्रय निधि को पाना, हो पाना, आतम मेरी....
भजन - ६२ तर्ज - मेरी आत्मा प्यारी भटक.... गुरू तारण तुम्हारी, शरण में हम आय।
ग्रंथ चौदह समझ, आतम रस में समाय॥ १. बहिरात्मा है आत्मा, अन्तर में आना चाहिये । अब इसे संसार के, दु:ख से छुड़ाना चाहिये ॥ तत्व निर्णय स्व पर भेदज्ञान हो जाय । ग्रंथ चौदह समझ, आतम रस में समाय...गुरू.... २. भय दु:खों से भयभीत हो, संसार सागर से तरूं। अतीन्द्रिय आनन्द रस का, स्वात्म चिन्तन मैं करूं। स्वानुभूति में अब तो, मगन हो जाय । ग्रंथ चौदह समझ, आतम रस में समाय...गुरू.... ३. आत्मा शुद्धात्मा है, परमातम होना चाहिए। धर्म तप संयम सभी, जीवन में आना चाहिए । नंद आनंद चेयानंद, परमानंद हो जाय । ग्रंथ चौदह समझ, आतम रस में समाय...गुरू....
भजन -६३ तर्ज- मेरी आतम प्यारी भटक न जाय.... जिनवर की भक्ति में,मगन हो जाय। संसार के सागर से, अब पार हो जाय॥
राग-द्वेष की दीवार को, तोडूं मैं समता से अभी। विषयों का लंगर तोड़ के, विभावों में न जाऊँ कभी ।। माया मिथ्या निदान में, अब भटक न जाय । संसार के सागर से, अब पार हो जाय....जिनवर... २. कषायों को छोड़के, जग जाल में आना नहीं। तत्व निर्णय समझ के, अब आत्म की शरणा गही । पंच इन्द्रिय के विषयों में, पड़ा नहीं जाय । ससार क सागर से, अब पार हो जाय....जिनवर... ३. ध्यान धर के आत्मा के, दर्श करना चाहिए। आत्म वैभव को समझ, मुक्ति को वरना चाहिए । अनुपम आतम निराली, मगन हो जाय । संसार के सागर से, अब पार हो जाय....जिनवर...
भजन-६५ आए हैं आए हैं, सेमरखेड़ी के दर्शन को आये हैं। पाए हैं पाए हैं, निज आतम के दर्शन पाये हैं।
आये हैं आये हैं, गुरूवर की शरणा आये हैं। गाये हैं गाये हैं, अनन्त चतुष्टय की महिमा गाये हैं। चाहे हैं चाहे हैं, शिवपुर की नगरिया चाहे हैं। लाये हैं लाये हैं, रत्नत्रय की निधि लाये हैं । छाये हैं छाये हैं, समता के बादल छाये हैं। पाये हैं पाये हैं, निज ज्ञान का वैभव पाए हैं। आये हैं आये हैं, शुद्धातम की नगरी में आए हैं। गाये हैं गाये हैं, तारण गुरू के गीत हम गाए हैं। आए है आए हैं, सेमरखेड़ी के दर्शन को आये हैं...
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भजन -६६
हे आतम तू परमातम स्वयं। निष्क्रिय तू है, तू ही त्रिकाली तू कृत्य कृत्य स्वयं॥ १. अतीन्द्रिय पद का तू धारी, परमानंद का तू अधिकारी ।
तू वीतराग स्वयं, हे आतम तू परमातम स्वयं ॥ २. आत्म धर्म का सुमरण कर ले, सत चित् आनन्द को तू वर ले।
तू चिदानंद स्वयं, हे आतम तू परमातम स्वयं ॥ ३. शाश्वत सुख में लीन रहे त. निःश्रेयस पद शीघ्र गहे त् ।
त्रैकालिक ध्रुव, हे आतम तू परमातम स्वयं ॥ ४. ज्ञानानंद जीवन में आए, तारण की जीवन ज्योति सुनाये ।
ज्ञानाधार स्वयं, हे आतम तू परमातम स्वयं ॥
भजन -६८ तर्ज - मेरे देश की धरती सोना .... आतम की ज्योति, शिव सुख देती, भव का दु:ख हर लेती।
आतम की ज्योति॥ १. सम्यकदर्शन पाने के लिए, भव्यों का मन हरषाता है। सात तत्वों का निर्णय करके, श्रद्धा के सुमन चढ़ाता है । यह धर्म ध्यान की महिमा है, जग जाती चेतन ज्योति ।।
आतम की ज्योति.... २. ज्ञाता दृष्टा हो जाने से, निज ज्ञान समझ में आता है।
आतम परमातम बन जावे, भेदज्ञान ही मन को भाता है । यह स्वानुभूति की महिमा है, पुरूषार्थ ज्ञान की ज्योति ।।
आतम की ज्योति.... ३. दशधर्मों को धारण करके, अब शिवनगरी को पाना है। बारह भावना को भा करके, सोलह कारण को ध्याना है । यह केवल ज्ञान की महिमा है,और सिद्धालय की ज्योति ।।
आतम की ज्योति....
*मुक्तक
भजन -६७ तर्ज - मेरे मुन्ने भूल न जाना.... मेरे चेतन भूल न जाना, तूने आतम को पहिचाना।
तू परमातम बन जाना, हो-हो-हो। १. निज ध्यान मगन हो जाना, केवल ज्योति को पाना ।
तू शिवरमणी को वरना, ओ-हो-हो... मेरे चेतन... २. शुद्धातम रसिक बन जाना, तीर्थंकर पद को पाना ।
तू अविनाशी बन जाना, ओ-हो-हो... मेरे चेतन... ३. निग्रंथ भेष तू धरना, बाईस परीषह सहना ।
तू क्षमा मूर्ति हो जाना, ओ-हो-हो... मेरे चेतन... ४. मिथ्यातम का क्षय करना, भेदज्ञान की ज्योति जलाना।
सम्यक् दर्शन को पाना, ओ-हो-हो... मेरे चेतन... ५. माया को दूर भगाना, पुरूषार्थ को जगाना ।
तू ज्ञान का दीप जलाना, ओ-हो-हो... मेरे चेतन... ६. स्व पर का विवेक जगाना, राग-द्वेष को हटाना। तू वीतराग बन जाना, ओ-हो-हो... मेरे चेतन...
वीतराग की नगरी में जायेंगे हम। ज्ञान वैभव को निज में लखायेंगे हम॥ शांत समता का गहरा समन्दर भरा। आत्म शुद्धि में गोते लगायेंगे हम ॥
प्यारी आतम से एक बात हमको कहना है । धुवधाम में डटी रहो सत्शील का ये गहना है । स्वानुभूति के रस से भरे प्याले को सदा पीते ही रहें। आत्म रस में मगन सराबोर होते ही रहें ।
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भजन-६९ तर्ज - पतित पावन तरण तारण.... ममल आतम सुनो अब तो, तुम्हें परमात्म बनना है।
ये माया मोह तज करके, तुम्हें समता से रहना है | १. फंसी थी इन्द्रिय विषयों में, जान कर इनको अब छोड़ो। करो अब दर्श आतम का, ज्ञान से प्रीति अब जोड़ो ॥
ममल आतम... २. समय बरबाद कर अपना, कौड़ी-कौडी माया जोडी। ये संग में साथ न जाये, तिजोड़ी भर के रख छोड़ी॥
ममल आतम... ३. मूल्य जीवन का न आंका, पड़ी इस जग के फन्दे में। ये धन वैभव को लुटा के तुम, चारों दे दो दान चन्दे में ।
ममल आतम... ४. त्रिरत्नत्रय मयी आतम, सम्यकदर्शन डोर है इसकी। शील संयम की चुनरिया से, काट दो बेड़ी इस जग की।
ममल आतम... ५. चन्द्र अब चेत जा जल्दी, तत्व निर्णय की लगा हल्दी। ये मिथ्या राग तज करके, करो चेतन में बसेरा है ॥
ममल आतम...
भजन -७० आज हमारे द्वारे, आए गुरू तारण है।
धन्य है भाग्य हमारे, पाए गुरू दर्शन हैं ॥ १. ज्ञान के पर्व में, आत्म ज्योति जगे। विषयों को छोडकर के,ज्ञान ज्योति बढे॥ निगोद से निकले हम आये चारों गतियों में। नर जन्म पाया हमने, फंसे न इन गतियों में ॥
आज हमारे द्वारे... २. नरकों के दुःख को चेतन ने कैसे सहे। माया मिथ्या को छोड़कर, भेद ज्ञान की ज्योति बढे॥ शील संयम की चुनरिया ओढ़ हम आये हैं। औषधि, ज्ञान, आहार, देने हम आये हैं।
आज हमारे द्वारे... ३. परिग्रह के जाल से, मुँह अपना मोड़ ले। सद्गुरू की बात को, चन्द्र अब तू मान ले ॥ अनंत सुख के धनी, आतम को पाने आये हैं। त्रिरत्नमयी शिवपुर को, लेने हम आए हैं।
आज हमारे द्वारे...
* मुक्तक*
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भजन -७१ तर्ज- दिल के अरमां.... शील संयम मार्ग पर ही चल दिये।
धर्म ध्यानीही इस जग से तर गये। १. चेलना सती का ही तुम अब नाम लो। पति को धर्म पै, चलाया जान लो ॥ धर्म से अंजन, निरंजन हो गये...धर्म ध्यानी ही..... २. अंजना सती को, निकाला घर से जब । गर्भ में हनुमान, पड़ी जंगल में तब ॥ भाग्य से मामा के घर को चल दिये...धर्म ध्यानी ही..... ३. अंजन जैसे पापी का, अब हाल सुन। कर्म की बेड़ी कटी, इक क्षण में सुन ॥ धर्म से अंजन, निरंजन हो गये...धर्म ध्यानी ही.....
इन्द्रिय विषय कषाय आदि का शमन हमें अब करना है। काम क्रोध मद लोभादि का दमन हमें अब करना है। माया मिथ्या निदान ये शल्यें दूर हमें अब करना है। स्वानुभूति में रमण करें हम मुक्ति श्री को वरना है।
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भजन - ७२
हे भवियन, तुम आनंदमयं। १. विषय भोग में क्यों रत रहता, तू चैतन्य मयं ॥
हे भवियन.... २. काल अनादि से फिरे भटकता, तू ममलं ध्रुवं ॥
हे भवियन.... ३. अब आतम की छवि निरख ले, चेयानन्द स्वयं ॥
हे भवियन.... ४. शुद्ध चेतना शक्तिधारी, अलख अनूपमयं ॥
हे भवियन.... ५. स्वानुभूति रस का तू प्याला, अमृतमयी स्वयं ॥
हे भवियन.... ६. केवलज्ञान मयी मम आतम, अक्षय अनंत सुखं ॥
हे भवियन....
भजन -७४
तर्ज-दीदी तेरा देवर... वीतरागी के चरणों में आना, मुक्ति नगरी का मैं दीवाना। पुरूषार्थ को अपने जगाना, पंचेन्द्रिय के विषयों में न आना। १. अरस है अरूपी, ये आतम हमारी। इसे छू न सकते, ये शब्दों से न्यारी ॥ किसी से भी पूछो, ये आतम है कैसी। सुखों का है दरिया, स्वानुभूति जैसी ॥ शान्ति की मूरति बनाना, अक्षय सुख का तू खजाना।
वीतरागी के..... २. जन्मते और मरते, नरकों में जाते। भूख और प्यास के दु:ख सहते ॥ वहां से निकलते, पशुगति में आते । सबल निर्बल होते, भारी बोझा ढोते ॥ मुश्किल से नर जन्म पाना, शील संयममय जीवन बनाना।
वीतरागी के..... ३. स्वर्गों में आये, विषयों में ललचाये । छहमास पहले, गले माला मुरझाये ॥ जिनवर को ध्याये, और अब न पछताये । निज आतम सुमरले, भव सागर तर जाये ॥ कों के बंधन को छुड़ाना, आतम ज्ञान के दीपक को जलाना।
वीतरागी के.....
१.
२.
गजल-७३ मेरी आतम की सम्पदा की बात मत पूछो। आत्म परमात्म हुई, कैसे बात मत पूछो। धर्म के नाम पर, कुरबान हुआ करते हैं। धर्म क्या चीज है, इसका न ज्ञान करते हैं। त्रिकाली आत्मा से, प्रीत हमको करना है। अतीन्द्रिय आत्मा पै, दृष्टि हमें रखना है ॥ अनन्त पुरूषार्थ का धनी, ये मेरा आतम है। स्वानुभूति में समा जाये, तो परमातम है । सुख तो अन्दर भरा है, बाह्य से सुख क्या लेना। सत् चिदानन्दमय, धुवधाम पर दृष्टि देना ॥ पर पै दृष्टि चली जाय, तो दुःख होता है। ध्रुव पै दृष्टि को जगा लूं, तो सुख होता है |
*मुक्तक मोह मिथ्या की बेड़ियों को दूर करना है। सत् चिदानन्द मयी आतम में समा जाना है।
गर दु:खों से बचना चाहते हो हे नर तुम। ध्रुव शुद्धात्म की दृष्टि में अब खो जाओ तुम॥
५.
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भजन - ७५ तर्ज- मेरे हाथों में नौ-नौ... मेरी आतम में पाँच महा दीप्तियां हैं।
इनको ध्याओ मिटे चेतन दूरियां हैं। १. प्यारी आतम में देखो, अठारह शक्तियां बहिनों। इनको धारण करो, मेरी प्यारी बहिनों॥ रमण होगा, रमण होगा, बलिहारियां हैं....मेरी.... २. निज आतम में दिप्तावती शक्ति बहिनों। शाश्वत सुख ही भरा है, मेरी प्यारी बहिनों॥ रमण होगा, रमण होगा, बलिहारियां हैं....मेरी. ३. अनंत गुणों का गोदाम, मेरी आतम बहिनों। वंदन अर्चन करो, मेरी प्यारी बहिनों॥ रमण होगा, रमण होगा, बलिहारियां हैं....मेरी....
भजन -७७ तर्ज-तं यह विओय किम सहिये, जं जं विओय दुह लहिये... मम आतम शरणा लहिये, हे चेतन निज पद गहिये।
आनंदामृत को चखिए, मम अमिय स्वरूप परखिये॥ १. चैतन्य वाटिका तेरी, है अनंत गुणों की ढेरी। अब अन्तर की सुधि ले री, अक्षय सुखों की है ढेरी॥
मम आतम.... २. अन्मोय न्यान आनंदं,तं अमिय रमन सुख पावं । अद्भुत अखंड निज आतम, आनन्दमयी परमातम ॥
मम आतम... ३. है ज्ञान विराग की धारा, मोह राग द्वेष भी हारा। मिथ्यात को दूर भगाया, निज ज्ञान ज्योति प्रकटाया ॥
मम आतम.... ४. मम आतम ज्ञाता दृष्टा, मम आतम चेतन दृष्टा। मम आतम निर्विकारी, अक्षय सुख का भंडारी॥
मम आतम.... ५. अब आतम की सुधि लहिये, और पंच परम पद गहिये। चेतन के रस को चखिये, और शुद्धातम में रमिये ॥
मम आतम....
भजन -७६
तर्ज-अपने पिया..... आत्म श्रद्धा की, मैं तो बनी रे पुजारनियाँ। खुशी से नाच उठी, सारी दुनियां, मैं तो बनी रे पुजारनियाँ। १. विषय भोग को हम तज देंगे. सुन लो आतम राम जी।
माया मोह शल्य हम छोड़ें, वीतराग भगवान जी, आत्म.... अनुपम ऋद्धिधारी चेतन, कर लें आनन्द पान जी।
ब्रह्म स्वरूप निजातम ध्याये, निर्मोही ध्रुव धाम जी, आत्म.... ३. रत्नत्रय की शक्ति निराली, तारण तरण जहाज जी। सुख शान्ति आनंद की प्याली,पाये शिवसुख धाम जी, आत्म..
*मुक्तक - संसार की धरा पे इक रात सपना देखा। जितने वहां खड़े थे कोई न अपना देखा ॥ ज्ञान वैराग्य की छटा वहां निराली देखी । शुद्धात्म दशा पाने को आत्मा मतवाली देखी ॥
मुक्तक मोह ममता की भ्रान्ति को अब हम दूर करें। आत्म गुणमाल के गीत अब हम गाते चलें ॥ शील समता से प्रफुल्लित आत्म इक बगिया है। आत्म ही ज्ञान गुणों का अनुपम दरिया है ॥
सत्ता एक शून्य विंद की अमर कहानी है । ध्रव शुद्धात्म को लखके यह बात हमने जानी है। लगता ऐसा है शिवनगर को जल्दी जाऊँ मैं। ध्रुव शुद्धात्म में सदा को समा जाऊँ मैं |
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भजन -७८ तर्ज-तं यह विओय किम सहिये... आतम की अकथ कहानी, आतम महिमा हम जानी। आतम अनुभव सुखदानी, अब मुक्ति नगरिया पानी॥ १. है अरस अरूपी आतम, है निर्विकार शुद्धातम । सुख की राशि निज आतम, समता धारी सहजातम ।।
आतम की... २. स्वाधीन सरल यह आतम, है वीतराग परमातम । है सब कर्मों से न्यारी, अक्षय सुख की भण्डारी ।।
आतम की... ३. है शुद्ध चिद्रूपी आतम, आनन्द कारी निज आतम । जड़ से न्यारी है आतम, अनंत शक्ति धारी आतम ।।
आतम की... ४. है अनंत गुण की धारी, यह अष्ट कर्म से न्यारी। शीतल समता की धारी, संकल्प विकल्प निरवारी ।।
आतम की...
भजन -८० झूले रे मेरे अन्तर में झूले, सहजानंद मेरे अन्तर में झूले।
बोले रे श्री गुरूवर बोले, शुद्धातम तेरे अन्तर में झूले ॥ १. इस जग में भ्रमते दुःख पाये, अब आतम की शरणा आये।
पाये रे मैंने बहु दुःख पाये, झूले रे मेरे अन्तर में.... २. अब दुःख की मैंने सुधि बिसराई. तप संयम पै ध्यान दो ओ भाई।
पायो रे मैंने नर जन्म पायो, झूले रे मेरे अन्तर में.... ३. नर जन्म की सार्थकता यही है, तत्व श्रद्धा से लगन लगी है।
पायो रे मैंने जिन दर्श पायो, झूले रे मेरे अन्तर में.... ४. यह जग क्षण भंगुर नश्वर है, देहादिक रोगों का घर है।
तोड़ो रे जग से नाता तोड़ो, झूले रे मेरे अन्तर में....
भजन -७९ सुनो मेरी प्यारी बहिना, थोड़े दिन और रूक जाओ। श्री श्रावकाचार के मोती, थोड़े दिन और बिखराओ ॥ लुटा दो ज्ञान का वैभव, आत्म ज्ञान पर हम आ जायें । मोह मिथ्या को दूर करके, चैतन्य की भावना भायें ॥ करें हम आत्म के दर्शन, मिथ्यातम का होवे भंजन ।
और बारह भावना भाने से, अग्रहीत मिथ्यात छूट जावे ॥ न पाया था अनादि से, उसे हम आज पा जायें। निश्चय व्यवहार की शैली, आपने अद्भुत बतलायी। गुरू तारण की महिमा के, गीत हम आज सब गायें ।
भजन-८१
तर्ज-बहारो फूल बरसाओ... त्रिलोकीनाथ आतम की, जगत से महिमा न्यारी है।
तरण तारण गुरूवर ने, इसे हृदय से धारी है। १. ज्ञाता दृष्टा मेरी आतम, चेतन दुष्टा मेरी आतम ।
ये अनुपम है अमोलक है, शान्ति समता की प्याली है... २. है रत्नत्रय की मंजूषा,ये दशलक्षण की क्यारी है। तत्व निर्णय भेदज्ञान की, अद्भुत फुलवारी है.... ३. अजर है आत्मा मेरी, अमर है आत्मा मेरी ।
ये दृढ़ता की ही मूरति है, धुव है निर्विकारी है... ४. ये सहजानंद धारी है, अखंड है और अविनाशी । विमल से है बनी निर्मल, ममल शुद्धात्म धारी है... ५. है चैतन्यता से विभूषित, अनन्त चतुष्टय की धारी है। चन्द्र भेद ज्ञान उर धर ले, लगे चारित्र की क्यारी है...
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भजन -८२ तर्ज - तरण तारण पतित पावन... मेरी आतम जगत के.पर पदार्थों से अछती है। मोह और राग को छोड़ो, ये दुनियां कितनी झूठी है। १. धन दौलत कुटुम्ब कबीला, ये सब स्वारथ के रिश्ते हैं।
ये जानन हार आतम में, सम्यक् के बीज डलते हैं...मेरी.... २. माया मिथ्या को छोड़ो तुम, निजातम रूप को ध्याओ।
मैं चेतन हूँ अमूरति हूँ, चिदानंद गीत अब गाओ...मेरी.... ३. कर्म नो कर्म मन वच काय, ये कुछ भी नहीं मेरे ।
सत् चिदानंद परमेश्वर, नित्यानंद रूप है मेरे...मेरी.... ४. अनादिकाल से घूमा, चतुर्गति के झमेले में। विभावों का दमन करके, आओ निज ज्ञान मेले में...मेरी.... ५. अहो शुद्धोपयोगी एक, आतम को ही ध्यावत हैं। उसी में लीन रहते हैं, अनाकुल शान्ति चाहत हैं...मेरी...
भजन -८४ दर्शन दो शुद्धात्म देव, मेरी अखियाँ प्यासी रे ।
दर्शन दो निज आत्म देव, तू तिमिर विनाशी रे ॥ १. चारों गति में भटक रहा था, विषय भोगों में अटक रहा था।
निज आतम के दर्शन को, मेरी अखियाँ प्यासी रे...दर्शन दो... २. वसु कर्मों से तुम हो न्यारे, अनन्त चतुष्टय को धारे।
त्रय रत्नत्रय के धारी देव, मेरी अखियाँ प्यासी रे...दर्शन दो... ३. परिपूर्ण ज्ञानमय अविनाशी, सत चिदानंद शिवपुर वासी।
ममल स्वभावी है आत्म देव, मेरी अखियाँ प्यासी रे...दर्शन दो... ४. मिथ्यात्व भाव को तुम छोड़ो, सम्यक्त्व से नाता तुम जोड़ो।
ज्ञाता दृष्टा है आत्म देव, मेरी अखियाँ प्यासी रे...दर्शन दो...
भजन -८३ तर्ज-अपने पिया की मैं तो...
अपने आतम की मैं तो बनी रे दीवानी। मिली है आतम मेरी,गुण की निधानी, मैं तो भई रे दीवानी॥ १. ज्ञाता दृष्टा मेरी आतम, सनो मेरे जिनराज जी। अद्भुत और निराली आतम, अलख निरंजन ज्ञान की।
अपने आतम.... २. इस शरीर से भिन्न सदा है, अपना आतम राम जी । नरक स्वर्ग पशुगति के दु:ख से, भिन्न है आतमराम जी ।
अपने आतम.... ३. आतम शुद्ध बुद्धि की धारी, सुन लो ज्ञान स्वरूप जी। तन्मय हो जा इस आतम में, दृढ़ हो चेतन राम जी ।।
अपने आतम....
भजन -८५ तर्ज-बहुत प्यार करते हैं.... गुरूवर आए हम तेरी शरण ।
तेरी भक्ति में बीतेजनम-जनम॥ विषयों के लंगर को तुमने है तोड़ा। क्रोध कषायों से मुंह को है मोड़ा ॥ मिथ्या शल्यों को, अब छोड़ें हम ।
गुरूवर आए हम तेरी शरण... २. शुद्धातम का ध्यान हम धरेंगे ।
अक्षय सुख का पान हम करेंगे ॥ रत्नत्रय का ध्यान करें हम । गुरूवर आए हम तेरी शरण... ज्ञान की गंगा में, हम डूब जायें । ममल स्वभाव का दरिया बहाएँ ॥ आतम अनुभूति में मगन रहें हम । गुरूवर आए हम तेरी शरण...
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५७
१.
३.
४.
भजन - ८६
तर्ज- मैं चढ़ाऊंगा दाने अनार के मेरे बाबा...
राग द्वेष मैं छोडूं विचार के, मेरी आतम के दिन बहार के ॥
२. निज आतम को जब तू पाएगा, निज आतम को जब तू पाएगा।
निज आतम को जब तू पाएगा, आतम सिद्धातम बन जाएगा ।
श्रद्धा धारो चेतन की सम्हाल के... मेरी आतम.....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
नर जन्म को जब तू पायेगा, नर जन्म को जब तू पायेगा । नर जन्म को जब तू पायेगा, चैतन्य में तू समा जायेगा ॥ ध्यान करले चेतन का विचार करके... मेरी आतम....
रत्नत्रय को तू पायेगा, रत्नत्रय को तू पायेगा ।
रत्नत्रय को तू पायेगा, सप्त भयों से मुक्त हो जायेगा ||
शल्यों को हृदय से निकाल के... मेरी आतम......
५.
ज्ञाता दृष्टा तू मन को भायेगा, ज्ञाता दृष्टा तू मन को भायेगा। ज्ञाता दृष्टा तू मन को भायेगा, चेतन दृष्टा हो जायेगा |
ज्ञान की ज्योति रखना सम्हाल के, मेरी आतम.....
भजन- ८७
तर्ज
बन्नो तेरी अंखियाँ....
धरो हृदय में समता प्राणी, आये तेरे दर पे माँ जिनवाणी ॥
१. मैया तेरी वाणी लाख की है।
रसास्वादन कर भव्य प्राणी...धरो हृदय....
२.
माता तूने हमको सीख दी है।
कषायें छोड़ी भव्य प्राणी... धरो हृदय .... सुनो अब विनती मेरी मैया ।
३.
तेरी शरणा हमको सुखदानी...धरो हृदय...
४.
मैया मेरी आतम ज्ञाता दृष्टा ।
शुद्धतम है ये गुण की खानी... धरो हृदय...
विषय भोगों को माँ मैं त्यागूं ।
स्वानुभूति की मैं रजधानी... धरो हृदय ....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
१.
२.
३.
४.
भजन - ८८
कहाँ से आये हो ओ चेतन और कहाँ को जाते हो।
तन धन यौवन कुछ थिर नहीं, इसमें क्यों भरमाते हो ॥
खोटी गतियों से निकले हो, अब आतम का हित कर लो। ज्ञान की ज्योति जगाओ अपनी, धर्म का अब सुमरण कर लो ॥
पर में भटकत बहु दिन बीते, अब अपने में खो जाओ। अब सुलटन की आयी बिरिया, अब अपने में आ जाओ ॥
राग द्वेष को छोड़ो अब तुम, समता रस का पान करो । विषय कषायों को छोड़ो, तुम आनंदामृत का पान करो ।।
चन्द्र ये जग है रैन का सपना, अब आतम को तुम नित भजना । रत्नत्रय की डोर से बंधकर, अपनी मंजिल खुद तय करना ॥
भजन - ८९
तर्ज- तू ज्ञानानंद स्वभावी है तेरा....
१.
मेरी अजर अमर आतम, गुणों की खान ये परमातम ॥ धर्म की राह पै चल सकते हैं, ये संसार असार । आतम अनुभव से होवेगा, जग से बेड़ा पार ॥ कर ध्यान निजातम का, और हो जाये शुद्धातम । मेरी अजर अमर आतम, गुणों की खान...
२.
३.
.
देख ले अपने निज वैभव को दर्शन ज्ञान क्षमा । चल हो स्वयं में लीन, अब तू सुखमय धर्म तू कमा ॥ एकाग्र हो आतम में, और बन जाये परमातम । मेरी अजर अमर आतम, गुणों की खान... द्वादशांगमय है जिनवाणी, नमूँ त्रियोग सम्हार । जिनवाणी की करूँ वन्दना करती भव से पार ॥ चेतन चिदानंद तुम, और हो जाओ सहजातम । मेरी अजर अमर आतम, गुणों की खान...
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५९
३.
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भजन - ९०
तर्ज- बहुत प्यार करते....
आतम की ज्योति, जगायेंगे हम ।
आतम के ध्यान में, आतम के ध्यान में, बीते जनम ॥ आतम से जब प्रीत है जोड़ी, पुद्गल से तब प्रीत है तोड़ी। माया मिथ्या मोह को, माया मिथ्या मोह को दूर करें हम ॥
,
आतम की ज्योति......
गति चारों में हम अनादि से भटके, विषयों की चाह में अब तक अटके | स्वर्ग नरक में, स्वर्ग नरक में, न भटकेंगे हम ॥
आतम की ज्योति...
आतम की है महिमा न्यारी, अतुल अखंडित ज्ञान का धारी। ज्ञान की गंगा में, ज्ञान की गंगा में, डूब जायें हम ॥
आतम की ज्योति....
भजन - ९१
तर्ज- काहे उड़ा दई चदरिया...
आतम पै कर ले नजरिया, सहज सुख बिरिया || चेतन पै जब दृष्टि करोगे, दृष्टि करोगे चेतन दृष्टि करोगे । मिल जै है मुक्ति नगरिया, सहज सुख बिरिया...आतम..... आनंदामृत पान करोगे, पान करोगे चेतन पान करोगे । शाश्वत सुख की डगरिया, सहज सुख बिरिया...आतम...
मोह राग बहु बार किया है, बार किया है बहु बार किया है। धर्म की ले लो खबरिया, सहज सुख बिरिया... आतम..... स्वानुभूति है सुख का कारण, सुख का कारण चेतन सुख का कारण । समकित की होवे परणतियाँ, सहज सुख बिरिया...आतम...
• आध्यात्मिकता मनुष्य को पलायन नहीं सिखाती हैं, बल्कि उसके अन्तर जगत को सुव्यवस्थित कर उसे कर्म की ओर प्रवृत्त करती है। तथा उसे समभाव जनित स्थायी सुख एवं शान्ति प्रदान करती है।
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
१.
२.
१.
२.
३. सम्यक् श्रद्धा है, ज्ञान को पाया है।
३.
भजन - ९२
ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया।
ओ हो हो हो आतम शुद्धातम हो गया ॥
४.
कर्म आने लगे, आके जाने लगे।
वो तो आतम से, अब घबराने लगे,
वो तो आतम से, अब घबराने लगे ॥
ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया......
विषय जाने लगे, शल्य जाने लगीं । मूढ़तायें हृदय से निकलने लगीं, ओ हो हो हो आतम शुद्धातम हो गया ॥ ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया....
सम्यक्चारित्र हृदय में धारा है, हृदय में धारा है, ओ हो हो हो आतम, परमात्म हो गया है |
ओ हो हो हो आतम से मिलन हो गया, ओ हो हो.....
भजन- ९३
हे चेतन कब अपने में आऊँ ।
राग द्वेष नहिं पाऊँ, हे चेतन कब अपने में आऊँ ॥ अगम अगोचर ब्रह्म स्वरूपी, निज आतम को ध्याऊँ ॥ हे चेतन... अद्भुत गुणों से अलंकृत आतम, उसी में रम जाऊँ ॥ हे चेतन... शाश्वत सुख का धाम है आतम, ममल भाव अपनाऊँ ॥ हे चेतन... अजर अमर अविनाशी आतम, सुख शान्ति को पाऊँ ॥ हे चेतन...
हमारे भीतर गहरे स्तर पर आनन्द स्वरूप आत्मा है जो हमारा निज स्वरूप है। अभी मन उसकी ओर उन्मुख न होकर बाहर भटक
रहा है और सुखाभास को सुख समझ रहा है।
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भजन -९६
तर्ज - गाये जा गीत मिलन के... आये हैं आत्म मिलन को, गुरू के दर्शन को, आत्म रस पाना है। १. गति चारों में अनादि से भटका, मोह मदिरा में भूल हो। अब आतम में अलख जगा ले, रहेगा सुख से फूल हो । पाकर के ज्ञान सरिता को, कि गोते लगाना है...आये हैं... २. आतम में कई किरणें जागी, रहे थे उसमें डूब हो। विषय कषायों की तृष्णा भागी, आई उनसे ऊब हो । पीकर के ज्ञानामृत को, अमर हो जाना है...आये हैं... ३. सातों तत्वों की श्रद्धा से, जग हो गया है धूल हो। अब अन्तर से नेह लगा तू, आठों कर्म हैं शूल हो । पीकर के आत्म सुधा को, कि शिवपुर पाना है ...आये हैं...
५.
भजन -९४
तर्ज-दिल लूटने वाले... चेतन के गुण चेतन में हैं, महिमा गुरूवर ने गाई है। शुद्धात्म रमण में रत होकर, आतम में अलख जगाई है। जिन जिनयति जिनय जिनेन्द्र पओ, विन्यान विंद रस रमन मओ। आनन्द का अमृत पीने से अजर अमर हो जाई है...चेतन..... जिन जिनवर उत्तउ-जिनय पउ, जिन जिनियो कम्म अनंत विली। निज ध्यान आत्म का धरने से, कर्मों का क्षय हो जाई है...चेतन.... जं करम विशेष अनन्त रूई, अन्मोय न्यान विलयन्तु सुई। निज आत्म की ज्योति मिलने से, इस जग में फिर न आई है...चेतन.... जिन नंदानन्द आनन्द मओ, जिन सहजानंद सहाव मओ। निज ध्यान मगन हो जाने से, परमातम पद को पाई है...चेतन.... निर्भय निर्मम निज आतम है, सत्ताधारी शुद्धातम है। शीतल समता धारण करके, शिव नगरी को अब पाई है...चेतन....
भजन -९५
तर्ज-बाबुल का ये घर... ब्रह्मचारी बसंत जी का, हुआ दर्श ये सुहाना है। वैराग्य धार लिया, पहना समता का बाना है।
गलियों गलियों में, देखो धूम मची भारी। अपनी नगरी में, आये बाल ब्रह्मचारी ॥
ब्रह्मचारी.... २. अष्टान्हिका पर्यों में, आठ अंग को बतलाया। सम्यक् दर्शन का, दिग्दर्शन करवाया ॥
ब्रह्मचारी.... ३. पर्युषण पर्यों में, दश धर्म को बतलाये। उत्तम क्षमा को धारण कर, आत्म श्रद्धा को उर लाये॥
ब्रह्मचारी.... ४. कर जोड़ निवेदन है, फिर लौट के आना है। हम भूले भटकों को, सत्मार्ग दिखाना है ॥
ब्रह्मचारी....
भजन - ९७
तर्ज - चेतो चेतन निज में आओ... अपने में अपने को देखो,शुद्धातम तुमको बुला रही है। १. लाख चौरासी में बहु भटके, मिथ्या मोह के कारण अटके ।
भेदज्ञान कर निज में आओ, कर्मों की अब चला चली है ।
अपने में ........
| २. तुम हो शुद्ध गुणों के धारी, क्षमा शान्ति पर तुम बलिहारी। श्रद्धा से अब प्रीति लगाओ, सम्यक्त ज्योति तुम्हें बुला रही है।
अपने में ३. अगम अगोचर अरस अरूपी, सत चित् सुख आनन्द स्वरूपी । जिनवाणी के तुम गुण गाओ, शाश्वत सुख जो बता रही है ।
अपने में | ४. आतम की है महिमा न्यारी, वो है अनन्त चतुष्टय धारी । अब आतम में अलख जगाओ, धर्म ध्वजा अब फहरा रही है।
अपने में ........
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भजन - ९८
तर्ज
तुमसे लागी लगन....
आये चेतन शरण, मेटो जन्म मरण, द्वंद सारे ।
आये चेतन तेरे द्वारे ।
१. ममल आतम को जाना है इसने इसकी ध्रुवता को माना है इसने ॥ ज्ञाता दृष्टा आतम, उवन जिन है आतम, नंद प्यारे... आये..... २. अतीन्द्रिय आतम को पाऊँ, स्वानुभूति में आन समाऊँ ॥ समता को मैं धारुँ, रत्नत्रय को पालूँ, ज्ञान धारे... आये..... ३. अनादि से भव वन में भटका, संसार महावन में अटका ॥ महिमा आतम गाऊँ, शुद्धातम को ध्याऊँ, सत्य धारे... आये... ४. निज आतम को अब तू निहारे, शुद्ध परिणति को अब तू धारे ॥ प्रज्ञामयी है आतम, गुण की खानि आतम, श्रद्धा धारे... आये....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन
୧୧
अपरिणामी को देखो, परिणाम नहीं तेरे । कृत कृत्य हुआ हूँ मैं, आनन्द वशा मेरे ॥
१. निर्विकल्प ध्यान में जब उपयोग मेरा जुड़ता । अन्तर्मुख होने से, निज पद को प्राप्त करता ॥ २. चैतन्य मूर्ति मैं अमृत का प्याला हूँ । सुखधाम मेरा मुझमें अनंत शक्ति वाला हूँ ॥ ३. पुरूषार्थ करूं मैं अब, श्रद्धा से प्रीत मेरी | आतम से प्रीति बढ़े, छूटे इस जग की बेड़ी ॥
४.
-
आतम है ध्रुव अभेद, कूटस्थ अपरिणामी । सम्यक्त्व से शोभित है, है शिवपुर का स्वामी ॥
५. अतीन्द्रिय आनन्द में बहे स्वानुभूति धारा ।
,
अचिन्त्य चिंतामणि का, होवे जय जय कारा ॥
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन = १००
तर्ज- दुनियां बनाने वाले का....
नर जन्म पाने वाले, मोह की कर दे विदाई | तूने निज सत्ता अपनाई ॥
१. मुश्किल से पाया तूने, नर जन्म पगले । दया और दान कीने, जन्म अगले ॥ तूने किया है अंतर बसेरा 1 जल्दी हो जाए अब ज्ञान सबेरा ॥ आतम को पाने वाले, इस जग से ले तू विदाई | तेरा भव चक्कर नस जाई....नर जन्म...
२. तेरे पड़ा है अज्ञान का परदा I मोह मिथ्या को छोड़ धर्म पे अड़ जा ॥ तू जो कहता है जग ये मेरा मेरा । यह जग है चिड़िया रैन बसेरा ॥ दानी कहाने वाले हृदय में समता धराई ॥ तूने कर ली है लाखों की कमाई.. नर जन्म...
३. स्वर्ग में घूमा तूने नर्क भी घूमा । पशुगति के दुःखों को चूमा || धर्म कर्म में कोई साथी नहीं है । विषयों को छोड़ो आतम तो सही है ॥ ज्ञायक कहाने वाले, ममता की कर दे विदाई | तूने सिद्ध परम पद पाई....नर जन्म...
BEBEBE
★ मुक्तक ★
आतम ही ज्ञान ध्यान का, सागर भरा पड़ा । आतम ही प्रेम मूर्तिमय, वात्सल्य का घड़ा ॥ आतम ही सदा आत्म में, विलसता रहा है। आतम सदा शुद्धात्मा में, बसता रहा है ॥ PM 192021
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भजन - १०१ आतम को पाना होगा, आतम में अब समाओ।
अतीन्द्रिय आनन्द की महिमा, को अब तुम गाओ॥ १. अंतर स्वरूप आतम, अनंत शक्तिधारी।
चैतन्य की है प्रतिमा, मम आत्मा त्रिकाली...आतम को... २. चाहे जगत अनकूला, चाहे जगत प्रतिकूला। निष्क्रिय चैतन्य द्रव्य हूँ, आनन्द रस में झूला...आतम को... ३. वीतरागी शांत मुद्रा को, ज्ञानियों ने धारी। निर्भय निशंक तू है, अनंत सुख का धारी...आतम को... ४. विकल्प जिस क्षण जाये, मम आत्मा सुहाये। परिणति निज में जाये, निज अनुभूति पाये...आतम को...
भजन- १०२
तर्ज-पों के पर्व पर्युषण... आतम का सुख आतम में है, बतलाया गुरूवर तारण ने।
आराधक भव भव पार होय,बतलाया गुरूवर तारण ने॥ १. कोई राग करे कोई द्वेष करे, कोई क्रोध करे कोई मान करे । कर्मों के बंधन में बंधते, बतलाया गुरूवर तारण ने ||
आतम का... २. निर्मल अनुपम आतम मेरी. है ज्ञान दर्शन गण की चेरी। आतम का हम सुमरण कर लें, बतलाया गुरूवर तारण ने ॥
___आतम का... ३. पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग करें,माया मिथ्या शल्य को दूर करें। तत्वों की श्रद्धा हिय में धर लें, बतलाया गुरूवर तारण ने ॥
आतम का... ४. यह ज्ञान वैराग्य की धारी है, है विमल निर्मल सुखकारी है। ममल आतम पै अब दृष्टि धर लें, बतलाया गुरूवर तारण ने ॥
आतम का...
भजन- १०३ तर्ज-गुरू बाबा को जिसने ध्याया... भेद ज्ञान को जिसने पाया, आतम का उद्धार हुआ। तत्व निर्णय के द्वारा भैया, उसका बेड़ा पार हुआ। अपने आतम से प्रीति करो.शद्धातम की भक्ति करो,
जय हो प्यारी आत्मन्, जय हो प्यारी आत्मन्... १. अक्षय सुख का खजाना है मेरा चेतन। ज्ञाता दृष्टा अमूरति है मेरा चेतन ॥ राग को तज दिया, धर्म को धारण किया, निर्मोही है संसार से.... विषय भोग को जिसने त्यागा, उसका जय जय कार हुआ। तत्व निर्णय के द्वारा भैया... २. मेरा आतम स्वभाव है मस्ती भरा। समकित रूपी जल से लबालब भरा ॥ आत्म से नेह लगा, कर्म को मार भगा, ध्यान धरना है निज आत्म का... स्वानुभूति को जिसने पाया, उसका ही उद्वार हुआ। तत्व निर्णय के द्वारा भैया... ३. ध्रुव अलख निरंजन है आतम मेरी। रत्नत्रय से विभूषित है सुख की ढेरी ॥ श्रद्धा के सुमन चढ़ा, ध्यान से लौ लगा, यारी की है निर्वाण से... परमातम को जिसने पाया, जग से बेड़ा पार हुआ। तत्व निर्णय के द्वारा भैया...
साधक ध्यान का अभ्यास करने से दैनिक जीवनचर्या में मोह से विमुक्त हो जाता है और ज्यों-ज्यों वह मोह से विमुक्त होता है
त्यों-त्यों उसे ध्यान में सफलता मिलती है।
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भजन- १०४
तर्ज- मन की तरंग मार लो.... काया की सुधि बिसार दो, यह आखिरी जनम ।
परिणाम निज सम्हार लो, यह आखिरी जनम ।। १. क्या लाया था ले जायेगा, इसका तू ज्ञान कर ।
धन सम्पदा तेरी नहीं, अपना तू ध्यान कर ॥
आतम के गुण निहार लो, यह आखिरी जनम...काया की सुधि... २. शंकादि अष्ट दोष हैं, इनका तू त्याग कर ।
मूढताएं शल्य छोड़ दे, आतम को जान कर ॥
भेदज्ञान उर में धार लो, यह आखिरी जनम...काया की सुधि... ३. शुद्धात्मा तेरा सदा, आनन्द कन्द है ।
ज्ञायक है त्रिकाली सदा, धुव चिदानन्द है ॥ अपनी सुरत सम्हार लो, यह आखिरी जनम...काया की सुधि... चेतन स्वभाव शुद्ध है, और निर्विकार है। निज आत्मा मेरे लिये, मुक्ति का द्वार है॥ वीतरागता को धार लो, यह आखिरी जनम...काया की सुधि...
भजन - १०६
तर्ज - बाबुल का ये घर बहना... जिनमती माता का, हुआ दर्श ये सुहाना है।
वैराग्य धार लिया, पहना समकित का बाना है । १. अपनी आतम का, माता ध्यान जब करती हैं। स्वात्म मगन होकर, शिव रमणी को वरती हैं । मां ज्ञान स्वभावी हो, ममल भाव को पाना है ।
जिनमती माता का... २. मां आपके प्रवचन से, हुआ आनन्द भारी है। संयम तप को साधो, मां वयन उचारी हैं । माँ समता की मूरति हो, अनुपम पद को पाना है।
जिनमती माता का... ३. ज्ञान ध्यान तप में, मां लीन जो होती हैं । निजात्म मगन होकर, कर्मों को धोती हैं । शास्त्रों के अध्ययन से, पाया ज्ञान का खजाना है।
जिनमती माता का...
* मुक्तक
भजन - १०५
तर्ज-दीवाना मैं तेरा.... खजाना गुणों का खजाना, सम्यक् श्रद्धा को जगाना। आत्मा को जान के,धर्मपहिचान के,ज्ञानज्योति जगा॥
आत्मा है मेरी, ज्ञान गुण की चेरी, ध्यान से लौ लगा। शील के रंग में, रंग दे चुनरिया...शान्ति उर में ला... हम आये निसई क्षेत्र, आज हम तारण के, चरणों में आये हम। वन्दन को करके, अर्चन को करके, श्रद्धा के सुमन चढ़ा... खजाना गुणों का... २. ममल ये आतम, ध्रुव सहजातम, सिद्धात्मा। आतम शुद्धातम, बनी परमातम, आनन्दात्मा ॥ जन्म-जन्म के दु:खों को मेटो तुम। आत्म ज्ञान से कर्मों को तोड़ें हम ॥ धर्म को धार के, ज्ञान के प्रकाश से, आत्म की ज्योति जगा...खजाना...
ज्ञान का ही पुंज है ज्ञान की ही ज्योति है। कैसे कुछ कहें हम आनन्द की वृद्धि होती है। ऐसे आत्म सिन्धु में गोते लगायेंगे हम । ध्रुव में ही वास करें ध्रुव को ही पायेंगे हम ॥
जब छान के पानी पीता है, रात्रि भोजन नहीं करता है। वो प्रतिदिन मन्दिर जाता है, अभक्ष्य का त्याग करता है। संसार के सब सुख और दुःख उसके दूर हो जाते हैं। वह संयम तप का पालन कर आतम से नेह लगाते हैं।
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भजन - १०७
तर्ज - न झटको जुल्फ से पानी.... आतम मेरी है शुद्धातम, ये शाश्वत पद को पायेगी।
अमर ध्रुवता को लख करके, अमर जग में हो जायेगी। १. ये ध्रुव शुद्धात्म की धारी, लखा है ज्ञान अपने में।
त्रिलोकी को सुमर करके, छूटे हैं जग के सब सपने...आतम... ध्यान आतम का धर करके, की है शिवमग की तैयारी।
परमातम रूप को लख लो, आतम अनुभूति है प्यारी...आतम... ३. ध्रुव सत्ता है को स्वीकारा, ज्ञान से ज्ञान को पाया।
अनुभूति आत्म की लख के, ज्ञान दर्शन में चित लागा...आतम... ४. अमूरति ज्ञानमय सत्ता, अनुपम शान्ति की धारी।
अविनाशी और अमोलक है, दश लक्षण धर्म की क्यारी...आतम... ५. रत्नत्रय की है मंजूषा, अखंड है ध्रुव की निज सत्ता।
तीनों लोकों में अलबेली, काटे कर्मों का अब पत्ता...आतम... क्षमा की ढाल है आतम, सुखों की है महा दरिया। स्वानुभूति के रस को चख, इस भव जंजाल की हरिया...आतम..
भजन - १०८ तर्ज-जिया कब तक उलझेगा... ॐ नम: सिद्धं का मंत्र, अब हमको ध्याना है।
सिद्धों की नगरी में, अब हमको जाना है | १. चौरासी लाख योनि में, कई चक्कर खाये हैं। धुव धाम की धूम मचा, अब निज में आये हैं । निष्क्रिय तू त्रिकाली है, शान्ति तेरी तुझमें । लख अरस अरूपी को, अविनाशी जो मुझमें ॥ सत् चिदानन्द चेतन, शिवपुर को जाना है... ॐ नमः.... २. अनुपम और अमूरति है, निज आत्म ज्ञान शक्ति। सिद्धोहं सिद्धोहं सिद्धोहं की भक्ति ॥ ज्ञान पुंज मेरी आतम, सर्वज्ञ स्वभावी है । दृढ़ता की धारी है, यह ममल स्वभावी है ॥ अक्षय सुख की गंगा, में डुबकी लगाना है ... ॐ नमः.... ३. निज स्वानुभूति रस में, आतम को पहिचाना। अद्भुत अखंड आतम, की प्रभुता को जाना ॥ आतम सुख का सागर, सुख को ही पायेगा । आतम अनुपम गुण लख, स्व में रम जायेगा । आतम शुद्धात्म मयी, यह हमने जाना है... ॐ नमः.... ४. आनन्द परमानन्द के, अब बजे बधाये हैं। दृग ज्ञान मयी आतम, अक्षय सुख पाये हैं । धुव तत्व शुद्धात्ममयी, अविनाशी बाना है । चैतन्य रत्नाकर को, हमने पहिचाना है ॥ ममल स्वभावी आतम का, हमें ध्यान लगाना है... ॐ नमः....
*मुक्तक उन्मुख हुये निज समाधि पर, अब आत्म समाधि लगायेंगे।
अपने ही निज वैभव से, निज वैभव को दरसायेंगे। हम मरण समाधि में लीन रहें. जग से छटकारा पायेंगे। आतम-अनात्म से रहित हुए, अब मुक्ति श्री को पायेंगे।
स्वाध्याय मनन चितम करके आतम को हमने जाना है।
भगवान आटमा म ही है शिव नगरी को अब पामा KI Vधन यया मेस कुछ भी नहीं ये उदय जन्य कर्म कुछ भी नहीं।
ये मलिन भाव अज्ञान जन्य, उनका कती भोक्ता में नहीं । VII1111111111111111111111111111111111111111111111
में स्वयं स्वयं का कता हैपर से मेरा सम्बन्ध नहीं ।
भव अनन्त यों ही बीत पाये, पर अब जाप को कोई कद नहीं । Vपाप विषय कषाय के कारण मन बचन काय पाल अटक रहा (मोह राग मेष में फम करके यह काल अनादि भटक रहा
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भजन - १०९ तर्ज - बाबुल का ये घर बहना.... ज्ञानानन्द जी का, हुआ दर्श ये सुहाना है। वैराग्य धार लिया, पहना समता का बाना है।
बरेली नगरी में, देखो आनन्द छाया है। धन्य हुई नगरी, मोती सा ज्ञान पाया है ॥ मथुरा देवी लाल हुआ, उत्सव सा नजराना है...ज्ञानानंद जी.. २. पूष सुदी दसमी को, ज्ञानानन्द जी का जन्म हुआ। पिता चुन्नीलाल जी की, बगिया में गुलाब खिला || गुलाब के खिलते ही, मिला ज्ञान का खजाना है...ज्ञानानंद जी... ३. होश सम्हाला जब, ज्ञानानन्द नाम पाया। अध्यात्म नगरी में, शुद्धात्म ज्ञान पाया ॥ रत्नत्रयी आतम का, हमें ध्यान लगाना है...ज्ञानानंद जी.. ४. अन्तर से आतम में, इक ज्ञान किरण जागी। राग द्वेष ममता, शल्ये तब सब भागी ॥ आत्म ज्योति प्रगटा के, शिव नगरी जाना है...ज्ञानानंद जी.. ५. गुरू आशीष सदा, मिले अर्ज हमारी है। संसार चक्रों से, अब हम भी हारी हैं ॥ शुद्ध ज्ञान मगन होके, तारण तरण बन जाना है...ज्ञानानंद जी...
भजन-११० आतम आतम जपोगे तो शिवपुर जाओगे।
शिवपुर जाओगे आतम में समा जाओगे | १. ज्ञान तेरा गुण है, अमर तेरी आतम।
अमर तेरी आतम, सुख धारी तेरी आतम...आतम... २. शान्ति तेरी तुझमें, नि:शल्य तेरी आतम। निःशल्य तेरी आतम, ज्ञानधारी तेरी आतम...आतम... ३. निष्क्रिय तू है, त्रिकाली तेरी आतम। त्रिकाली तेरी आतम, निराली तेरी आतम...आतम... ४. अरस अरूपी, अविनाशी तेरी आतम।
अविनाशी तेरी आतम, अनुपम है तेरी आतम...आतम... ५. एक अखंड ज्ञाता दृष्टा तेरी आतम। ज्ञाता दृष्टा तेरी आतम, चेतन दृष्टा तेरी आतम...आतम...
भजन - १११ यह शांत स्वरूप निजातम है,शाश्वत सख को ये पायेगी।
ध्रुव शुद्धातम की सत्ता है, लख शून्य विन्दु हो जायेगी। १. ध्रुव में ही वास सदा होगा, अविनाशी सुख जहां होगा।
अपने ही गुप्त गुफा में वश, ये अजर अमर पद ध्यायेगी...यह... | २. चैतन्य सबेरा भी निज में, शुद्ध ज्ञान बसेरा भी निजमें।
अंतस्तल में आराधन कर, दैदीप्यमान हो जायेगी...यह... ३. चैतन्य पुंज निज आतम की, सत्ता अखंड निराली है।
अनुपम अमृतमय ज्ञान स्रोत पी, ममल हो शिवपुर जायेगी...यह... ४. ये परम तृप्त आनन्द दशा, स्वानुभूति धारी है।
सिद्धोहं सिद्धोहं जपके, सिद्धोहं ही हो जायेगी...यह... ५. कर्ता भी नहीं न भोक्ता है, निस्पृह आकिंचन धारी है।
यह ज्योति पुंज निज आतम ही, परमात्ममयी हो जायेगी...यह...
*मुक्तक* ज्ञान की गंगा बहाये, आप जो इधर से निकले । आतम हित के काज, आप जो घर से निकले ।। धन्य हमारे भाग्य,त्रिभंगी सार सुनाये । परिणामों को सम्हाल, ज्ञान के दीप जलाये ।।
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गारी- ११२ चेतन बात तुम करियो स्वाभिमान की।
ज्योति पुंज अमर ज्ञान की। १. ईश्वर ब्रह्म स्वरूप है मेरा, ज्ञान उदय से हुआ सबेरा। अब निज में चलने की बेरा, जग जंजाल नहीं है तेरा॥ आतम चेतन मयी है सुखधाम की, ज्योति पुंज अमर ज्ञान की.... २. ध्रुव स्वभाव है सिद्ध स्वरूपी, कर्म वर्गणा पुद्गलरूपी। अजर अमर है ब्रह्म स्वरूपी, है अविनाशी अरस अरूपी ।। दृष्टि धरियो तुम अपने धुव धाम की, ज्योति पुंज अमर ज्ञान की... ३. राग द्वेष का करो निवारण, आतम तेरा सुख का कारण । मोह मिथ्या का करो विदारण, कहते हैं यह सद्गुरू तारण || स्वानुभूति में रहियो शिवधाम की, ज्योति पुंज अमर ज्ञान की.... ४. शुद्धातम की करो साधना, हो रत्नत्रयमयी भावना । कर्मों की बेड़ी कट जाना, फिर जग में तुमको नहीं आना ॥
ओंकार स्वरूप निजधाम की, ज्योति पुंज अमर ज्ञान की.... ५. ज्ञान स्वभाव में गोते लगाऊँ. ममल स्वभाव में बह-बह जाऊँ। सरल शांत हो निज में आऊँ, शुद्धातम से ब्याह रचाऊं ॥ शील चुनरी में ओढूँ आनन्द धाम की, ज्योति पुंज अमर ज्ञान की....
गारी- ११३ सुनो आत्म की महिमा चेतन, दिव्य गुणों की खान मोरे लाल। अजर अविनाशी शिवपुरवासी, परमानन्द विलासी मोरेलाल ॥ १. अनुपम और निराली चेतन, ज्ञानानन्द दृगवासी मोरे लाल ।
अमर आत्म की महिमा सुन लो, है चैतन्य की मूरति मोरे लाल ॥ २. शुद्ध गुणों की ढेरी आतम, परमानन्द विलासी मोरे लाल ।
रत्नत्रय से हुई अलंकृत, निज आतम की मूरति मोरे लाल || ३. दीपशिखा सी धारी आतम, त्रिभुवन में है व्यापी मोरे लाल ।
ज्ञान दर्शन और सत्य की धारी, सहजानन्द बिहारी मोरे लाल ॥ ४. अरस अरूपी मेरी आतम, स्वानुभूति उर धारी मोरे लाल ।
आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी, केवल ज्ञान की धारी मोरे लाल || ५. मोह मिथ्या की त्यागी आतम, स्वरूपानंद बिहारी मोरे लाल ।
आतम सुख और शान्ति प्रदाता, सुख सत्ता को पाये मोरे लाल ॥ अनन्त चतुष्टय धारी आतम, परमातम पद पाये मोरे लाल । अलख निरंजन मेरी आतम, शिव नगरी की वासी मोरे लाल | चन्द्र आत्म से अरज करत है, आत्म आत्म में रमाये मोरे लाल ॥
*मुक्तक* ग्रन्थ चौदह का अमर पाठ हुआ भारी है। तारण की दिव्य ज्योति पै बलिहारी है ॥ जिसके सिद्धांत को सुन आत्म ज्ञान जगता है। त्रिकाली आत्म का श्रद्धान अब तो बढ़ता है।
*मुक्तक सेमरखेड़ी बना ज्ञान का दरिया । ज्ञान में गोते लगाओ टूटे मिथ्या लड़ियां ॥ आत्म समन्दर गोते लगाते जायेंगे हम । आत्म शुद्धात्म परमात्ममयी बन जायेंगे हम ॥
चौदह ग्रन्थों को जब देखें, भेद विज्ञान की आँखें। निराकुल शांत रस का पान करती ज्ञान की आँखें । आत्म वैभव के दरिया में तैरती अंतर की आँखें । स्वानुभूति में रहना है, खुली जब ज्ञान की आँखें ॥
निज ज्ञान ही आनन्द का भंडार है चेतन । आनन्द ही आनन्द से परिपूर्ण है चेतन ॥ जाना नहीं देखा नहीं निज ज्ञान में चेतन । यह शुद्ध श्रद्धा ज्ञान का टकसाल है चेतन ।
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भजन - ११४
तर्ज - तूने जानो न धर्म को.... मेरी आतम है अनुपम अनमोल,ज्ञायक है ज्ञान गुण से भरी॥ १. मेरी आतम अरस अरूपी, अविकारी है चेतन ।
यह पुद्गल जड़ नाशवान है, रूपी और अचेतन ॥
इस जग का नहीं है कोई मोल, ज्ञायक है ज्ञान गुण से भरी.. २. अतीन्द्रिय आनन्द धारी आतम, अपने में विलसाय ।
परमामृत की धारी आतम, अपने में रम जायें ॥
निज वैभव का हुआ है अब मोल,ज्ञायक है ज्ञान गुण से भरी... ३. मेरी आतम सिद्ध स्वरूपी, निज को जानन हारी।
ममल स्वभावी मेरी आतम, युग युग से बलिहारी ॥
ज्ञान गुण का हुआ है तोल-मोल, ज्ञायक है ज्ञान गुण से भरी... ४. ज्ञानी चेतन ज्ञान कुंड में, नित प्रति गोते खावे ।
मलिन भाव और समल कर्म तब, पल में क्षय हो जावे ॥ मैं हूँ अरस अरूपी अनमोल, ज्ञायक है ज्ञान गुण से भरी...
भजन - ११५
तर्ज- मेरे ख्वाजा का मेला आया रे... मैंने मन्दिर में दर्शन को पाया रे, निज घर में चैतन्य को पाया रे॥ १. आतम को पाया मैंने निज में लखाया रे।
निज घर में आतम को पाया रे... २. आतम को पाया, आनन्द समाया रे।
ध्यान करने का, शुभ अवसर आया रे... ३. ज्ञान भी पाया, चारित्र भी पाया रे।
रत्नत्रय, गले लगाया रे... ४. दर्शन को पाया, स्वानुभूति को पाया रे।।
__मैं तो निज पद में, हुलसाया रे... ५. मेरा चेतन, आनन्द का प्याला रे।
आनन्द का प्याला, वह ध्रुव का उजाला रे... ६. ज्ञान गंगा में, गोते लगाया रे।
मैंने मन्दिर में, दर्शन को पाया रे...
भजन - ११६ तर्ज - मेरे ख्वाजा का मेला आया रे... मेरी आतम, निज में समाई है। निज में समाई,अन्तर में लखाई है।
निज आतम ने, गुण प्रगटाई है ॥ १.गुण प्रगटाई, निज अलख जगाई है।
आत्म महिमा, अकथ सुखदाई है ॥ निज ज्ञान ज्योति, प्रगटाई है...मेरी.... २. मेरी आतम ममल स्वभावी है ।
ममल स्वभावी वह तो, दिव्य प्रकाशी है ॥
परमातम से नेह लगाई है...मेरी.... ३. नेह लगाया, शुद्धात्म दिखाई है । मेरी आतम, ज्ञान प्रकाशी है ॥
मेरी आतम, अजर अविनाशी है...मेरी.... ४. अजर अविनाशी, वह तो शिवपुर वासी है।
परमातम में, मन को लगाया है ॥ सिद्ध स्वरूप ही, मन को भाया है...मेरी....
*मुक्तक
बसन्त की बहारें लायेंगे हम । ज्ञान की निधि को पायेंगे हम ॥ अब अन्त:करण में इक ज्योति जगी है। कर्मों के दल से निकल जायेंगे हम ॥
निज आतम को पाने को जी चाहता है। उसी में समाने को जी चाहता है ॥ ज्ञान दर्शन का टकसाल आतम हमारा। उसी में खो जाने को जी चाहता है ॥
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - ११७
तर्ज - तुम्हीं मेरी पूजा.... श्रद्धा करूँ मैं, भक्ति करूं मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं। १. निज आत्मा मेरी, सर्वोदयी है।
दृष्टि पसारो तो, परमोदयी है ॥ पूजन करूँ मैं, अर्चन करूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं.... शुद्ध स्वरूपी है, आत्मा हमारी। ज्ञानमयी अनुपम,कर्मों से न्यारी॥ स्वानुभूति रस पान करूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं.... ज्ञान स्वभाव में, गोते लगाऊँ। ममल स्वभाव में, बह बह जाऊँ॥
परमानन्द का ध्यान धरूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं.... ४. मैं उड़ चली अब, सुखों के गगन में।
रत्नत्रयी, आत्मा के लगन में ॥ चतुष्टयमयी आत्म रस को चलूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - ११९
तर्ज - हम तो ठहरे परदेशी..... ज्ञान है स्वरूप तेरा, ज्ञान रूप हो जाओगे ।
ज्ञान की ही महिमा तेरी, ज्ञान में ही जम जाओगे। १. ज्ञान तेरा अमर रूप है, ज्ञान में विशुद्धता भरी। ज्ञान ही को लख ले प्रभु, ज्ञान ही रत्नत्रय लड़ी ॥ ज्ञान को निहार के विभु, ज्ञान में ही रम जाओगे.... २. ज्ञान में नित विश्राम कर, ज्ञान ही में अलख जगा। ज्ञान में ही विचरण कर, अष्ट कर्मों को भगा ॥ ज्ञान की दिव्य ज्योति से, शिव पद तुम पाओगे... ३. आत्मा निज ज्ञान से, ही सदा भरपूर है । ज्ञान ही से ज्ञान को सदा, पाया तो जग दूर है । अलख निरंजन मयी, आतम में रम जाओगे... ४. ज्ञान ने ही ज्ञान से कहा, ज्ञान ने ही ज्ञान से सुना। ज्ञान ने ही ज्ञान को चखा, ज्ञानी की निजानन्द दशा ॥ ज्ञान की ही सहजता से, अनन्त चतुष्टय को पाओगे...
*मुक्तक
विदाईगीत - ११८ जाते हैं गुरूवर अपने नगर से, रोको रे रोको कोई उनको डगर से॥ १. सोचा था गुरूवर हमने, बासौदा में आओगे।
और आकर के, हमें समझाओगे। होगा उपकार मेरा, फिर से पधार के.... रोको रे... २. पास जो रह के, ज्ञान दीपक जलाया। ज्योति प्रकाशक बन के, आत्म ज्ञान पाया। धर्म की वर्षा हुई, आत्म ज्ञान पाके...रोको रे... ३. वचनामृत का पान किया, शुद्ध आत्म ज्ञान लिया। सिद्ध स्वरूपी परमात्म, से लगाया जिया ॥ धीर बंधाओ गुरूवर, शुभ आशीष से...रोको रे... ४. चहुँ दिश यश फैले, यही मेरी भावना। आत्म ज्योति हिय में बसे, यही सद्भावना ॥ मोह ममता छूट जाये, शुद्धातम के ध्यान से...रोको रे...
मेरी आतम की निराली शान है। गर मैं चाहूँ धर्म पर कुर्बान है ॥ सुख दु:ख दाता कोई न जग में है। कर्म की बेड़ी को तोडूं क्षण में है।
प्यारी आतम में समाने का ध्यान करना है। निज से निज को पाने का ज्ञान करना है। इस शरीर के दु:ख में नहीं भरमाना है। इससे मुँह मोड़ अपने आपको ही पाना है।
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
गजल-१२० तर्ज - भ्रम का परदा हटा.... ज्ञान आतम का पाया ये सुख की डगर।
सत् चिदानन्द, आतम में वश जायेगा। १. छोड़ मिथ्यात्व को, जिसमें भटका है तू।
ज्ञान ही ज्ञान में अब तो रम जायेगा ॥ २. मोह और राग में, जो तू भ्रमता रहा।
निज में दृष्टि को रख, भव से तर जायेगा। ३. देख ले जग में अपना तो कोई नहीं।
मित्र परिवार धन से बिछुड़ जायेगा । ४. तू है अनन्त चतुष्टय का धारी प्रभु ।
आत्म ज्योति को लख रत्नत्रय पायेगा ॥ ५. शील संयम के पथ पर गर तू चला।
चेतन दृष्टा परमातम तू हो जायेगा । ६. बीती जाये तेरी, जिंदगानी यही । ___ अजर अविनाशी, पद को तू पायेगा । ७. आत्म अनुपम, अमोलक सदा से रही। शांत आतम में, अब तू समा जायेगा।
भजन - १२१
तर्ज - कस्तूरी तो नाभि में है.... आतम मेरी तो शुद्धातम, काहे जग में भटके रे। अजर अमर अविनाशी है ये, चिदानन्द रत्नाकर रे॥ परमातम का ध्यान किया था, सहजातम श्रद्धान किया।
संयम की लेकर पिचकारी, ज्ञान सिन्धु में डोले रे...आतम... २. रत्नत्रय के बजें बधाये, अनन्त चतुष्टय में आन विराजे।
ऐसा आनन्द आनन्द आनन्द, आनन्द ही में हो ले रे...आतम... ३. चैतन्य ज्योति सिद्ध स्वरूपी, ममल स्वभावी अरस अरूपी।
परमानन्द मयी निज चेतन, अपने में रस घोले रे...आतम... ४. आतम अनुभव कर ओ प्राणी, बीती जाये रे जिंदगानी।
वस्तु स्वरूप को समझ के प्यारे, अपने ही में डोले रे...आतम...
भजन - १२२
तर्ज-बात मोरी सुन लइयो.... ज्ञान इक ज्योति है, ध्यान में होती है, आत्म की सेती है। १. आत्म की, की हमने पहिचान, कि है यह निर्मल गुणों की खान। विलक्षण ज्ञान की धारी, ज्ञान मूर्ति चैतन्य ज्योति सब कर्मों से हारी....ज्ञान... २. मोह मिथ्या ये सब अज्ञान, क्रोध और लोभ औगुण की खान। नरक पशुगति की तैयारी, ध्यान को कर स्वीकार, मान माया को पछारी....ज्ञान... ३. चेतन है दिव्य गुणों की खान, करें रत्नत्रय का गुणगान। अनन्त चतुष्टय का धारी, धुवधाम की धूम मचा, कर ली निज से यारी....ज्ञान... ४. अजर अविनाशी आतम है, ज्ञाता दृष्टा परमातम है। सुख सत्ता की धारी, स्वानुभूति में लीन हुई है, मुक्ति को प्यारी....ज्ञान... ५. आत्म संवेदन गुण की खान, करें किस विधि इसका गुणगान। अनुपम महिमा की धारी, कर्म कलंक मिटाय, अष्टम पृथ्वी से की यारी....ज्ञान... ६. न तुम अब भोगों में फंसियो, चेत चेतन में ही बसियो। आनन्द परमानन्द का धारी, निज सुख में विलसाय, अमर है दृढ़ता की धारी...ज्ञान...
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन- १२३ तर्ज-दिन आयो दिन आयो.... दर्श पायो दर्श पायो दर्श पायो।
मैंने शुद्धातम को दर्शपायो॥ १. अजर अमर अविनाशी पद भाये ।
आतम तेरी महिमा के गुण गाये ॥ मन डोले मन डोले मन डोले । प्यारी आतम में मेरा मन डोले...दर्श... २. आत्म बगीचे में ज्ञान गुण महके ।
आत्मा गुणों में, मगन होके चहके ॥ हर्ष होवे हर्ष होवे हर्ष होवे । निज आत्मा में ही हर्ष होवे...दर्श... ३. विषय कषायों से जिया घबड़ावे ।
स्वानुभूति ही, मन को भावे ॥ ज्ञान पायो ज्ञान पायो ज्ञान पायो । मैंने निज आतम से ज्ञान पायो...दर्श... ४. आतम मेरी सिद्ध स्वरूपी ।
चैतन्य ज्योति अरस अरूपी ॥ लीन हुआ लीन हुआ लीन हुआ । प्यारी आतम में अब लीन हुआ...दर्श... ५. रत्नत्रय को उर में सजाये ।
अनन्त चतुष्टय के बजें बधाये ॥ अनुपम है अनुपम है अनुपम है ।
महिमा आतम की अनुपम है...दर्श... ६. आनन्द से ज्ञान झरोखे में बैठो ।
परमानन्द मयी, सत्ता को लेखो ॥ ज्ञाता दृष्टा ज्ञाता दृष्टा ज्ञाता दृष्टा । मेरा चेतन, निज में ज्ञाता दृष्टा...दर्श...
भजन - १२४ तर्ज- परदेशियों से न अंखियां मिलाना.... निज आत्मा की तू ज्योति जलाना,शुद्धात्मा का लक्ष्य सुहाना॥
निज आतम की अनुभूति में, डूब रहे नित स्वानुभूति में। परमात्म पद का ध्यान लगाना, निज आत्मा की तू ज्योति जलाना॥
ज्योति जलाना स्वानुभूति में समाना...निज आत्मा.. अनन्त गुणों का धारी चेतन, पुद्गल सारा जड़ और अचेतन । स्व-पर का निर्णय हो जाना,निज आत्मा की तू ज्योति जलाना ॥
ज्योति जलाना, श्रद्धा उर में लाना...निज आत्मा... ममल स्वभावी आतम मेरी है, यह शाश्वत सुख की ढेरी । अक्षय सुख का है ये खजाना, निज आत्मा की तू ज्योति जलाना ।।
ज्योति जलाना, शिव सत्ता को पाना...निज आत्मा... वीतराग परमानन्द मयी है, तीन लोक का नाथ यही है । सिद्ध स्वरूप है इसका बाना, निज आत्मा की तू ज्योति जलाना ॥
ज्योति जलाना, स्वानुभूति में समाना...निज आत्मा.
भजन - १२५ आतम निहार अब देर न कर तू प्यारे।
स्व-पर कर पहिचान सदा ये न्यारे॥ १. आतम ही गुणों की खानि, ज्ञान की गरिमा।
करें किस विधि हम गुणगान आत्म की महिमा...आतम... २. आतम की करें सम्हाल,सुखी हो जावे। रत्नत्रय को हम धार, मोक्ष हम पावें...आतम... ३. मत जला क्रोध की अग्नि, हृदय में अपने। ज्ञान नीर से इसको सींच, ज्वलन से बचने...आतम... ४. नरतन पाया अब, आतम हित को कर ले। ममल भाव में गोते लगा, मुक्ति तू वरले...आतम... ५. शुद्धातम देव की महिमा, कही न जाये।
सत्ता इक शून्य विंद में, समा ही जाये...आतम... ६. चेतन चिंतामणी, आतम पै बलि जाऊँ। ___ मैं ध्यान खड़ग को खींच, कर्मों को नशाऊँ...आतम...
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
|१.
भजन - १२६ तर्ज - राखी धागों का त्यौहार.... फंसा है चेतन मोह जाल में, निज पर भेद विचार।
आतम करले तू उद्घार॥ १. पंचेन्द्रिय के भोगों को तू, छोड़ दे मेरे भाई । विषय वासना में फंस करके, अपनी सुधि बिसराई । क्रोध मान माया से झुलसे, लोभ से डूबे मझधार ॥
आतम करले तू उद्धार.... २. काल अनादि भ्रमत बीत गये, आतम को नहिं जाना। स्वर्ग नरक पशुगति में तूने, धरे अनन्ते बाना ॥ अब नरतन को पाकर पगले, समता उर में धार ।।
आतम करले तू उद्धार..... ३. आतम तेरी है हितकारी, ज्ञान सिन्धु में डूबे । जन्म मरण से रहित सदा हो, भव सागर से ऊबे ॥ वीतरागता को धारण कर, मिले मुक्ति दरबार ||
आतम करले तू उद्धार....
भजन - १२७
ध्रुव भावना हे आतम अनुपम दृगवासी, हम शरण तुम्हारी आये हैं। लख भेदज्ञान से अन्तर को, निज स्वानुभूति रस पाये हैं। चिन्मय मूरति मनहर सूरति, ये रूप अलौकिक न्यारा है। अन्तर दृष्टि हो जाने से, निज परिणति में हर्षाये हैं। निज झनक झनक वीणा बाजे, चित्त में उल्लास समाया है। है शांत शिरोमणि दीपशिखा, स्वानुभूति से उर को सजाया है। है राग भिन्न और ज्ञान भिन्न, लख निज दर्शन को पाया है। निज दीप्तिमान ज्योति जागी, निज रास रचाने आये हैं । गुण अपरंपार भरे निज में, लख निज का दर्शन पाया है। है अजर अमर और अविनाशी, अविरल सुख पाने आये हैं। है स्वानुभूति से भरी हुई, चिन्मय सत्ता की धारी है। अनन्त गुणों की मूरति ये, रत्नत्रय से सजाने आये हैं । ॐ नमः सिद्धं को जप करके, सत शील से हदय सजाया है। तीन लोक के ऊपर सिद्ध शिला, हम उसे सजाने आए हैं। आतम अनुपम और विलक्षण है, निज ज्ञानामृत से भरी हुई। अब पूर्णानन्द बिहारी हो, धुव से रास रचाने आये हैं ।
*मुक्तक आत्मा जब कभी परमात्म बन जाता है। कर्म की टूटे लड़ी शुद्धात्मा को भजता है ॥ अय सुनो आत्मा को सुमरने वाले । खुद में खुद ही समाओ तो आत्मा पा लो॥
*मुक्तक*
करना क्या है कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। आत्म शान्ति मिले इसी की चाह करता है । शरीरादि पर है ये सबक रोज मिलता है। इससे नाता तू तोड़ दे, क्यों इससे जुड़ता है।
संसार के सागर से तिरने के मार्ग को तू चुन । मोक्षमार्ग के सारभूत सिद्धान्तों को तू सुन ॥ शास्त्राभ्यास के मनन चिंतन से आत्मा को गुन । बस अन्तर आत्मा में रहे मुक्ति पाने की धुन ॥
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - १२८ तर्ज - तुम रूठ के मत जाना.... आतम को जाना है, ये ही शुद्धातम है।
इसको हम पहिचाना॥ आतम को जानें हम, ये ही सुख का कारण ।
इसमें ही रम जाना॥ राग द्वेष को छोड़ें हम, ये दु:ख के कारण ।
इनमें नहिं भरमाना ॥ सात तत्व को जानें हम, इनसे ही लगन लगी।
इनकी श्रद्धा लाना॥ माया शल्य को छोड़के हमें, मिथ्या त्याग करें।
निदान न उर लाना ॥ नव पदार्थ को जानें हम, धर्म से लगन लगी।
ममल भाव में बह जाना ॥ स्व-पर को जान के हम, भेदज्ञानी बनें।
यह दृढ़ता उर लाना॥ अस्तिकाय की मस्ती में, ज्ञान की ज्योति बढे।
आतम में समा जाना ॥ चन्द्र धर्म को धारो तुम, इस जग से छूटो।
शिवपुर की डगर जाना ॥ तारण तरण मेरे गुरूवर, सुनिये अरज यही ।
इस जग से तर जाना॥
भजन - १२९ तर्ज- चन्दन सा बदन चंचल चितवन.... लागी निज से लगन,हये आत्म मगन,
दृष्टि का अन्तर में ढलना।
अब छोड़के दुनियादारी को,
मुझे सिद्धों की गलियों में जाना॥ अंतर में आतम राम बसे, इसको ही हमने जाना है। निज शांत निराकुलता धारी, इसको हमने पहिचाना है ॥ है राग भिन्न और ज्ञान भिन्न, लख निज दर्शन को पाया है....लगी आतम अनन्त गुण का दाता, अक्षय सुख का भंडारी है। यह अजर अमर और अविनाशी, त्रय रत्नत्रय को पाना है। गुण अपरंपार भरे निज में, लख निज का दर्शन पाया है....लगी.... यह चिन्मय और अनुपम है, शुद्धोपयोग गुणधारी है। थिरता निज की निज में लखकर, परमातम पद को पाना है। ॐ नम: सिद्धं को जप करके, ममल भाव की सुरति जगाना है....लगी...
मुक्तक
अंत:करण से अपनी आतम को चाहते हैं। कैसे वो प्राप्त होवे यह राज चाहते हैं । मेरी अरज को सुन लो वीतरागी गुरूवर । तेरे समान होऊँ यह ज्ञान चाहते हैं।
न जीने की कोई इच्छा है।
न मरने की कोई वांछा है। बस एक धुन है आत्म को प्राप्त करने की। ज्ञाता दृष्टा होके शुद्धात्म नाम जपने की।
ध्यान द्वारा हम आत्म साक्षात्कार करते हैं, आत्म ज्योति का दर्शन करते हैं अथवा यों कहिये कि आत्म तत्व - परमात्म तत्व में लय हो जाता है।
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - १३० तर्ज-अलिन गलिन में बिखरे अमर फल... आतम मेरी सुख की धारी,ज्ञान की अदभत क्यारी हो। ज्ञान की गरिमा, ध्यान की महिमा,लगे अलौकिक क्यारी हो। १. पर में भ्रमत, बहु दिन बीते, अपने को नहिं जाना हो।
लाख चौरासी फिरे भटकते, दुःख में सुरति गंवाई हो॥ २. नरक गति में, औंधे लटके, वैतरणी में पटके हो। वहां से निकल, तिर्यंच गति बोझा भारी ढोये हो ॥ ३. ज्ञान की ज्योति, भूल के अपनी, विषयों में मन लागे हो। मुश्किल से यह नरतन पाया, सुख की आश जहां से हो । ४. इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में, मन में धीर अब धारे हो। चिंता ये जितनी घट जायें, उतनी शान्ति समता हो । ५. कंचन कामिनी कीर्ति में पड़के, अर्ध मृतक सम काया। निज का रूप भुलाकर हमने, बाल तपस्या कीनी हो । ६. ऊपर ऊपर स्वर्ग की रिद्धि. देखत मन अति झूरे हो।
मास छह महिना माला मुरझाई, रूदन करे अति भारी हो । ७. वहां से निकल निगोद में आया, जन्म मरण अठवारा हो। पंच परावर्तन हम करके, बीत्यो काल अनादि हो । ८. अब आई यह मंगल बेला, आतम को पहिचाना हो । धुव अविनाशी ममल स्वभावी, ज्ञान का पहिने बाना हो । ९. भ्रम भ्रान्ति माया को छोड़के, शील चुनरिया ओढी हो। रत्नत्रय की ज्ञान डोर से, शिव मग की तैयारी हो ।
भजन - १३१
तर्ज-बहारो फूल बरसाओ... ज्ञान से ज्ञान को पाओ, यही परमौषधि तेरी।
ध्यान में लीन हो जाओ, मिटे जग की सभी फेरी ॥ १. ये जीवन चार दिन का है, क्षणिक में नष्ट हो जाये। ज्ञान ज्योति को धारा है, अमर पद आत्म ही पाये ।। अजर अविनाशी आतम ही, परम शुद्धात्म है मेरी...ज्ञान... २. परम ओंकार मयी आतम, पंच परमेष्ठी पद धारी। त्रिकाली में मगन होके, करी शिवपुर की तैयारी ॥ अतुल महिमा धारी आतम, अनुपम और अशरीरी...ज्ञान... ३. सिद्ध भगवन्त जैसे ही, स्वाश्रय की धनी आतम । अतीन्द्रिय ज्ञान का धारी, बनी है सिद्ध परमातम || बधाई मिल सभी गाओ, छूटी संसार की फेरी...ज्ञान... ४. आनन्द का नाथ आतम ही, स्वानुभूति का सागर है। त्रिरत्नत्रय की सरिता से, भरी समता की गागर है । जगत में श्रेष्ठ आतम ही, अष्ट कर्मों से न्यारी है...ज्ञान...
भजन - १३२
तर्ज-यूँ हसरतों के दाग.... ज्ञानी ने ज्ञान भाव को, निज में संजो लिये। निज का ही निज से, मिलन हुआ निज में हो लिये। १. आतम मेरी अमृतमयी, सुख से भरी हुई।
वो ज्ञान गुण से पूर्ण, सुख को प्राप्त हो लिये...ज्ञानी... २. मोह राग के बन्धन को, तोड़ना तुझे अभी।
कोई नहीं कुछ भी नहीं, स्वीकार हो लिये...ज्ञानी... ३. जैसे बने तैसे तुझे, सत् मानना अभी।
भ्रम भ्रान्ति और अज्ञान तज, निज में समा लिये...ज्ञानी... ४. निज आत्मा का ध्यान कर, उसमें ही तू समा। अनन्त चतुष्टय को पा, परमात्म हो लिये...ज्ञानी...
*मुक्तक कैसी ये मिथ्या भ्रान्ति कैसे ये विभाव हैं। कैसे ये संकल्प विकल्प और परभाव हैं। तोडूं इनसे नाता, जानूं ज्ञायक स्वभाव है। आत्मा से आत्मा मिले त्रिकाली ये भाव है।
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८९
भजन - १३३
तर्ज हे वीर तुम्हारे द्वारे पर इक दरस....
शाश्वत सुख के वासी नर, शाश्वत सुख को ही पाओगे । शाश्वत सुख तेरा घर आंगन, शाश्वत ही अब हो जाओगे ॥
१.
२.
३.
४.
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
५.
सम्यक् रूपी जल जिसमें भरा, हम तीर्थ उसी को कहते हैं। उसमें ही नित अवगाहन कर, हम सुख शान्ति से रहते हैं ॥ ज्ञान सरिता से अब नेह लगा, अब सर्वश्रेष्ठ हो जाओगे....
आतम अनुपम गुण का सागर, वह सिद्ध भगवंतों जैसा है। न बंधा हुआ न मुक्त हुआ, वह तो जैसे का तैसा है । लख वीतराग मय आतम को, अब वीतराग हो जाओगे.....
यह वीतरागता धर्म महा, शाश्वत सुख को देने वाला । लख ज्ञान सरोवर सरिता को, अमृत मय निर्झर झर वाला ॥ ध्रुव शुद्धातम का आश्रय ले अतीन्द्रिय पद को पाओगे.....
·
अव्यय अक्षय पद का धारी, यह आतम ही परमातम है। अनन्तानन्त गुण का धारी, सर्वज्ञ प्रभु यह आतम है । है अनन्त निधि का संग्रहालय, परिपूर्ण अमरता पाओगे......
आतम मेरी अति सुन्दर है, वह श्रेष्ठ गुणों का धारी है । रत्नत्रय के गहने पहने, समता की अंगूठी धारी है ॥ सत्ता इक शून्य विंद में समा, ध्रुव सत्ता है पर बैठोगे.....
★ मुक्तक ★
आतम है शुद्ध बुद्ध ज्ञान की इक ज्योति है।
अष्ट कर्म विषय कषाय और मलों को धोती है ॥ जब दृष्टि अन्तर में जगे योग्यता का ज्ञान होता है। निर्विकल्प दशा रहे तो अतीन्द्रिय सुख का भान होता है ।
आत्मा मेरी गम्भीर अनन्त शक्ति का निधान है। चैतन्य की प्रतिमा वीतरागी गुणों की खान है ॥ शांत मुद्रा आत्मा की वर्तमान में ही पूर्ण है । त्रिकाली के लक्ष्य से स्वयं में परिपूर्ण है
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
१.
भजन- १३४
तर्ज- तुम अगर साथ देने..... आत्मा आत्मा में रहेगी सदा, ज्ञान गुण को निहारे त्रिकाली सदा । नित्य ध्रुव में रहे, ध्रुव में रमण करे, कमल ममल स्वभावी है सुख से वह लदा ॥
ज्ञान ज्योति हमारी है सुख से भरी, अनन्तानन्त गुणों की ये धारी सदा । निज आतम हमारी है रत्नत्रयी, ज्ञान ही ज्ञान से है विभूषित सदा ॥ ज्ञान में ही रहे मेरी नित साधना, ज्ञान में ही रहे मेरी आराधना...
२. ज्ञान का मार्ग पाया मेरी आत्म ने, ध्रुव से लगन लगाये रहेगी सदा । ज्ञान गुण को संजोया है शुद्धात्म ने, यह तो आतम में रमण करेगा सदा ॥ नन्द आनन्दमयी चिदानन्द है यही, यही सर्वज्ञ स्वभावी है परमात्मा...
३. स्वानुभूति की रसिया मेरी आत्मा, निज में निज से ही निज को पाये सदा । सर्व रिद्धियों का पात्र है मम आत्मा, अक्षय सुख का भंडार रहेगा सदा ॥ ममल मेरा स्वभाव है अमृत मयी, स्वानुभूति में हरदम समा जायेगा...
★ मुक्तक ★
तत्व निर्णय स्व पर भेद विज्ञान की कहानी है। वस्तु स्वरूप विचार के यह बात चित में लानी है । आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा है यह हमने जानी है। रत्नत्रय की डोर से अब हमको मुक्ति पानी है ॥
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
१.
१.
है राजा
भजन - १३५
तर्ज - बहारो फूल बरसाओ... चिदानन्द ज्ञान के धारी.तुम्ही हो शान्ति के झरना।
सम्हालो ज्ञान का वैभव, तुम्हें मुक्ति श्री वरना॥ अनादि से न पाया था, उसे हमने अभी पाया। ज्ञान ही ज्ञान की मूरति, इसे लख आज मैं पाया ।। त्रिकाली को सुमर करके, अष्ट कर्मों को अब हरना...चिदानंद... अमूर्तिक आत्मा मेरी, यही ज्ञाता यही दृष्टा। अजर है और अविनाशी, अनुपम गुण की है सृष्टा॥ ये अद्भुत है विलक्षण है, इसी में लीन अब रहना...चिदानंद... अतीन्द्रिय ज्ञान की धारी, ये निज में निज को पाती है। ज्ञान से ज्ञान में रहकर, उसी में वृद्धि पाती है। निजातम ज्ञान की ज्योति, ज्ञानामृत को सदा चखना...चिदानंद... ये मन वच तन को वश में कर, चेतन में लीन हो जाओ। ममल भावों में नित ही वह, उसी मस्ती में खो जाओ । उसी में हर्षना विलसना, उसी में विगसित होना है...चिदानंद... ममल शुद्धात्म की चर्चा, अलौकिक और न्यारी है। निजातम में रमण करके, खिली रत्नत्रय की क्यारी है। ज्ञान की भावना ऐसी, ज्ञानी को ही सदा करना...चिदानंद...
भजन - १३६ तर्ज- हम जवानी को अपने.... हम आतम से आतम में,सदा को समाये। हम पुद्गल से नाता, तोड़ चले आये॥ है उजाला बहुत ज्ञान की रस्मियों में। है अन्धेरा बहुत अज्ञान की किस्तियों में ॥
ममल भाव की नौका पार लगाये...हम... २. है आतम अनुपम सुख की लड़ी है।
इसे प्राप्त करने स्वयं में अड़ी है ॥ हम अमृत रसायन में डूब-डूब जायें...हम... दर्शन ज्ञान चारित्र से लगन लगी है। भय शल्य गारव माया छूटें भावना जगी है।
निज सिद्ध स्वरूप हमें रास्ता दिखाये...हम... ४. स्वानुभूति की धारा, जिस क्षण भी बहेगी।
शुद्धात्मा हमारी, उसी में रहेगी । निज ज्ञान की सत्ता, हमें पार लगाये...हम... ॐ नमः सिद्धं की धुन सर्वांग चल रही है। ध्रुव ध्रुव की ये धारा ध्रुव धुव में बह रही है। निज सिद्ध स्वरूप हमें मुक्ति बताये...हम...
*मुक्तक किसी के मान और सम्मान से मैं क्यों जूहूं। न्याय की तौल पै रख के मैं बात को बूझू ॥ परिणमन कैसा धरा पै है इसे मैं ही लेखू । टंकोत्कीर्ण आतम के झरने को आज मैं देखू॥
*मुक्तक* न लेना है न देना है न पाना है न खोना है। आतम से आतम को पाकर अन्तर्मुखी अब होना है।
चतुर्गति के दुःख से अगर बचना चाहो हे नर। अतीन्द्रिय आतम के आनन्द में मगन होना है।
आनन्द सागर में डुबकी लगाना है । अपने में अपने से अपने को पाना है । चन्द्र तू चेत जा इस जग में क्या करना है। अक्षय अनन्त स्वानुभूति में अब समाना है।
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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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भजन- १३७ शुद्धातम की पुजारी हो आतम,शुद्धातम की पुजारी।
कर्म प्रकृतियां हारी हो आतम,शुद्धातम की पुजारी॥ १. ज्ञान ध्यान में लीन रहे नित, पुण्य पाप में अब न लगे चित ।
धर्म पर दृष्टि धारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी... २. आर्त रौद्र ध्यानों को तज कर, धर्म ध्यान को नित्य प्रति भजकर ।
त्रय मूढताएं भी हारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी... ३. ज्ञान मार्ग के पथिक बने हम, सिद्ध स्वरूप से पूर्ण सने हम ।
परमातम पद धारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी.... ४. आनन्द सरोवर में डुबकी लगायें, स्वानुभूति में डूब-डूब जायें।
त्रिकाली से की है यारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी...
भजन - १३९ तर्ज - आठों कर्मों के बीच अकेली आत्मा... ज्ञानानन्द स्वभावी है मेरी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा। सहजानन्द स्वभावी है मेरी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा। १. शुद्ध भाव में अलख जगाये, ज्ञान ज्योति की ध्वजा फहराये।
वो तो परमानन्द स्वभावी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा... २. सिद्ध स्वरूप मेरे मन भाये, मुक्ति पुरी का मार्ग दिखाये।
वो तो पूर्णानन्द घन परमात्मा, हां हां परमात्मा... ३. तत्व दृष्टि निज में प्रगटाये, ध्रुव की धुव से रास रचाये।
वो तो चेयानन्द मयी मेरी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा... ४. रत्नत्रय के बजै बधाये, सत्ता शून्य बिन्दु हो जाये।
वो तो केवल सूर्य चमकावे आत्मा, हां चमकावे आत्मा... ५. ममल स्वभाव में गोते लगावे, अमृत रसायन में बह बह जाये।
वो तो चैतन्य ज्योति में समाये आत्मा, हां समाये आत्मा...
*मुक्तक*
भजन- १३८
तर्ज-बहारो फूल बरसाओ.... अनेकों जन्म से स्वामी, आत्म दर्शन को प्यासी थी। मिलायेजन्म अलबेला,सदा से जिसकी आशा थी॥ पाया शुद्धात्म को हमने, अतीन्द्रिय ज्ञान धारी है। अनुपम है विलक्षण है, अद्वितीय निराकारी है। मैं ही आराध्य आराधक, यही सुन्दर अभिलाषा थी...अनेकों... ज्ञान के मार्ग का साधन, आलौकिक और न्यारा है। अटल अविनाशी आतम ने, ज्ञान में ही स्वीकारा है।
परम ओंकारमयी आतम, वो ध्रुव शाश्वत सदा से थी...अनेकों... ३. निजातम देव शास्त्र गुरू है, निजातम ही परम गुरू है।
परम पुरूषार्थ कर अपना, सुधामृत चखते चुरू चुरू है। त्रिकाली से लगाये लौ, यही शुद्धात्म साधना थी...अनेकों...
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रत्नत्रय से विभूषित आत्म की कहानी है । आनन्द कन्द शुद्धात्मा ने यह जानी है ॥ ज्ञानी चेतन आनन्द रस का प्याला है । टंकोत्कीर्ण ध्रुव आतम ही आत्मा का उजाला है ।
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आनन्द रस का पान हम सदा किया करते हैं। निज के वैभव पै ध्यान हम सदा दिया करते हैं। धुव शुद्धात्म में अब नित्य विचरने वालो । अखंड अविनाशी शाश्वत सुख को अब पालो ।।
ध्यान की चरम अवस्था में साधक आनन्द
महोदधि में निमग्न हो जाता है।
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भजन - १४०
तर्ज-आठों कर्मों के बीच... ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हो मेरी आत्मा. हां हां मेरी आत्मा। अजर अनुपम अविनाशी बनी परमात्मा, हां हां परमात्मा ॥ १. सिद्ध स्वरूप में सुरति जगाये, द्रव्य दृष्टि को ही प्रगटाये ॥
वो तो मोहनीय कर्म नशाये आत्मा, हां नशाये आत्मा... २. शुद्ध स्वरूप का ध्यान लगाये, ध्रुव धाम में धूम मचाये ॥
वो तो ज्ञानावरण नशाये आत्मा, हां नशाये आत्मा... ३. निर्विकल्प अनुभव हो जाये, निज सत्ता मेरे मन भाये ।।
वो तो अन्तराय कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ४. ज्ञान ज्योति से ज्योति जलाये, निज से ही निज को ही लखाये।
वो तो दर्शनावरण नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ५. सुख सत्ता का बोध कराये, ज्ञान से ज्ञान में डुबकी लगाये ॥
वो तो वेदनीय कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ६. आनन्दानुभूति रम जाये, केवलज्ञान को प्राप्त कराये ।।
वो तो आयु कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ७. अनन्तानन्त गुणों को पाये, आत्मबोध से उसे सजाये ॥
वो तो नाम कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा... ८. छोटे बड़े का भेद मिटाये, अगुरूलघुत्व नाम वह पाये ॥
वो तो गोत्र कर्म नश जाये आत्मा, हां नश जाये आत्मा...
भजन - १४१ दिख रहा दिख रहा दिख रहा रे, निज आत्मा का वैभव मुझे दिख रहा रे। लुट रहा लुट रहा लुट रहा रे,
ज्ञानामृत का खजाना यहां लुट रहा रे ॥ आतम मेरी है अविनाशी, अजर अमर है दिव्य प्रकाशी। शुद्धातम ही सत्य प्रकाशी, आतम महिमा अगम अथासी ॥ खिल रहा खिल रहा खिल रहा रे, ज्ञान सूर्य मेरा खिल रहा रे, अनन्तानन्त गुणों की धारी, समता की अद्भुत फुलवारी । शुद्ध स्वरूप की दशा है न्यारी, परमातम से करली यारी ॥ मिल गया मिल गया मिल गया रे, निज ज्ञान का दीपक हमें मिल गया रे..! तीन लोक में महिमा न्यारी, रत्नत्रय की निधि है प्यारी। त्रय कर्मों की सेना हारी, आत्म ज्ञान निज शक्ति धारी ॥ ले रहा ले रहा ले रहा रे, ज्ञान सिन्धु में डुबकी ले रहा रे... शून्य स्वभाव की छटा निराली, ध्रुव सत्ता को निज में पा ली। विषय कषायों की टूट रही जाली, मद मूढतायें भी छूटी काली॥ झर रहा झर रहा झर रहा रे, सद्ज्ञान का झरना झर रहा रे...
b *मुक्तक 'ज्ञानी तो ज्ञान में मस्त रहे, उसकी दुनियां सबसे न्यारी।। | उसके भीतर नित प्रति बहती, निज ज्ञान भाव की चिनगारी॥ I चिनगारी ही सोला बनती, जब ज्ञान समुन्दर फूट पड़े IT उस भेद ज्ञान की कणिका से, हम सिद्ध स्वरूप में आन खड़े॥1
*मुक्तक
कैसी आनन्द घड़ी कैसा ये महोत्सव है। ज्ञान वैराग्य का ही निराला उत्सव है। चारों तरफ आनन्द ही आनन्द छाया है। आत्मा के साधकों ने सम्यक्दर्शन पाया है।
वो जुल्म जो हम पर करते हैं, तब रोष हमें आ जाता है। भगवान आत्मा वह भी हैं, यह जान रोष खो जाता है। न जुल्म किसी पर कोई करे, सबकी स्वतन्त्र सत्ता न्यारी। अपने से अपने को जान अरे, अपने से ही तू कर यारी॥
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R.
भजन - १४२ सहजातम निर्विकारी हो आतम, सहजातम निर्विकारी।
परमानन्द बिहारी हो आतम, परमानन्द बिहारी॥ क्रिया कांड से कुछ नहिं होने, वाद विवाद समय नहिं खोने। राग की हो मारा मारी हो आतम, राग की हो मारा मारी ||
सहजातम.... विषय कषायों की महिमा छूटी, शल्य शंक की न बोले तृती। त्रय मूढतायें भी हारी हो चेतन, त्रय मूढ़तायें भी हारी ॥
सहजातम.... त्रिकाली चिदानन्द शुद्धात्मा है,सिद्ध स्वरूपी परमात्मा है। शिव सुख का है धारी हो आतम, शिव सुख का है धारी ॥
सहजातम.... ज्ञान मार्ग के साधक निराले, शुद्ध स्वभाव पै दृष्टि डाले। रत्नत्रय शुचि धारी हो आतम, रत्नत्रय शुचि धारी ॥
सहजातम.... धर्म का सत्य स्वरूप स्वीकारा, ज्ञान सूर्य है सब से न्यारा। अतीन्द्रिय आनन्द का धारी हो आतम, अतीन्द्रिय आनन्द का धारी ॥
सहजातम.... भव भ्रमण का अंत आ गया, तारण तरण ये पंथ भा गया। क्रमबद्ध को स्वीकारी हो आतम, क्रमबद्ध को स्वीकारी ||
सहजातम....
४.
भजन - १४३ तर्ज - तुम अगर साथ देने... प्रीत आतम से मेरी रहेगी सदा, नाता पुद्गल से जोडूं तो क्या फायदा।
ज्ञान का तूने दरिया बहाया सदा, नेह जग से लगाऊँ तो क्या फायदा॥ १. निज आतम की शरणा में मैं नित रहूँ,
राग के भाव आयें तो क्या फायदा । नित्य पूजन करूँ, नित्य अर्चन करूँ, उनके गुण को मैं गाऊँ तो क्या फायदा ॥ ज्ञान का तूने दरिया बहाया सदा,
नेह आतम से लगाऊँ तो यही फायदा.... २. शील संयम धरूँ, स्वात्म मगन रहँ,
आत्म अनुपम अमोलक रहेगी सदा । रत्नत्रय को धरूँ , निज को मैं लखू, ज्ञानामृत का मैं प्याला पियूँगी सदा ॥ तू अनन्त चतुष्टय का धारी प्रभु,
स्व के वैभव को देखे यही फायदा... ३. शुद्ध आतम लखू, ज्ञान निज का चलूँ, रत्नत्रय के ये बाजे बजेंगे सदा । ध्यान आतम धरूँ, शुद्धातम में रहूँ, कमल ममल स्वभावी रहूँगी सदा ॥ तुझसे जैसे बने, तैसे सत् मान ले, भ्रम भ्रान्ति मिटेगी यही फायदा...
मुक्तक कंचन कामिनी कीर्ति को क्या हम अब अपना मानेंगे। माया मिथ्या निगोद में फंस करके क्या निगोद में जायेंगे।
ये शरीरादि कुछ मेरे नहीं, इनसे हम नाता तोड़ेंगे। निज वैभव को लख करके हम, आतम से नाता जोड़ेंगे।
५.
★ मुक्तक अजर अमर आत्म को भजते ही रहेंगे।
वीतरागता में सदा आनन्द करेंगे। 2 ममल स्वभावी हमें बनना ही पड़ेगा। परमात्म पद को प्राप्त अब करना ही पड़ेगा।
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भजन - १४४
तर्ज - बड़ी दूर से आये.... दर्शन को पाये हैं, आतम में ही समाये हैं। तीन लोक में अविनाशी, अमर ध्रुवता को पाये हैं।
ज्ञान की ज्योति है, मिथ्या को हरती है, मिथ्या को हरने से, शिव सुख को वरती है। ये ज्योति, ये ज्योति, ये ज्योति निज में समाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन... २. शुद्ध दृष्टि होती है, आतम को वरती है, आतम को वरने से, भव दु:ख को हरती है। ये दृष्टि, ये दृष्टि, ये दृष्टि उर में समाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन... ३. चिदानन्द ज्ञायक है, कर्म का नाशक है, कर्म नश जाने से, शान्ति सुखदायक है। ये ज्ञायक, ये ज्ञायक, ये ज्ञायक मन को भाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन... ४. ज्ञानी जन कहते हैं, अज्ञान हरते हैं, अज्ञान हरने से, चैतन्य को भजते हैं। ज्ञानीजन, ज्ञानीजन, ज्ञानीजन ज्ञान में समाये हैं, अमर ध्रुवता को पाये हैं...दर्शन...
भजन - १४५
तर्ज - दीदी तेरा.... अब तो आतम से,आतम को ही पाना।
प्यारा चेतन है, अपने में दीवाना॥ १.मैं आतम में सोऊँ, और आतम में जागें।
और आतम से, आतम में ही मुस्कराऊँ ॥ उसी में मैं हरफूं, उसी में मैं विलकूँ । उसी आत्म ज्योति से, ज्योति जलाऊँ ॥ निज आतम में, आतम को ही ध्याना...प्यारा... २. ये कैसा आनन्द महोत्सव हुआ है।
यही अपने आप में, गहरा कुआ है ॥ इसी आत्म सागर में, गोते लगाऊँ। इसी में मैं झू, परमानन्द पाऊँ।
ज्ञान सागर में, गोते लगाना...प्यारा... ३. ये उवन उवन से, उवन आ मिला है।
यही शिव नगर का, अनुपम किला है ॥ ज्ञानानन्द ये ही, सहजानन्द ये ही। आत्मानन्द ये ही, शान्तानन्द ये ही ॥ ब्रह्मानन्द, ब्रह्म में समाना...प्यारा... ४. अनन्त गुण धारी मेरी आत्मा है ।
ये शिव सुख की, दाता ही शुद्धात्मा है ॥ है सिद्ध स्वरूपी, ये ममल स्वभावी । मोह सेना को जीत, हुआ ध्रुव अविनाशी ॥ स्वरूपानन्द में, रम जाना...प्यारा...
*मुक्तक शुद्धात्म की चर्चा सुनने से, आनन्द की सरिता बहती है। आत्मार्थी को वह रोम-रोम में हुलसित हो,
शाश्वत सुख को ही वरती है। ज्ञानी को ज्ञान की गंगा में प्रमुदित हो, नित अवगाहन करना है।
तत समय योग्यता को लख कर, स्वानुभूति से अब मुक्ति श्री को वरना है॥
★ मुक्तक भगवान आत्मा सब ही हैं, यह ज्ञान हमेशा बढ़ता है। हम सब मुक्ति के मार्ग चलें, यह ज्ञान हमेशा कहता है ॥ हे मुक्ति मार्ग के पथिक प्रभो, अब क्यों तुम देर लगाते हो। अब दृष्टि अपनी ओर करो, पर में क्यों तुम भरमाते हो ।
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भजन - १४६ तर्ज - हम परदेशी फकीर, किस दिन.... आतम बड़ी गम्भीर, निज की सुरति रखेगी। धारो मन में धीर, कर्मों से नाहीं डरेगी। आतम की है अमर कहानी, आतम की महिमा हम जानी।
सम्यक्दर्शन नीर, निज की सुरति रखेगी.... सुख सत्ता की धारी चेतन, शुद्ध स्वरूप निहारो चेतन ।
ध्रुवधाम में लगाये जोर, निज में वास करेगी... दृढता की ही मूरति आतम, ज्ञान वैराग्य की धारी आतम।
शिव सुख की दातार, ज्ञान की ज्योति जलेगी.... आतम से आतम में मगन है, चेतन चिंतामणी रतन है।
आनन्द की दिव्य धार, आतम में लीन रहेगी....
भजन - १४८
तर्ज - तेरा मेरा प्यार अमर... आतम तेरी बात अटल, इसका खुद तू निर्णय कर । राग द्वेष तू कभी न कर, अब जल्दी से निज हित कर॥ १. चैतन्य स्वरूपी आत्मा, शुद्धात्म को लखा करे ।
आतम अनात्म की परख, वह सदा किया करे ॥
काम क्रोध में कभी न बह, समता में तू हर क्षण रह, आतम... २. गुरूवर हमें सदा, निज धर्म को बता रहे ।
विषय वासना तजो, सम्यक किरण जगा रहे ॥ आनन्द अमृत को तू चख, ध्रुव आतम को तू अब लख, आतम... माया मिथ्या न रहे, निदान शल्य न रहे। इन्द्रिय भोग न रहे, मान मोह न रहे ॥ निज भावों को निर्मल कर, ममल स्वभावी ही तू रह, आतम...
३.
१.
भजन - १४७ तर्ज-सारी सारी रात तेरी....
आतम हमें शिव सुख को बताये।
अज्ञान से हटाये, हमें निज पद दिखाये रे॥ १. आतम की शरण लही, पाया सुख हमने।
ज्ञान की ज्योति गही, झूठे जग के सपने॥
निज पद बताये, अज्ञान से छुड़ाये रे, भव दु:ख मिटाये.... २. बीत गया मिथ्यातम, पायी ज्ञान की निशानी।
शुद्धात्मा का ध्यान, करले ओ प्राणी॥
वीतरागता का, ज्ञान ये कराये रे, अक्षय सुःख को दिखाये... ३. अजर अमर आत्मा, ज्ञान का सिन्धु है।
चैतन्य चिंतामणी, शिव शून्य बिन्दु है॥
आतम में नित प्रति, अलख लगाये रे, निज ध्यान लगाये... ४. चैतन्य मूरति, मेरी आत्मा है।
ज्ञान की सुरति, शुद्धात्मा है। चौरासी दु:ख से छूटे, मुक्ति सुख दिखाये रे, परमात्म पद पाये...
भजन - १४९
तर्ज - तेरा मेरा प्यार अमर... आतम तेरी प्रीति अमर, अब तू चल अपने ही घर । शुद्धातम है तेरा घर, पर में उलझ न रह रहकर । अजर अमर आत्मा, निज ज्ञान में बहा करे । नन्द और आनन्द की, अन्तर्ध्वनि सुना करे ॥ आत्म रमण का यह उत्सव, इसमें स्वानुभूति कर...आतम... आत्मा शुद्धात्मा, परमात्मा ही हो गई। शल्य विषय छोड़ के, निज ज्ञान में ही खो गई। सिद्ध स्वरूप ही तेरा घर, उसमें ही तू विचरण कर...आतम... अन्त:करण में, मैं सदा, ज्ञानामृत पिया करूं । मैत्री रहे हर जीव से, सद्ज्ञान में बहा करूं ॥ सुख सत्ता धारी चेतन, अब तू सुख को अक्षय कर...आतम... राग मोह को तजो, मोक्ष सुख पै डग धरो। अनन्त गुण हैं आतम के, इनका तुम सुमरन करो॥ रत्नत्रयमयी आतम के, नित्य प्रति तू दर्शन कर...आतम...
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१.
२.
भजन - १५० तर्ज - हम तो चले परदेश.... ज्ञान हमारा देश, हम तो ज्ञानी हो गये, छूट रहा अज्ञान, हम तो ज्ञानी हो गये। आतम मेरा देश, हम स्वदेशी हो गये,
धार दिगम्बर भेष, हम स्वदेशी हो गये। १. हे आतम तेरी प्रीति निराली ।
पर भावों से है तू खाली ॥
धुव है मेरा भेष, हम धुव धामी हो गये, छूट रहा..... २. तू है अनन्त चतुष्ट यवाली ।
ज्ञान गुणों की अमृत प्याली ॥
ममल है मेरा वेश, ममलह ममल हो गये, छूट रहा..... ३. तीन लोक में महिमा न्यारी ।
अतीन्द्रिय आनन्द की धारी ॥ निज ध्रुवता को देख, निज की ध्रुवता पा गये, छूट रहा..... ४. चिदानन्द चेतन है अविकारी ।
परम पारिणामिक भाव का धारी ॥
शुद्ध है मेरा वेश, हम शुद्धातम हो गये, छूट रहा..... ५. स्वानुभूति ही परम सुखारी ।
सिद्ध स्वरूप की छवि है न्यारी ॥
ध्यान मेरा परिवेश, हम तो ध्यानी हो गये, छूट रहा..... ६. आतम तुम रत्नत्रय धारी ।
ज्ञान स्वभावी हो सुखकारी ॥ मुक्ति पुरी है देश, हम शिवगामी हो गये, छूट रहा.....
प्रभाती - १५१ अब चेतन तुम क्यों बौराने, काहे मोह में फंसते हो।
ऐजी काहे मोह में फंसते हो। बीत रही तेरी जिंदगानी, नरभव पा क्यों हंसते हो।
ऐजी नरभव पा क्यों हंसते हो। यह जीवन पानी का बुदबुदा, क्षण में जाने वाला है।
ऐजी क्षण में जाने वाला है। मद मिथ्यात्व कषायें बीती, राग द्वेष को हरना है।
ऐजी राग द्वेष को हरना है। ममल स्वभाव है सत्य सनातन, मुक्ति श्री को वरना है।
ऐजी मुक्ति श्री को वरना है। विषय भोग से तज तू ममता, आवागमन से डरना है।
ऐजी आवागमन से डरना है। चारों गतियों में दुःख भोगे, पग पग मरना जीना है।
ऐजी पग पग मरना जीना है। ध्यान लगा ले अब आतम का, ध्रुव की अलख जगाना है।
ऐजी ध्रुव की अलख जगाना है। तन में रहता है इक आतम, इसका नाम सुमरना है।
ऐजी इसका नाम सुमरना है। समता का तू नित प्याला पी, इस जग से अब डरना है।
ऐजी इस जग से अब डरना है।
★★★ अध्यात्म साधना का मार्गस्वाध्याय, सत्संग, संयम, ज्ञान, ध्यान है।
ध्यान की अवस्था में शरीर अत्यन्त भारहीन मन सूक्ष्म
और श्वास-प्रश्वास अलक्षित प्रतीत होती है। साधक ध्यान का अभ्यास करने से दैनिक जीवनचर्या में मोह से विमुक्त हो जाता है और ज्यों-ज्यों वह मोह से विमुक्त होता
है त्यों-त्यों उसे ध्यान में सफलता मिलती है।
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प्रभाती - १५२ ध्रुव शुद्धात्मा निहार मेरे भाई। यही निज ज्ञान ध्यान में करे सहाई॥ धर्म की महिमा अपार, अनन्त गुण का भंडार ।
संयम तप से, अब लौ लगाई...ध्रुव... आतम निज रस में, निज परमातम चीन्ह।
राग द्वेष छोड़, चैतन्य में समाई...ध्रुव... ज्ञाता दृष्टा है आत्म, चेतन सृष्टा है आत्म।
अनुपम अमूल्य, निराला मेरे भाई...ध्रुव... यह जग है दंद फंद, आतम अतुल अखंड। आतम की महिमा, स्वानुभूति में समाई...ध्रुव...
प्रभाती - १५४ सिरोहं सिद्घोहं सिद्धोहं जपना।
शुद्धात्मा के सिवा कोई न अपना॥ १. भवदधि गहरी अपार, आतम ही खेवनहार ।
आतम ही पूर्ण करे, शिव सुख का सपना...सिद्धोहं... २. आतम में ही आनन्द, आतम ही परमानन्द ।
आतम ही चिदानंद, सहजानंद में रहना...सिद्धोहं... ३. ज्ञान की है दिव्य धार, करती है जग से पार ।
अरस अरूपी, निज आत्मा को भजना...सिद्धोहं... ४. आतम है निर्विकार, अनन्त गुण का भंडार । ममल स्वभाव की, अनुभूति करना...सिद्धोहं...
आतम दृगज्ञान धारी, अक्षय सुख का भंडारी। त्रिरत्नमयी शिवनगरी को वरना...सिद्धोहं...
प्रभाती - १५३ राग द्वेष मिथ्या के, बादल घनेरे ।
आतम श्रद्धान करो, छूटें दु:ख तेरे ॥ १. चिदानन्द चेतन, चिंतामणी को ले रे ।
रत्नत्रय की निधान, मुक्ति को दे रे... २. आतम है अजर अविनाशी, गुण केरे।
आतम को ध्याय मिटे, चौरासी फेरे... ३. शुद्ध बुद्ध सुख समृद्ध, निज गुण के चेरे ।
अनुपम अखंड अतुल, गुण निधि को ले रे... ४. दिव्य ज्योति प्रगट हुई, ज्ञान के उजेरे ।
ज्ञान की है दिव्य धार, दृढ़ता से ले रे...
प्रभाती - १५५ ज्ञान का प्रकाश हुआ, दिव्य ज्योति खोलिये।
अमर हुई स्वानुभूति, रस को तू घोलिये ॥ १. पुद्गल जग दंद फंद, आतम गुणों का पिंड ।
अवगाहन कर उसी में, रत हो डोलिये...ज्ञान... २. ज्ञान पुंज चेतन, प्रकाश पुंज चेतन ।
आतम सत् चिदानन्द, इसको ही टटोलिये...ज्ञान... ३. परमात्मा को जान, करी है निज में पिछान ।
त्रिरत्नमयी आतम के द्वार खोलिये...ज्ञान...
जाग्रत अवस्था में ध्यान अन्तरंग का एक गहन सुख होता है,
जो अनिर्वचनीय है। ध्यान कोई तन्त्र - मन्त्र नहीं है। ध्यान एक साधना है जिसके द्वारा हम अपने भीतर आत्मानन्द उपजाते हैं।
पर का विचार करना ही बुद्धि का दुरूपयोग है, इससे ही भय - चिन्ता - आकुलता घबराहट होती है। बुद्धि का सदुपयोग करके हम वर्तमान जीवन सुख शांति आनंदमय
बना सकते हैं और भविष्य में सद्गति मुक्ति पा सकते हैं।
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प्रभाती- १५६
तर्ज-क्या अक्कल.. आत्म निकन्दन जग दुख भंजन, माधुरी मूरति वाणी । शुद्धातम के हो तुम रसिया, कर अनुभव ओ प्राणी ।। लाख चौरासी फिरे भटकता, धर समता अब प्राणी । अनन्त चतुष्टय का धनी आतम, अब निज रूप पिछानी ॥ शुद्धातम को ध्याय निरन्तर, मारग मोक्ष निशानी । रत्नत्रय को अब तू गहले, है अनुपम सुखदानी ॥
प्रभाती - १५८ चेतन से अब लगन लगाओ, शुद्धातम को वरना है। मद मिथ्यात्व कषायें बीती, राग द्वेष को हरना है। १. ममल स्वभाव है सत्य सनातन, मुक्ति श्री को वरना है। विषय भोग से तज तू ममता, आवागमन से डरना है । २. चारों गतियों में दुःख भोगे, पग पग जीना मरना है। ध्यान लगा ले अब आतम का, ध्रुव की अलख जगाना है। ३. तन में रहता है इक आतम, उसका नाम सुमरना है। समता का तू नित प्याला पी, इस जग से अब डरना है ।
प्रभाती - १५७ जय हो आतम देव तुम्हारी, महिमा अगम अथासी है।
ऐजी महिमा अगम अथासी है॥ गुप्त गुफा में जन्म लियो है, जिनवर ने ये भासी है।
ऐजी जिनवर ने ये भासी है। १. तू है शान्ति समता सागर, आतम में ही लीन सदा। तू ही ज्ञान पुंज की गागर, अपने को तू चीन्ह सदा ।। त्रय कमों से तू है न्यारा, शिव सुख की तैयारी है... जय हो... २. निज आतम में लीन रहे नित,शाश्वत सुख को पायेगी। सुख सत्ता की धारी चेतन, अजर अमर पद पायेगी । आतम से आतम में देखो ज्ञानानन्द बिहारी है... जय हो.. ३. शुद्ध स्वरूप निहार के चेतन, अविनाशी पद पाओगे। सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण की, मुक्ति नगरिया जाओगे || धुव तत्व शुद्धातम हो तुम, ममलह ममल स्वभावी हो... जय हो...
प्रभाती- १५९ निज सत्ता अपनाओ चेतन, मक्ति श्री को वरना है। ज्ञान की डोर ज्ञान से खींचो, ज्ञान ही ज्ञान में रहना है। १. अपने गुप्त गुफा में बैठो, अजर अमर पद पाना है।
अमृत अनुपम ज्ञान स्रोत का, निशदिन प्याला पीना है ॥ २. परम तृप्त आनन्द दशा में, तुमको हर क्षण रहना है।
सिद्धोहं सिद्धोहं जपके, सिद्धोहं ही होना है ॥ ३. द्रव्य दृष्टि का उदय हो गया, कमल कली का खिलना है।
अतीन्द्रिय आनन्द पद की धारी, आतम में ही विलसना है ॥
★★★
*मुक्तक आप आयेंगे जब-जब आपका स्वागत है। आपके यहां आने की बसन्तजी हम सबको चाहत है।
आपके वचनामृत की हमें प्रतीक्षा है। संसार के सागर से तिरें ये इच्छा है।
यह शरीर ही मैं हूं, यह शरीरादि मेरे हैं, मैं इन सबका कर्ता हूं, यह मिथ्या मान्यता ही संसार परिभ्रमण का कारण है। वर्तमान मनुष्य भव में हमें तीन शुभ योग मिले हैं - बुद्धि, स्वस्थ शरीर और पुण्य का उदय तथा इनका सदपयोग - दुरूपयोग करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। बुद्धि का दुरुपयोग करने के कारण वर्तमान जीवन को
अशांत, दुःखमय बनाये हैं और भविष्य के लिये अशुभ कर्मबन्ध करके दर्गति के पात्र बन रहे हैं।
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* शुद्धातम भावना* १. मिल गया शुद्धात्म का गहना, हमारा मिल गया। छा गया शान्ति सुखों का दीप, निज पद छा गया । अमर ध्रुवता की निशानी, देख ली निज आत्म ने । शील समता को निहारा है, मेरी शुद्धात्म ने ॥ अक्षय सुख में वास, निज शुद्धात्मा मेरी करे । मोह मदिरा त्याग, मेरी आत्मा सुख को वरे ॥ २. ज्ञान का दीपक जले, अन्तर में मेरे हे प्रभो। शान्ति सख गंगा बहे. गोते लगाऊँ हे विभो ॥ तू त्रिकाली तू ही निष्क्रिय, तू अनुपम हे प्रभो। तू चिदानन्द तू ही चेतन, तू ही ज्ञायक है विभो ॥ ज्ञान दर्शन चरण का, झरना सदा बहता रहे । अनन्त गुणमयी आत्मा, प्रत्येक क्षण निज में रहे ।। ३. तू स्वयं का ही स्वयं में, तू स्वयं ज्ञानी बने । धार कर संयम की दृढ़ता, तू महाध्यानी बने । ज्ञान की सरिता हृदय में ज्ञान मय नित बह रही। संशय विमोह विभ्रम की, काली घटा अब ढह रही ॥ कर्म संयोगों से बच कर, आई मैं निज धाम में। ज्ञान की ज्योति जलाकर, जाऊँ मैं शिव धाम में । ४. आत्म आनन्द घन का पिंड, सहजानन्द है।
आत्म धुवता को लखो, हो जाय परमानन्द है ॥ ज्ञान की ज्योति जले, दिन रात अंतर में प्रभो । आत्मा मेरी सहज, परमात्मा होवे प्रभो ॥ सत् चिदानन्द ज्ञान का, निज आत्मा में वास हो । प्रत्येक क्षण बढ़ता रहे, निज में ही दिव्य प्रकाश हो ॥ ५. सद्गुरू सत्संग से, शुद्धात्म की पूजा करूँ। आत्म सिन्धु में मगन हो, मैं भवोदधि से तरूँ ॥ भूमिका अनुसार ज्ञानी, परिणमन चलता रहे । आत्म साक्षी से ये ज्ञायक, ज्ञान में बहता रहे ॥ वृद्धि हो आनन्द सहजानन्द, परमानन्द की। चर्म चक्षु से अगोचर, आत्म के रसकन्द की ॥
उर कमल में आनन्द का, स्रोत अब बढ़ने लगा। विमल से होकर ममल, आनन्द अब आने लगा । रत्नत्रय मयी आत्मा, सद्भावना में नित रहे । ज्ञान और आनन्द की, सहकारिता में नित रहे । है त्रिलोकी वीतरागी, ज्ञानगुण की ग्राहिका । ज्ञान में ही नित रहे, वह है स्व-पर प्रकाशिका ॥ ७. ऐसी ही शुद्धात्मा में वास, मेरा नित रहे । ममल स्वभावी आत्म का, दरिया सदा निज में बहे ॥ ज्ञान की सिन्धु हे आतम, तुमको मेरा हो नमन । शील समता धारी आतम, तुमको हो शत्-शत् नमन ।। ज्ञानी को ही ज्ञान में से, ज्ञान का बल छा गया । ज्ञान की ही दिव्य दृष्टि, ध्रुव तत्व मन भा गया । ८. शुद्ध समता भाव से, ज्ञानी सदा ज्ञायक रहे ।
और अतीन्द्रिय ज्ञान में, निश्चल अटल ध्रुव में रहे । निज धर्म के ही वस्त्र पहने, रत्नत्रय आभूषण गहे । नन्द आनन्द में रमण कर, मोक्ष लक्ष्मी को वरे || वीतरागी दशा तेरी, ज्ञान मय ही नित रहे । विकल्पों का कर वमन, तू ज्ञानधारा में बहे ॥ ९. तत्समय की योग्यता, में ही सदा समभाव हो।
अन्तर शोधन में सदा, तेरा ही उग्र पुरूषार्थ हो । बाह्य क्रिया में कभी, आनन्द आ सकता नहीं । अतीन्द्रिय आनन्द में, पर भाव टिक सकता नहीं । धुव अचल शुद्ध स्वभाव में ही, तू सदा गोते लगा। धुव धाम को ही ध्रुव में लखके, सर्व कर्मों को भगा ।। १०. ज्ञान में ही ज्ञान से, दिखता सतत् निज आत्मा । राग द्वेषादि विभावों का, सदा हो खात्मा ॥ रवि की ज्ञान किरण से, ही चमकते हम रहें । ज्ञान बल और ज्ञान ज्योति से, प्रकाशित हम रहें । आत्म ध्वनि को आत्मा में, ही सजगता से सुनें । और अपनी आत्मा के, अनन्त गुण को हम गुनें ॥
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११. दर्शन से ही ज्ञान है, और ज्ञान से चारित्र है। चारित्र की परिपूर्णता ही, शुद्ध मुक्ति पवित्र है ॥ ज्ञान की अनुभूति में ही, अंतर्ध्वनि को सुनो । शून्य बिन्दु में लीन होकर, अपने को ही तुम गुनो । आत्म महिमा के गुणों को, कैसे हम वर्णन करें। आत्म महिमा को सुमर के, हम भवोदधि से तरें । १२. अनुकूलता और प्रतिकूलताओं का कैसा ही जोर हो।
और विषम परिस्थितियों का, ओर हो न छोर हो । ज्ञानी तो ज्ञायक सदा, ज्ञायक सदा ज्ञानी रहे । ज्ञान और वैराग्य की, अनुपम छटा छाई रहे ॥ ऐसा ही दृढ श्रद्धान हो, और ज्ञान भी अविचल रहे । ब्रह्माण्ड भी पलटा करे, तो भी नि:शंक अचल रहे । १३. आतम अनंत गुणों मयी, ध्रुव धाम में जम जायेगी। चैतन्य में ही रमण कर, शिव धाम निज पद पायेगी । स्वरूप में स्थिर रमणता, शीघ्र ही अब आयेगी । क्षपक श्रेणी मांड आतम, मुक्ति पद को पायेगी । शरीरादि संयोग न्यारे हैं, सदा न्यारे दिखें । ज्ञानी को निज आत्मा में, लहर आतम की दिखे । १४. स्वात्म रस में लीन होकर, स्वात्म रस को ही चखे । शुद्धात्मा की सुरत रख, निज आत्म अनुपमता लखे । ज्ञान की अनन्त पर्यायें, ज्ञानी को दिख रही । ज्ञानी की ही ज्ञानधारा में, सतत् वह बह रहीं ।। ज्ञान के ही साधकों ने, ज्ञान का रस चख लिया । ज्ञान में होकर समर्पण, ज्ञान को ही भज लिया । १५. ज्ञान में निज सिद्ध प्रभु को, मैं सदा देखा करूँ। शुद्धात्मा में मगन होकर, मैं भवोदधि से तरूँ ॥ हे वीतरागी आत्मा, तुझको सदा भजती रहूँ । तुझसे सदा निज मैत्री कर, निज ममलता में मैं बहूँ ॥ आत्मा रंग रूप से न्यारा, सदा न्यारा रहे । पांच इन्द्रिय और विषयों से सदा न्यारा रहे ॥
१६. अंग और उपांग, आतम से बहुत ही दूर हैं। राग द्वेषादि विभावों से भी अति ही दूर है ॥ ज्ञेय भी निज आत्मा, उपादेय भी निज आत्मा । ज्ञायक तो ज्ञायक रहे, निज ज्ञायक है शुद्धात्मा ।। ज्ञान अद्भुत है अचल, और ज्ञान निर्विकारी है। चिदानन्द चैतन्य पर, ज्ञानी ने दृष्टि डाली है ॥ १७. ज्ञानी को तो स्वप्न में भी, स्व-पर निर्णय भासता। कैसा भी होवे परिणमन, उसको कभी न आंसता ।। वर्तमान के समय को ही, वह सदा निज में लखे । भेदज्ञान और तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप में नित बहे ॥ द्रव्य दृष्टि होकर अब, ममल स्वभाव में विश्राम हो । शील समता की धनी, आतम में ही आराम हो । १८. तीनों लोकों से ही न्यारी, मेरी है निज आत्मा। कर्म सब निर्जरित होंगे, मैं बनूं परमात्मा ॥ शुद्ध सम्यक् से भरा, मेरा हृदय परिपूर्ण है । निज आत्मा पुरूषार्थ करने में, सदा तल्लीन है । उग्र पुरूषार्थ के द्वारा, होगी निज की साधना । बंधन टूटें इक पलक में, हो सतत् आराधना ।। १९. दिव्य दृष्टि खोल देखो, तुम स्वयं परमात्मा। ध्यान में एकाग्र होना है, तुझे शुद्धात्मा ॥ अतीन्द्रिय आनन्द का, धारी है निज परमात्मा । और अनन्त चतुष्टयी, ज्ञानी सकल परमात्मा ॥ राग द्वेषादि विकारों से, रहित अविकार है । रत्नत्रयालंकृत चिदातम, गुणों का भण्डार है ॥ २०. सिद्ध स्वरूपी आत्म की, महिमा स्वयं में पूर्ण है। ज्ञान और आनन्द का, सागर स्वयं परिपूर्ण है ॥ पात्रता जितनी पकेगी, वह चले मुक्ति नगर । परिपूर्ण शुद्ध धुवधाम पर ही, उसकी है सम्यक् नजर | ममल स्वभावी आत्मा में, ही सदा वह रत रहे । ज्ञान का मारग सदा सूक्ष्म, निरालम्बी रहे ॥
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२६. ॐ नम: सिद्ध मंत्र जप, का ही ध्यान लगायेंगे। डूबकर अपने में हम, परमात्म पद को पायेंगे । शांत समता धारी आतम, को सदा दरसायेंगे । ज्ञान वैभव निज में लखके, वीतराग बन जायेंगे ।। क्रान्ति आई निजातम में, शंखनाद करायेंगे । शून्य बिन्दु में समाके, ज्ञान में रम जायेंगे ॥
२१. लोक मूढता को न देखा, न देखी देव मूढता । शंकादि अष्ट दोष तजके, तजी पाखंड मूढता ।। अनायतन और अष्ट मद को, भी जिन्होंने तज दिया । कर्म मल से हो रहित, चिद्रूप को ही वर लिया । ज्ञानी शुद्ध चैतन्य, के महलों में नित विचरण करे ।
और जग के सकल दोषों, का ही परिमार्जन करे ।। २२. ज्ञानी का ज्ञायक अवलम्बन, ही विशेष समाधि है। चेतन स्वरूप में लीन होवे, छूटे जग की व्याधि है । रागादि विषय कषाय से, अब दूर अपने को करो । आरम्भ परिग्रह त्याग के, अब शान्ति सुख को ही वरो । निज स्वरूप में ही विचरना, स्वयं की अनुभूति है। ज्ञानी पंडित ही हमेशा, करते स्वानुभूति है ॥ २३. देह देवालय वसे, शुद्धात्मा को जान कर । लखते रहें निज आत्मा, शुद्धात्म को पहिचान कर ॥ शुद्धात्मा का जागरण ही, भवोदधि से पार है। भव भ्रमण के अंत होने का, ये सच्चा द्वार है ॥ भव्य अब तू ज्ञान रूपी, अमृत रस का पान कर । चैतन्य रस का पान करके, मोह ममता को तू हर | २४. सद्गुरू आनन्द से, अमृतमयी वाणी पिला । भव भ्रमण का अंत करते, झांको शुद्धातम किला || धर्म का श्रद्धान और, बहुमान जागे ही सदा । आत्म के अनुभव में रहना, ही निराकुलता सदा ।। द्रव्य की स्वतंत्रता, स्वीकारना पुरूषार्थ है । निज की प्रभुता को जगाना, आत्म का परमार्थ है ॥ २५. शुद्ध चेतन ध्रुव स्वभावी की, सदा पूजा करे। शुद्ध चिदानन्द मूर्ति आतम, मुक्ति लक्ष्मी को वरे । शुद्धात्म का चिन्तन मनन, करना ही सच्चा धर्म है। शुद्धात्मा के लक्ष्य से, मिटते सभी के भर्म हैं । अन्तर में चैतन्य की, प्रभुता का श्रद्धान है । और अखंड अभेद, परमातम का सत् श्रद्धान है ॥
सतत् प्रणाम चिदानंद धुव शुद्ध आत्मा, चेतन सत्ता है भगवान । शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञायक, ब्रह्म स्वरूपी सिद्ध समान ।। निज स्वभाव में रमता जमता, रहता है अपने धुवधाम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। कर्मों का क्षय हो जाता है, निज स्वभाव में रहने से । सारे भाव बिला जाते हैं, ॐ नमः के कहने से ||G शुद्ध ज्ञान दर्शन का धारी, एक मात्र है आतमराम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। तीन लोक का ज्ञायक है, सर्वज्ञ स्वभावी केवलज्ञान । निज स्वभाव में लीन हो गये, बनते हैं वे ही भगवान ।। भेद ज्ञान तत्व निर्णय करके, बैठ गया जो निज धुवधाम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। वस्तु स्वरूप सामने देखो, शुद्धातम का करलो ध्यान । पर पर्याय तरफ मत देखो, जो चाहो यदि निज कल्याण ॥ निज घर रहो निजानंद पाओ, पर घर होता है बदनाम | तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।।
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आध्यात्मिक चिंतन बोध
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* आध्यात्मिक चिंतनबीच * (अध्यात्म रत्न बाल ब्र. पू. श्री बसंत जी महाराज
के प्रवचनों से संकलित)
दारा - कु. समीक्षा डेरिया गंजबासौदा १. अध्यात्म धर्म ही सारभूत है, जड़ पदार्थों की आसक्ति से युक्त जीवन में आनंद
के पुष्प नहीं खिलते । भौतिक वस्तुओं की प्रीति पूर्वक बाह्य जगत से प्रभावित होकर जीव धर्म मार्ग से विमुख हो रहा है, धर्म मार्ग से विमुखता ही दुःख और अशान्ति का कारण है। “संयोगानाम् वियोगश्च" जो संयोग हैं वे नियम से छूटने वाले हैं, जीव उनमें तो प्रीति पूर्वक ममकार और अहंकार करता है और जो शुद्धात्म तत्व शुद्ध ज्ञान चेतनामयी सदा शाश्वत है, उसे भूलकर अध्यात्म धर्म
से विमुख हो रहा है जबकि बिना अध्यात्म के जीव सुखी नहीं हो सकता। २. देह देवालय में विराजमान आत्मा ही परमात्मा है, प्रत्येक आत्मा कारण परमात्मा
स्वरूप है। शुद्धात्म तत्व आत्मा का स्वभाव त्रिकालवर्ती शुद्ध है, वह किसी भी पर्याय में रहे, किसी भी अवस्था में रहे, स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता । यही शुद्ध स्वभाव आत्मा का शाश्वत स्वभाव है। स्वभाव से प्रत्येक आत्मा परमात्मबत् है । जो जीव इस सत्य को स्वीकार कर अपने स्वभाव का निश्चय करता है वही जीव संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त
करता है। ३. शरीर में आत्म बुद्धि होने को मिथ्यात्व कहते हैं, मिथ्यात्व ही सबसे बड़ा पाप है,
इसी के कारण जीव हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह इत्यादि अनेक पाप
करते हैं। ४. मोह राग द्वेष के कारण तृष्णा, परिग्रह और ईर्ष्या की भावनायें मन में उत्पन्न
होती हैं। मन के भाव अज्ञान जनित हैं जो शुद्धात्म स्वरूप की शरण ग्रहण करने पर मिटते हैं। इस महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने के लिये आत्मा का उपयोग आत्मा में ही लगाना है, तभी अनादि से बंधे हुए कर्म बंधनों से छूट पायेंगे | मोह रागादि विभाव परिणामों से जीव ने जिन कर्मों का उपार्जन किया है वे ध्यान
रूपी अग्नि के द्वारा ही नष्ट हो सकते हैं। ५. जो जीव संसार से वैराग्य का चिंतन करते हैं वे वैराग्यवान जीव संसार को भय
और द:खों का घर जानते हैं, संसार क्षणभंगुर, असत्य, अशास्वत है. संसार के इस सत्य स्वरूप को विरक्त जीव ही जानता है। रागी जीव संसार में फंसा हुआ, संसार के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता । "संसरणमेव संसारः" संसरण
ही संसार है। जीव मिथ्यात्व, कषायों से युक्त होकर चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता है, अनेक शरीरों को क्रमश: ग्रहण करना फिर छोड़ना इस परिवर्तन को संसार कहते हैं। जिस धन का हम परिग्रह कर रहे हैं, यह धन सुख का कारण नहीं है। धन के उपार्जन में द:ख, धन की रक्षा में द:ख, धन के खर्चा होने में द:ख और चोरी चला जाय तो अति दु:ख होता है। जिसके आदि, मध्य, अन्त सभी दुःखमय हैं ऐसा धन सुख का कारण कैसे हो सकता है ? जीव, धन से सुख प्राप्त होने की मिथ्या कल्पना संजोये हुए है इसी कारण सुखी नहीं हो पाता और धर्म के
मर्म को भी उपलब्ध नहीं हो रहा है। ७. जो संसार शरीर भोगों से विषय वासनाओं से विरक्त हो, अपरिग्रही हो, पाखण्ड
रहित हो, ज्ञान ध्यान तप में लीन, निर्ग्रन्थ, कषायों की ग्रन्थि जिसके अंतस में न हो, वही सच्चा गुरू है, ऐसे सच्चे गुरू की शरण में जाने से ही आत्म कल्याण का मार्ग प्राप्त होता है। जो संसार सागर से स्वयं तरे तथा अन्य जीवों
को भी संसार से पार लगाये वही सच्चा गुरू है। ८. सच्चे गुरू 'आप तिरै पर तारें' की उक्ति को चारितार्थ करने वाले लकड़ी की
नौका की तरह होते हैं जो स्वयं भी तरते हैं और जगत के जीवों को भी तारते हैं। कुगुरू 'जन्म जल उपल नाव पत्थर की नौका की तरह 'आप डुबन्ते पांडे ले डूबे जिजमान' की उक्ति को चारितार्थ करते हैं। जो संसार सागर में स्वयं डूबते हैं और उनकी शरण में जो जीव जाते हैं वे भी संसार में भटकते हैं। व्यवहार से सच्चे गुरू निर्ग्रन्थ दिगम्बर भावलिंगी संत हैं। जो जीवों को सन्मार्ग में लगाते हैं इसलिये सच्चे गुरू की शरण ग्रहण कर अपने कल्याण का मार्ग
बनाना चाहिये। ९. इन्द्रियों के विषय-भोगों में लिप्त प्राणी अपना कल्याण नहीं कर पाता, अज्ञान
वश जीव विषय बासनाओं की पूर्ति करने में ही सुख मान रहा है। वैराग्य भाव का जागरण ही आत्म कल्याण का सोपान है। आत्मार्थी साधक को प्रशम, संबेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य भाव सहित आत्म साधना के अंतर्गत-संवेग भाव की दृढ़ता के लिये संसार के स्वरूप का और वैराग्य भाव जगाने के लिये शरीर के स्वरूप का विचार करना चाहिये । वैराग्य भाव से ही जीव के मोह और
संसार के बंधन शिथिल होते हैं।। १०. प्रत्येक आत्मा परमात्म स्वरूप है, जिस प्रकार बीज में वृक्ष छिपा होता है उसी
प्रकार आत्मा में परमात्म शक्ति विद्यमान है। जिस प्रकार बीज को अनुकूल संयोग मिलने पर उसमें अंकुरण होता है और वह वृक्ष बनने तक की अपनी
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आध्यात्मिक चिंतन बोध
आध्यात्मिक चिंतन बोध
यात्रा पूर्ण करता है इसी प्रकार सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र का पालन करते हुए जीव को अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्राप्ति होने पर वह परमात्म पद को प्राप्त करने की अपनी आध्यात्मिक यात्रा पूर्ण करता
है, निज स्वरूप में लीन होकर परमात्म पद प्राप्त कर लेता है। ११.जीव ने अपने कर्मों का जो उपार्जन किया है उसके अनुसार फल भोग रहा है,
यदि शुभ कर्म किए हैं तो वर्तमान में अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हुई हैं, जीव शांति का अनुभव कर रहा है और अशुभ कर्म किये हैं तो वर्तमान में प्रतिकूल परिस्थितियां मिली हैं तथा जीव अशांति का भोग कर रहा है। किसी जीव के कर्मों का फल कोई दूसरा जीव नहीं भोग सकता, प्रत्येक जीव स्वोपार्जित कर्मों के फल को ही भोगता है। यदि जीव दूसरे के द्वारा दिये हुए कर्मों के फल
को भोगे तो स्वयं के द्वारा किये हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे। १२. परमात्मा के दो भेद हैं :- सकल परमात्मा और निकल परमात्मा । शरीर
सहित होने से अरिहंत भगवान सकल परमात्मा हैं और शरीर रहित होने से सिद्ध भगवान निकल परमात्मा हैं । केवल ज्ञान ऐसा परम प्रकाश रूप ज्ञान सूर्य है जिसमें सम्पूर्ण जगत दर्पण बत् प्रकाशित होता है। परमात्मा-सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा, साक्षी हैं, कर्ता नहीं हैं, मात्र ज्ञाता-दृष्टा हैं । जीव स्वयं ही कर्म करता है, स्वयं ही उनके फल को भोगता है। जीव अपने ही सत्पुरुषार्थ के
द्वारा कर्म के बंधनों से और संसार के जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है। १३. प्रत्येक जीव अपने भाग्य का विधाता स्वयं है, कोई किसी को सुख-दुःख देने
वाला नहीं है, समस्त जीव अपने-अपने पुण्य-पाप कर्म के अनुसार सुख-दु:ख रूप फल भोग रहे हैं। संसार के विस्तार का प्रमुख कारण अज्ञान
और मोह है। जहां तक 'मेरा-मेरा' ऐसी भावना है वहां तक मोह है, मोह के कारण ही विकार उत्पन्न होता है। राग भाव जीव को संसार में डुबाता है और विरक्ति का भाव जीव को संसार सागर से पार लगाता है। राग के समान संसार में दूसरा कोई दु:ख नहीं है और त्याग वैराग्य के समान दूसरा कोई सुख
नहीं है। १४. गृहस्थ श्रावक का जीवन एक तपोवन है, जहां रहते हुए धर्म की साधना
आराधना के बल से उसे अपना जीवन निखारना है, इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये तीन आधार आवश्यक हैं :- सच्ची श्रद्धा, सद्विवेक और सम्यक्
आचरण । श्रावक के जीवन में आचरण, विचार, क्रिया की प्रमुखता रहती है, इस सत्य मार्ग पर चलते रहने के अभ्यास पूर्वक ही श्रावक, श्रमण बनता है। भारतीय संस्कृति में इस सम्यक् आचरण को ही धर्म कहा गया है।
१५. जिन जीवों ने अध्यात्म को स्वीकार किया उन्हें ही आत्म दर्शन हुए हैं वही
ज्ञानी परमात्म पद प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं । ज्ञानी जानता है कि जो अरूपी है और चैतन्य है वही मैं हूँ, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्णवान है वह पुद्गल है वह अणु हो या स्कंध, वह मैं नहीं हूँ और जो अरूपी है किन्तु अचैतन्य है वह भी मैं नहीं है वे धर्म अधर्म आकाश काल भी चेतना रहित है। मैं चैतन्य तत्व
साक्षी ज्ञायक सदाकाल अबिनाशी सत्य स्वरूप हूँ। १६. निराकुल सुख और आनन्द में रहना चाहते हो तो दृश्य और दृष्टा में, ज्ञेय और
ज्ञाता में स्पष्टतया भेद करके जानों, यह एक नहीं हो सकते, इन्हें एक मानना ही अज्ञान मिथ्यात्व है। दृश्य परिवर्तनशील हैं, बदलते रहते हैं, किन्तु दृष्टा, दर्शक मात्र है वह दृश्य की तरह कभी नष्ट नहीं होता । ज्ञेय तो सम्पूर्ण लोक है किन्तु ज्ञाता, ज्ञेय रूप पर पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। जब ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय तीनों अभेद हो जायें वहीं ध्रुब स्वभाव रूप निज भगवान का उदय होता है। इसलिये एक ही दृष्टि बनाओ।
'ध्रुव स्वरूप हूँ मैं सुख धाम, ज्ञाता-दृष्टा आतमराम' १७.धर्म चर्चा, तत्व चिंतन, आत्म साधना, सत्संगति में हमारा जितना समय
व्यतीत हुआ, उतने समय का यथार्थतया सदुपयोग हुआ जानना चाहिये और राग-द्वेष को बढ़ाने वाली व्यर्थ चर्चाओं में, कलह और खोटी संगति में जो समय व्यतीत होता है वह समय का दुरूपयोग है। इस जीवन के क्षण अत्यंत बहुमूल्य हैं, अत: एक-एक क्षण का सदुपयोग करना चाहिये, क्योंकि मनुष्य भव से ही आत्मा का उद्धार हो सकता है, अन्य गतियों में ऐसी योग्यता प्राप्त नहीं होती, इसलिये अपने आत्म कल्याण का मार्ग बना लेने में ही नर जन्म
प्राप्त करने की सार्थकता है। १८. जैसा वातावरण मिलता है, जैसे संयोग मिलते हैं, मन में उसी प्रकार के
शुभ-अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं, उन भावों के अनुसार ही कर्म का बंध होता है। वर्तमान में जीव का पुरूषार्थ यही है कि अशुभ भावों से बचते हुए शुभ भावों में प्रवृत्त रहे, क्योंकि शुभ भावों की भूमिका में ही धर्म की प्राप्ति होती है। मानव-मन सहित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव है, वह विवेकवान होता है, अत: प्रत्येक क्रिया विवेक पूर्वक करना चाहिये इसलिये कि शुभ भाव से पुण्यानव होता है और अशुभ भावों से पाप आस्रव होता है और शुद्ध भाव रूप निर्मल
ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। १९.अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से योग्यता नहीं झलकती, योग्यता-वाणी,
आचरण और व्यवहार से प्रगट होती है। जो व्यक्ति आत्म प्रशंसक होते हैं,
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दूसरे की प्रशंसा सुनकर उन्हें ईर्ष्या होने लगती है और दूसरों की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या के शिकार हो जाना आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी है। अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरों की निंदा करना, दूसरों के सदगुणों को ढकना और असद्गुणों
को प्रगट करना इससे नीच गोत्र कर्म का आस्रव होता है। २०. जिस प्रकार फूल खिलता है तो उसकी सुगंध चारों ओर फैलती है और कोई
दुर्गधित वस्तु सड़ रही तो उसकी दुर्गंध फैलती है, इसी प्रकार गुणवान व्यक्ति का यश सहज ही चहुंओर विकसित होता है और दुर्गुणी व्यक्ति अपयश का पात्र बनता है। आत्म स्वरूप की श्रद्धा, विश्वास हो और रागादि दोषों को साधना के द्वारा दूर करने पर आत्म गुणों का विकास होगा, यह गुणों का विकास ही आत्मबल को जागृत करता है जो पर्यायी बंधनों और मन के विकारों से मुक्त होने का
उपाय है। २१. संसार और मोक्ष अपनी दृष्टि पर ही निर्भर रहते हैं, दृष्टि का परोन्मुखी होना ही
संसार और दृष्टि का आत्म स्वभाव की ओर होना मोक्ष मार्ग का प्रारम्भ है। दृष्टि के परोन्मुखी होने से रागादि भावों की प्रबलता होती है, मन सक्रिय होता है जिससे कर्म आश्रव और बंध होता है। दृष्टि आत्मोन्मुखी रखो इससे मुक्ति का मार्ग बनेगा और आत्मोन्मुखी दृष्टि होने से मन की सक्रियता मिटती है तथा कर्मो
का संवर और निर्जरा होती है। २२. सुखी होना है तो दु:ख के मूल स्रोत को जानकर उससे मुक्त होना होगा, आत्मा
स्वयं सुख स्वरूप है किन्तु अपने सुख स्वरूप का बोध न होना ही अज्ञान है। अज्ञान से मोह उत्पन्न होता है, मोह से इच्छायें पैदा होती हैं, इच्छाओं से आकुलता-व्याकुलता उत्पन्न होती है, यह आकुलता-व्याकुलता ही दुःख है। सुखी होना है तो अज्ञान को दूर करो अर्थात् शरीरादि संयोगों से भिन्न मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, ऐसा स्वीकार करो, इसी श्रद्धा में दृढ रहो । अज्ञान का नाश और सम्यकज्ञान का प्रकाश ही सच्चे सुख का
उपाय है। २३. सहनशीलता का अभाव मनुष्य के अंतरंग में धैर्य को नष्ट कर देता है। परिवार
और समाज में धैर्य के खो जाने से नारकीय वातावरण बनने में देरी नहीं लगती, छोटी-छोटी सी बात में चिड़चिड़े से हो जाना अधीरता की निशानी है। जिस परिवार में कलह और अशांति का वातावरण रहता है वहां नरक है। जिस परिवार में जीवों के मन में समता शांति, प्रेम स्नेह, एक-दूसरे की भावनाओं का आदर
और सम्मान होता है वहीं स्वर्ग है । स्वर्ग और नरक जीव की भावनाओं से बनते हैं। इस जन्म में किये हुए पुण्य-पाप का फल भोगने के लिये उसे स्वर्ग और नरक
में जाना पड़ता है, जो जीव वर्तमान में जैसा जी रहा है इससे ही उसके भविष्यत्
जीवन का फैसला होता है। २४. परिस्थितियां जीव को सुखी-दु:खी नहीं करती, अनुकूलता-प्रतिकूलताएं भी
जीव को सुखी-दु:खी नहीं करती, सुख और दु:ख होने में प्रमुख कारण ज्ञान और अज्ञान है। इसीलिये आचार्य सद्गुरू तारण स्वामी जी महाराज ने सूत्र दिये हैं:ज्ञान प्रमाण सुख, अज्ञान प्रमाण दुःख और अनुभव प्रमाण मुक्ति । जिस जीव के अंतरंग में जितना-जितना सम्यक् ज्ञान प्रकट होता है, वह उतना ही सुखी होता जाता है। जिस जीव के अंतर में अज्ञान जितना गहन होता है वह उतना ही दु:खी रहता है। संसारी जीवन में सुखी होने के लिये सत्-असत् का विवेक जागृत करना अनिवार्य है। सत्-असत् का विवेक जागृत होते ही भय
और शंकायें नष्ट हो जाती हैं और भेद भाव भी मिट जाता है। २५. जो मनुष्य, मानव देह प्राप्त करके इसका वास्तविक लाभ नहीं उठाता और पशु
या पिशाचवत् भोगों के उपार्जन और भोग भोगने में ही लगा रहता है उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ चला जाता है, केवल व्यर्थ ही नहीं जाता बल्कि विषयों की भोग कामना से मनुष्य का विवेक ढक जाता है और वह भोगों की प्राप्ति के लिये
अनेकों पाप कमों में प्रवृत्त होकर दुर्गति की राह बना लेता है। २६. भोग क्षणमात्र के लिये सुख रूप और अनन्त काल के लिये दु:ख देने वाले अनर्थों
की खान हैं इसलिए परम धर्म की प्राप्ति करना ही एक मात्र कर्तव्य है। सत्य स्वरूप शुद्धात्मा की साधना आराधना से ही यह जन्म सफल होगा। विषय भोगों को इस जीवन का लक्ष्य समझकर उन्हीं को प्राप्त करने में जीवन लगाना तो
अमृत के बदले में जहर लेना है। २७. यदि इस मनुष्य पर्याय में सत्-असत् का विवेक जागृत कर लिया, अपने चिदानन्द
स्वरूप को जान लिया तो जीवन धन्य हो जायेगा, क्योंकि सत्य की उपलब्धि से ही मानव जीवन की सार्थकता है और यदि इस जन्म में चैतन्य स्वरूप को नहीं जाना तो महान हानि है। धीर पुरूष समस्त जीवों में मैत्रीभाव रखते हैं और आत्मा को परमात्म स्वरूप समझते हैं, वे ज्ञानी देह का त्याग करके अमरत्व को प्रदान करते हैं, अर्थात् इस शरीर के बंधन से मुक्त होकर अमृत स्वरूप परमात्मा
हो जाते हैं। २८.सत् उसे कहते हैं जो सदा है, जिसका कभी अभाव नहीं होता, जो नित्य सत्य चिदानन्द मयी है जो भूत भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में और समस्त अवस्थाओं में सम एवं एकरूप है, आनन्द स्वरूप है वही सबका झाता, आश्रय, प्रकाशक और धर्म का आधार है। शास्त्र जिसे 'अप्पा सो परमप्या' आदि
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कहकर जिसकी ओर संकेत करते हैं जो एक मात्र चैतन्य धन सच्चिदानन्द
स्वरूप है वही सत्स्वरूप, मैं स्वयं हूँ। २९.जिस प्रकार कपड़ों के बिना गहने बोझ मात्र हैं, वैराग्य के बिना ब्रह्म विचार व्यर्थ
है, रोगी शरीर के लिये भांति-भांति के भोग व्यर्थ हैं, आत्म श्रद्धान के बिना जप-तप कार्यकारी नहीं है, जीब के बिना सुंदर शरीर व्यर्थ है, उसी प्रकार धर्म
के बिना सारा जीवन ही व्यर्थ है। ३०. यह ज्ञान विज्ञान सब विद्याओं का राजा है, सब कलाओं में श्रेष्ठ है, अत्यंत
पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाला, अविनाशी परम अक्षर स्वरूप है। अक्षर का अर्थ है 'न क्षरति इति अक्षरः' जिसका कभी क्षरण या क्षय नहीं होता वही अक्षर है ऐसा ज्ञान विज्ञान मयी शुद्धात्मा मैं स्वयं हूँ जो इस देह
देवालय में वास कर रहा है। ३१. श्रद्धा का अर्थ है - सच्चे देव - परमात्मा, सद्गुरू और सतशास्त्र में आदर पूर्वक प्रत्यक्ष की भांति विश्वास करना, यह विश्वास होता है अत: करण की शुद्धि से । अंत:करण की शुद्धि होती है- साधन से, और साधन होता है विश्वास से । इस प्रकार यह सभी एक दुसरे के पूरक हैं, सहायक हैं। इसलिये जिन बचनों पर श्रद्धा और विश्वास करके हमें अविलम्ब आत्म हित के साधन
में लग जाना चाहिये। ३२. आलस्य मनुष्य का महान शत्रु है, आलसी मनुष्य संसार में रहता हुआ अपने
सांसारिक कार्यों में सफल नहीं हो पाता, फिर आलसी व्यक्ति परमार्थ में किस प्रकार सफलता प्राप्त कर सकेगा ? अत: अंतर में जागो, आलस्य को त्यागो,
निज हित में लागो इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता है। ३३. मनुष्य से प्राय: गल्तियां हो जाती हैं, जिस मनुष्य से गल्तियां न हों वह मनुष्य
नहीं होगा बल्कि भगवान होगा और जो मनुष्य गल्लियां करके उन्हें सुधार नहीं तो वह भी मनुष्य नहीं होगा क्योंकि
जो गलती पर करे गलती उसे शैतान कहते हैं । जो गलती न समझता हो उसे हैवान कहते हैं । जो गलती कर सुधरता हो उसे इंसान कहते हैं।
जो गलती छोड़कर बैठा उसे भगवान कहते हैं । ३४. पाप रूप कार्य करने का मन में विचार करने से और रूचि पूर्वक उन भावों में रस
लेने से आत्म-बल क्षीण होता जाता है और साधना पथ से विपरीत, धर्म मार्ग से भिन्न है लक्षण जिनका ऐसे पाप भावों हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह,
कामना, बासना आदि में रस लेने से जीव धर्म मार्ग से च्यूत हो जाता है इसलिये आत्मार्थी साधक को स्वभाव की रूचि बढ़ाना चाहिये और विभावों में रस बुद्धि
का त्याग करना चाहिये। ३५. इस जगत में आत्म तत्व स्वयंभू सर्वज्ञ शुद्ध है। स्वयंभू आत्म सत्ता है जो स्वयं
से ही है, उसका होना किसी दूसरे के हाथ में नहीं, उसका अस्तित्व स्वयं में ही है। सर्वज्ञ का अर्थ है जो जानने योग्य था वह सब जान लिया और शुद्ध का अर्थ
है सदा पवित्र निर्दोष ऐसा है आत्म तत्व । ३६. अपनी कमजोरियों को मन जानता है, वह उन्नति होने के समय उन्हीं कमजोरियों
की याद दिलाता है और उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। मन, मोह-माया का ही रूप है जो साधक को भ्रमित करता है। सजग व्यक्ति का कर्तव्य है कि ज्ञान से अपनी कमजोरी को न छिपाये और मन के चक्कर से बचे तब ही
कल्याण संभव है । ३७. मैं आत्मा शरीर के बराबर हूँ, मैं आत्मा ब्रह्म स्वरूपी हूँ, मैं आत्मा कर्म मलों से
रहित हूँ, मैं आत्मा चैतन्य लक्षण वाला हूँ, मैं आत्मा अनित्य भावों से भिन्न ज्ञान स्वरूपी हूँ ऐसा निरंतर चिंतन करने से आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त होता है। जो जीव स्व-पर का यथार्थ निर्णय कर वस्तु स्वरूप स्वीकार करता है वह
सम्यग्दृष्टि सच्चा पुरुषार्थी है। ३८. जो 'असत् है उसका कभी अस्तित्व नहीं है और जो 'सत्' है उसका कभी
अभाव नहीं है, अर्थात् वह सदा शाश्वत स्वभाव है। यह सत् ही परमात्मा परम ब्रह्म स्वरूप है। वस्तुत: इस सत् की उपलब्धि मानव जीवन का प्रधान ही नहीं बल्केि एकमात्र लक्ष्य है । सत् स्वरूप शुद्ध चैतन्य स्वभाव की प्राप्ति के लिए ही
यह मनुष्य भव मिला है। ३९. शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है, मृत्यु दिनोंदिन निकट आ रही है, वह कब
आ जाये इसका कोई भरोसा नहीं है इसलिये पुरूषार्थ पूर्वक धर्म की आराधना में संलग्न हो जाओ। मनुष्य जन्म महान पुण्य के योग से प्राप्त हुआ है, इस अवसर को व्यर्थ न गंवाओ, जो मानव शरीर देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, देवता भी जिसको प्राप्त करने के लिए तरसते हैं वह अवसर तुम्हें सहज में प्राप्त हो गया है
इसलिए अब चूको मत,दांव लगाओ तो बेड़ा पार हो जायेगा। १०.जो जो कार्य या व्यवहार तुम दूसरों से अपने लिये चाहते हो, वैसा ही तुम दूसरों
के साथ करो और जैसा कार्य या व्यवहार तुम दूसरों से अपने लिये नहीं चाहते बैसा तुम भी दूसरों के प्रति मत करो, यही धर्म का सार है जो मानव मात्र के लिये आचरणीय है।
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४१. दूसरों का कभी बुरा मत करो और न बुरा चाहो । तुम्हारे चाहने या करने से किसी
का बुरा नहीं होगा, प्रत्येक जीव का भला-बुरा उसके अपने कर्म, कारण रूप में विद्यमान होंगे और जो फलदानोन्मुख (उदय रूप) होंगे, तभी उसका भला-बुरा होगा परन्तु किसी का बुरा चाहते ही तुम्हारा बुरा तो निश्चित रूप से हो ही
गया। १२. जिससे अपना तथा दूसरों का परिणाम में अहित होता हो वही पाप है, और
जिससे अपना तथा दूसरों का हित होता हो वही पुण्य है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जो आत्मा को अपवित्र मलिन करे वह पाप है और जो आत्मा को पवित्र होने में साधन बने, वह पुण्य है। संसार में पाप दु:ख का कारण
है और पुण्य सुख का कारण है। ४३. दूसरों का अहित चाहने और करने वाले का कभी हित नहीं होता और दूसरों का
हित चाहने और करने वाले का कभी अहित नहीं होता । हमारा अहित या नुकसान हमारे ही कर्म के उदय से होता है, दूसरा उसमें कुछ भी नहीं कर सकता, यदि कोई वैसी चेष्टा करता है तो वह अपने लिये ही बुराई का बीज बोता है और जो स्वयं अपने लिये अहित कार्य करता है, वह दया का पात्र है, द्वेष का
पात्र नहीं। ४४. किसी भी स्थिति, अवस्था, प्राणी, पदार्थ या किसी वस्तु आदि से जो जीव सुखी
होने की आशा रखता है, वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता, वह सदा ही निराश रहेगा, फलस्वरूप दु:खी रहेगा। वस्तुत: सुख किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है, सुख का सागर अंतस में लहरा रहा है, अंतर में देखें तो सहज सुखी हो जायें। जहां सुख है ही नहीं वहां ढूंढने से तो वह कभी मिलने वाला नहीं है। सुख अपने स्वभाव में
है वहीं दूँढो, यही सुखी होने का सच्चा उपाय है। ४५. सुख-दु:ख किसी वस्तु या स्थिति में नहीं है, और न ही कोई सुख-दु:ख देता
है। मन की अनुकूलता में सुख है और प्रतिकूलता में दुःख है। यदि हम ज्ञान की दृष्टि बना लें और अपने को निर्लिप्त मात्र ज्ञाता दृष्टा मान लें, स्वीकार कर लें तो हर परिस्थिति में अनुकूलता-प्रतिकूलता की मान्यता समाप्त हो जायेगी और समता भाव का जागरण हो जायेगा फिर सुख-दु:ख से परे हम आनंद को प्राप्त
कर सकेंगे। ४६. किसी को कुछ देकर अहसान की भावना तो करो ही मत, बल्कि बदले में उससे
कृतज्ञता भी मत चाहो और न प्रचार करो - उसी की वस्तु उसे दी गयी है यह समझकर इसे भूल जाओ । विशेष यह कि अपने द्वारा किसी का कभी कुछ हित हुआ हो उसे भूल जाओ, दूसरे के द्वारा अपना कभी अहित हुआ है उसे भूल
जाओ। दूसरे के द्वारा अपना कुछ हित हुआ हो उसे याद रखना चाहिये और
अपने द्वारा कभी किसी का अहित हुआ हो उसे याद रखना चाहिये। ४७. धन की तृष्णा और भोगों की लिप्सा ही जीव के संसार की बंधन का कारण है,
जीब इनसे कभी तृप्त नहीं हो सकता । संसार में संतोष भाव वाला व्यक्ति ही सुखी रहता है, असंतोषी व्यक्ति दु:खी बना रहता है। भोगों की प्राप्ति से भोग इच्छा शांत नहीं हो सकती बल्कि ईधन में घी डालने से जैसे अग्नि अधिकाधिक बढ़ती है उसी प्रकार भोगेच्छा में वृद्धि होती है। ___जो संतुष्ट है, निष्काम है, तथा आत्मा में ही रमण करता है उसे जो सुख मिलता है वैसा सुख काम भोग की लालसा में और धन की इच्छा से इधर-उधर
दौड़ने वालों को कभी नहीं मिल सकता। ४८. माया के झपट्टे में आकर बड़े-बड़े लोग भी चकरा जाते हैं. पहले चाहे जितने
धैर्यशील बनते रहे हों, विपत्ति की चोट उन्हें विचलित कर देती है। सम्मान पाते-पाते आदत इतनी बिगड़ जाती है कि अपमान होते ही, वे अपने को काबू में नहीं रख पाते । शत्रुता का चिन्तन करते-करते वे उसके प्रवाह में इतने बह जाते हैं कि अपने आपको संभाल नहीं पाते । धैर्य का बांध टूट जाता है। उनकी कार्यशैली भी मानवीयता से गिर जाती है यह आसुरी वृत्ति के लक्षण हैं और माया के चक्र में, माया के भंवर में उलझा हुआ जीव इस तरह की पतन रूप
प्रवृत्ति का शिकार बन जाता है। ४९. ममता फांसी है, समता सिंहासन है, जीव ममता से बंधता है और समता से
मुक्त होता है । ममत्व भाव अर्थात् कुछ भी मेरा है ऐसा मानना ही बंधन है, स्वभाव से विलक्षण अचैतन्य, जड़ पदार्थ आत्मा मय नहीं हो सकते और उनमें 'मम' भाव से अपनत्व का संबंध बनाना ही दुःख का कारण है। कुछ भी अपना है ऐसा मानना ही दुःख है, कुछ भी अपना नहीं है ऐसा श्रद्धान ही सुख है। ममता से जीव दु:खी रहता है, और समता सदा ही सुख स्वरूप है इसलिये ममत्व भाव छोड़कर निर्ममत्व भाव का विचार चिंतन मनन करना चाहिये इसी में जीवन का
सार है। ५०. संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव को अनादि काल बीत गया और जिस
जिस शरीर को भी इसने धारण किया उस उस शरीर में ही 'मैं' का अहं भाव किया अर्थात् हर पर्याय में उस शरीर को ही 'मैं' माना किन्तु अपने चैतन्य स्वरूप को नहीं जाना यही अज्ञान महान द:खों का घर है। यह अज्ञानी जीव शरीरादि संयोगी जड़ पदार्थों को तो अपने मानता है किन्तु कोई भी अचेतन
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पदार्थ ने आज तक इस जीव को अपना नहीं माना, यह जानते समझते हुए भी
हे आत्मन् ! तुम अनजान बन रहे हो, यही बड़ा आश्चर्य है। ५१. अपने आत्म स्वरूप का सच्चा बोध होना ही धर्म है, आत्म स्वरूप की अनुभूति
होना ही सम्यकदर्शन है यही धर्म का मूल है, दृष्टि अपनी ओर करो तो अपने में ही निहित अनंत आनंद स्वरूप निज परमात्मा का दर्शन हो जायेगा । धर्म कहीं बाहर नहीं है, और बाहर ढूंढने से कभी मिलने वाला भी नहीं है । दृष्टि का परोन्मुखी होना ही अधर्म और संसार का कारण है अनादि काल से पर पदार्थों में इष्टता की बुद्धि होने के कारण आत्मदर्शन, सम्यक् दर्शन नहीं हो पा रहा है जबकि सम्यकदर्शन स्वयं ही शुद्धात्मा है, अपनी ओर दृष्टि करो यही धर्म को
प्राप्त करने का उपाय है। ५२. जीव अपनी मिथ्या, भ्रम पूर्ण मान्यताओं के कारण दुःखी, भ्रमित और परेशान
रहता है। अपने सत्स्वरूप को समझने का मनुष्य जन्म में मौका मिला है, अपने स्वभाव को जान ले, पहिचान ले तो अनादि कालीन भव भ्रमण का अभाव हो जायेगा और संसार की यात्रा समाप्त हो जायेगी । अज्ञान से परे अपने ज्ञान स्वरूप की प्रतीति होने पर मिथ्या मान्यताओं, भ्रम और दुःखों का अवसान
होगा। ५३. वस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करना, जो जैसा है उसे वैसा ही मानना यथार्थ
श्रद्धान है इसी को सम्यकदर्शन या परमात्म दर्शन कहते हैं। बुद्धि रूपी पैनी छैनी से आत्मा और अनात्मा का बोध प्रगटा लो, निर्विकल्प होकर एक बार अपने स्वभाव को जान लो, यही प्रयोजनीय है, संकल्प-विकल्प मन के भाव हैं, आत्मा का स्वभाव नहीं, इसलिये बुद्धि के विचारों से, मन के संकल्प विकल्पों से परे सर्व को सर्व अवस्थाओं में, दशाओं में जो मात्र जानने वाला है वही मैं हूँ ऐसी स्वानुभूति ही कल्याण का उपाय है। ५४.शंकाओं से भय पैदा होते हैं, शंकित व्यक्ति हमेशा भयभीत रहता है और
नि:शंकित व्यक्ति सदैव निर्भय रहता है । भय ही दुःख है, निर्भयता ही सुख है। मैं शरीर हूँ या आत्मा हूँ, ऐसी शंका के कारण ही स्वरूप का निर्णय नहीं होता, एक निश्चय के अभाव में, शंकित भाववश व्यर्थ ही दु:ख उठाना पड़ रहा है, गुरुदेव तारण स्वामी सच्चे गुरू हैं, जो जगा रहे हैं, उनकी श्रद्धा भी सच्ची
तभी होगी जब स्वरूप का निश्चय करके निशंक हो जाओ। ५५. आत्म स्वरूप की सच्ची श्रद्धा और सत्पुरुषार्थ के द्वारा आत्मा, परमात्म पद
को प्रगट कर सकता है। मोह माया, ममता एवं राग-द्वेष आदि विकारी भावों पर
विजय प्राप्त कर कोई भी मनुष्य आत्मा से परमात्मा हो सकता है। इसके लिए
अनिवार्य रूप से आवश्यक यह है कि वह जीव अपने आत्म स्वरूप को समस्त रागादि विभावों से तथा पुण्य-पाप आदि कर्मों से परे अपने आत्म स्वरूप को ध्रुव शुद्ध अविनाशी देखे, अर्थात् अपने शुद्धात्मा की अनुभूति करे इस उपाय से कोई
भी मनुष्य मुक्ति के अनंत सुख को प्राप्त कर सकता है। ५६. सत्य को स्वीकार करना ही हमारा परम कर्तव्य है, सत्य स्वरूप शुद्धात्मा का
दर्शन जीवन को मंगलमय बनाने का एकमात्र उपाय है। आत्म दर्शन निर्मल चित्त में होता है, जिस प्रकार मलिन दर्पण में आदमी को अपना चेहरा दिखाई नहीं देता उसी प्रकार राग से और पापों से मलिन चित्त में हमें शुद्धात्मा का दर्शन नहीं हो सकता । राग और ज्ञान स्वभाव दो अलग-अलग वस्तुयें है, ज्ञान जानता है और राग जानने में आता है । ज्ञान ज्ञायक है, राग ज्ञेय है, ज्ञेय से भिन्नत्व
भासित होना ही ज्ञान स्वभाव को जानना कहलाता है। ५७. संसार भय और दु:खों का स्थान है, जिस प्रकार मिट्टी की खदान से मिट्टी
निकलती है, सोने की खदान से सोना, हीरे की खदान से हीरा निकलता है उसी प्रकार संसार की खान से दु:ख निकलता है। संसार से वैराग्य भाव जाग्रत करने पर ही संसार के स्वरूप को यथार्थतया समझा जा सकता है, संसार से राग करके संसार के स्वरूप को समझा जाना संभव नहीं है। जो जीव संसार से वैराग्य का चिंतन करते हैं वे संसार को अनृत अर्थात् क्षणभंगुर असत, अशरण और दुःखों
का भाजन समझते हैं। ५८. जिस जीव का झुकाव संसारी पदार्थों की तरफ होता है उसकी बुद्धि उसी ओर
का निर्णय करती है, चित्त में तद् विषयक चिंतायें होती हैं और अहंकार बढ़ जाता है जिससे जीव जन्म-जन्मांतर तक संसार के दुःख भोगता है । इसके विपरीत, जिस जीव का झुकाव धर्म के प्रति होता है उसकी बुद्धि सत्-असत् का निर्णय करने में प्रवृत्त होती है, चित्त में चिंतन होता है, और अहंकार टूटता है जिससे सच्चे सुख को प्राप्त कर लेता है और संसार के दुःखों से मुक्त हो
जाता है। ५९.संसारी जीवन में वर्तमान समय में मनुष्य मानसिक तनाव की बीमारी से ग्रसित
है, इस तनाव को दूर करने के लिये व्यक्ति व्यसन और नशा आदि का सहारा लेता है किन्तु इन औपचारिक उपायों से मन के तनाव को दूर नहीं किया जा सकेगा। मानसिक तनाव और चिंताओं से मुक्त होने के लिये यह दो सूत्र अत्यंत उपयोगी हैं - (१) धैर्य और विवेक पूर्वक परिस्थिति को समझना तथा परिस्थितियों से प्रभावित न होना । (२) यह चिंतन करना कि 'होने वाले को टाला नहीं जा
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सकता और नहीं होने वाले को किया नहीं जा सकता' । इस चिंतन के बल पर
ही जीवन तनाव मुक्त हो सकता है। ६०.जीवन को सुखमय बनाने के लिए दो महामंत्र हैं,१. धर्म का श्रद्धान २. कर्म का
विश्वास । धर्म से ही जीव का हित होगा । पाप, अधर्म, अन्याय, अनीति स्पष्ट रूपेण पतन के अहित के कारण हैं, इसलिए जीवन में धर्म की सच्ची श्रद्धा होना चाहिए और सांसारिक संयोगी जीवन में कर्म का विश्वास रखना आकुलता से बचाने वाला है। प्रत्येक जीव का वर्तमान परिणमन उसके पूर्व कृत कर्मोदयानुसार चल रहा है ऐसा विचार कर आकुलता नहीं करना, कर्म का
विश्वास रखना यही जीवन को सुखमय बनाने का आधार है। ६१.शुभ कर्म चित्त की शुद्धि के लिये किये जाते हैं किन्तु कर्म करने से वस्तु अर्थात्
आत्मोपलब्धि नहीं होती, आत्म स्वरूप की सिद्धि तो विचार, चिंतन भेद ज्ञान पूर्वक ही होती है। करोड़ों जन्म तक जीव करोड़ों कर्म करके भी स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता, इनसे चित्त शुद्धि अवश्य होती है । भेदज्ञान पूर्वक जड़-चेतन का विवेक होने पर जो आत्म बोध रूपी अग्नि प्रकट होती है वह
अज्ञान जनित समस्त कर्मों को जड़ मूल से नष्ट कर देती है। ६२. वस्तु का अस्तित्व अजर-अमर है कोई भी वस्तु न कभी उत्पन्न होती है और
न नष्ट होती है अर्थात् वस्तु का अस्तित्व कभी नष्ट नहीं होता, मात्र अवस्थाओं में परिवर्तन होता है जिसे पर्यायी परिणमन कहते हैं। हमारी दृष्टि पर्यायी परिणमन पर रहती है इसलिए हम दुःखी बने रहते हैं, स्वभाव दृष्टि हो तो इसी क्षण सुखी हो जायें । जो जीव पर्यायों में ही अच्छा-बुरा मानता रहता है, राग-द्वेष करता है, वह अज्ञानी है और जो पर्यायों में समभाव धारण कर
स्वभाव की साधना-आराधना करता है वह ज्ञानी है। ६३. परिस्थितियों से भागने में कल्याण नहीं है, परिस्थितियों के प्रति जागने में
कल्याण है । पलायनवाद से धर्म सिद्ध नहीं होता, धर्म अंतर्जागरण का नाम है। जो जागता है वह संसार से भागता है अर्थात् अपना आत्म कल्याण करने में प्रवृत्त हो जाता है । अज्ञान मिथ्यात्व सहित शुभ आचरण का पालन करना मोक्ष मार्ग को प्रशस्त नहीं करता, मोक्ष मार्ग सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान पूर्वक सम्यकचारित्र का पालन करने से बनता है । सम्यकदर्शन की प्रगटता ही
अंतर्जागरण कहलाता है। यही धर्म का मूल आधार है। ६४. संसार रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, शरीर में आत्म बुद्धि होना उसका अंकुर है,
इस वृक्ष में राग रूपी पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर (स्तम्भ) तना है, प्राण शाखायें हैं, इन्द्रियां उपशाखायें हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न
हुआ दु:ख फल है तथा जीव रूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है। अज्ञान मोह से संसार की वृद्धि होती है । सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र के पालन
करने पर ही जीव इस संसार रूपी वृक्ष के कर्म फलों के भोग से मुक्त होता है। ६५. वर्तमान भौतिकवादी युग में भोगाकांक्षा की लिप्सा से ग्रसित हर आदमी माया
के पीछे दौड़ लगा रहा है इसी कारण अशान्ति, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार सारे देश में फैल रहा है। हमारे मन में, जिस प्रकार माया मोह के प्रति राग है, रूचि है, उसी प्रकार धर्म के प्रति अध्यात्म के प्रति प्रीति भाव पैदा हो जाय तो स्वयं का कल्याण तो होगा ही, समाज और देश का भी उद्वार हो जायेगा । अध्यात्म हमारे जीवन का मूल स्रोत है अत: आध्यात्मिक जीवन बनाने में ही
मानव जीवन की सार्थकता है। ६६.सहनशीलता, नम्रता और मधुर व्यवहार यदि हमारे जीवन में नहीं है तो विद्या,
बुद्धि और अन्य कलाओं का जीवन में होने का कोई महत्व नहीं है। जीवन में सहनशीलता, धैर्य, दया, परोपकार आदि सद्गुरू होते हैं तो जीवन उन्नत होता है। अच्छाइयों से मनुष्य का विकास होता है और दुर्गुणों से विनाश होता है इसलिये गुण और दोष दोनों के स्वरूप को जानकर दोषों का त्याग करना और गुणों का ग्रहण करना यही विवेकवान जीव का कर्तव्य है, गुणों के ग्रहण करने से
ही आत्मा के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। ६७. गुणों में आचरण करना ही धर्म का आचरण है, धर्माचरण से जीवन पवित्र बनता
है और अधर्म से अपवित्र बनता है। मनुष्य जन्म धर्म से सुशोभित हो पवित्र हो तभी इस जन्म की सार्थकता है। आत्मा अनंत गुणों का भण्डार है, एक बार अपने अनंत वैभव का दर्शन करें तो पर्याय की पामरता दूर होने में एक पल भी
न लगे। ६८. दूसरों के अवगुण देखने से पर दोष दर्शन की वृत्ति जागती है इसलिये विवेकवान
व्यक्ति को दूसरों के दोषों को देखने की भावना नहीं रखना चाहिये । सदगुणों को अपनाना और दोषों को त्यागना विवेकवान इन्सान की पहिचान है। अपने गुणों का छिपाना चाहिये और दूसरे के दोषों को ढंकना चाहिये यह धर्मात्मा जीव का सहज व्यवहार है और यही जीवन शैली है जिसके माध्यम से ईर्ष्या रहित सुखी जीवन जिया जा सकता है। ६९. हृदय में सद्भावनाओं का स्थान न होने पर, धर्म भावना खो जाने पर और
अज्ञानता की परिणति बलबती होने पर क्रोध पैदा होता है। क्रोध, जीव को धर्म से दूर कर देता है । क्रोध से प्रीति, वात्सल्य नष्ट हो जाता है, मित्र भी शत्रु हो जाता है। क्रोध के कारण परिवार और समाज भी अशांत हो जाते हैं, जहाँ कलह
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और बैर विरोध होता है वहां नरक बन जाता है और क्रोध जब बदला लेने की भावना में बदल जाता है तब बैर बन जाता है । वस्तुत: क्रोध अचार है और बैर मुरब्बा है। जिस प्रकार अग्नि से अग्नि कभी शांत नहीं होती उसी प्रकार क्रोध से क्रोध कभी समाप्त नहीं होता, क्रोध अशांति को पैदा करता है और क्षमा
धर्म, शांति का निधान है। ७०. बिनय मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है, विनम्रता सुख की सहेली है। विनय से मोक्ष
का द्वार खुलता है। अहंकार जीव को पतन की ओर ले जाता है, अज्ञान से अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकार ही संसार की जड़ है। अहंकार की मदिरा में उन्मत्त व्यक्ति दूसरे की बात नहीं सुनना चाहता, अहंकार ऐसा नशा है जिसमें उन्मत्त होकर मनुष्य माता-पिता, गुरू और धर्म की भी विनय नहीं करता उसे
दूसरे के गुण भी दिखाई नहीं देते। ७१.अहंकार से विनय नष्ट होती है, विनयवान झुकता है, अहंकारी अकड़ता है।
कुछ प्राप्त करने के लिये झुकना अनिवार्य है। विनय से विद्या प्राप्त होती है, विद्या से ज्ञान मिलता है और ज्ञान ही सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय है। अहंकार तोड़ता है, विनम्रता जोड़ती है। अहं से अधर्म और विनय से धर्म का प्रादुर्भाव होता है, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव को अनन्तानुबंधी मान होता है। सम्यकदर्शन होने पर अनन्तानुबंधी मान का अभाव और उत्तम मार्दव धर्म प्रगट
होता है। ७२. मनुष्य के अहंकार पर चोट पड़ने पर क्रोध उभरकर सामने आ जाता है। धन
का, पद का, वैभव का, ज्ञान का तथा अन्य कितनी ही वस्तुओं का अहंकार करके मनुष्य स्वयं पतन का मार्ग बनाता है। जो पदार्थ नष्ट हो जाने वाले हैं उनका अहंकार करना अज्ञानता है। अहंकार करके जो व्यक्ति अपने को बड़ा मानता है, वास्तव में वह सबसे छोटा होता है जो प्राणी क्रोध, अहंकार आदि मानसिक विकारों पर विजय प्राप्त कर लेता है वही संसार में श्रेष्ठ माना जाता है। अहंकार का बोझ सिर पर रखकर कोई भी जीव संसार सागर से पार नहीं हो
सकता, अहंकार का त्याग ही यथार्थ जीवन है। ७३. सरलता मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है। सरल स्वभाव होना वह गुण है, जिससे
मनुष्य देवता के समान माना जाता है । स्वभाव की सरलता से मनुष्य के व्यक्तित्व में निखार आता है । सरलता दैवीय संपत्ति है और कुटिलता आसुरी वृत्ति है। कुटिलता, मन, वचन, काय की अनेक रूप परिणति का नाम है अर्थात् मन में कुछ और, वचन में कुछ और, शरीर में कुछ और होता है या यह कि अंतर-बाहर समानता का न होना ही कुटिलता है। मनुष्य मन में खोटे विचार करता है, वचन में कृत्रिम मिठास रूप मायाचारी पूर्वक बोलता है और शरीर से
कुछ और ही क्रिया करता है इसी विविधता को मायाचार कहते हैं। ७४. सरलता धर्म है, कुटिलता अधर्म है । कपट रूप व्यवहार करने से लोगों का
विश्वास नष्ट हो जाता है। कपट रूप मायाचार करने से मित्रता का भी अभाव हो जाता है। सज्जनता की पहिचान सरलता से ही होती है। सज्जन सरल और दुर्जन कुटिल होते हैं। संसार में सभी जीवों को अपनी करनी का फल भोगना पड़ता है, इसलिये सदविचार, सदवचन और सदाचरण सम्पन्न हमारा जीवन होना चाहिये । सरलता हमारा श्रेष्ठ गुण है, इसी से जीवन में आत्म हित का
मार्ग प्रशस्त होता है। ७५. सत्य से जीवन की बगिया सुगंधित होती है। निज शुद्धात्म स्वरूप के दर्शन
करना ही सत्य धर्म है । असत् भाव और पर पदार्थों के ममत्व में पड़कर हम सत्य स्वरूप से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। असत्य से जीव का पतन और सत्य से उन्नति का मार्ग बनता है। संसार में वाणी को सत्य माना जाता है। व्यवहार में सत्य बचन बोलना मनुष्य को प्रामाणिक बनाता है। निश्चय से जिसका कभी मरण नहीं होता, जो त्रिकाल विद्यमान रहता है यह अस्तित्व ही सत्य
है। इस सत्य का दर्शन ही जीवन की सार्थकता का संदेश है। ७६.श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने कहा था कि जिस प्रकार मनुष्य
बाह्य पदार्थों का लोभ करता है उसी प्रकार सच्चे धर्म को प्राप्त करने का लोभ करे तो जीव अनादि-अनन्त भव सागर से पार हो सकता है। धर्म ही संसार से पार होने की नौका है। क्रोध लोभ आदि विकारों का अभाव ही आत्मा की शुचिता है यही धर्म है। मानसिक विकारों से परे होकर निर्विकार स्वभाव की
अनुभूति ही पवित्रता का उपाय है, यही आत्म कल्याण करने का मार्ग है। ७७. मोही को अपने हिताहित का कोई विचार नहीं रहता, अन्धा पागल बेहोश,
भयभीत, चिन्तित रहता है। ७८. जो मिला है - उसका सदुपयोग करने वाला विवेकवान है। दुरूपयोग करने
वाला अज्ञानी मूर्ख है। ७९. सच्चे देव गुरू धर्म की श्रद्धा, सत्संग स्वाध्याय सामायिक करना, सदाचारी
जीवन होना, सम्यग्दर्शन की पात्रता है। ८०. भेदज्ञान के अभाव में ही भय-चिन्ता घबराहट होती है। ८१. जिम्मेदारी, रिश्तेदारी - दुनियादारी जिसके गले जितनी बंधी है, वह उतना
चिन्तित परेशान रहेगा। ८२. चाह से चिन्ता, मोह से भय और दुःख, राग से संकल्प-विकल्प होते हैं। ८३. तीन लोक के नाथ को, नहीं स्वयं का ज्ञान ।
भीख मांगता फिर रहा, बना हुआ हैवान ।। ८४. ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुक्ति चाहता है और वह उसके सत्पुरुषार्थ से मिलती है।
अज्ञानी - मिथ्यादृष्टि मन की तृप्ति चाहता है और वह कभी होती नहीं है। ८५. पाप के उदय में जीव धन के पीछे मरता है और पुण्य के उदय में विषयों में
रमता है।
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________________ आध्यात्मिक चिंतन बोध 86. अध्यात्म का अर्थ है - अपने स्वरूप को जानना / 87. अध्यात्म का फल - जीवन में सुख शान्ति होना / 88. ज्यों-ज्यों भौतिक प्रगति हो रही है, मानव की मानवता विलुप्त होती जा रही है। 89. धर्म के नाम पर - परस्पर घृणा का प्रचार करने वाले तथा युद्ध भड़काने वाले धर्म के तत्व एवं उद्देश्य को नहीं समझते / 90. सन्त - किसी एक धर्म के खूटे से नहीं बंधते हैं, सत्य का सत्कार करते हैं, वह चाहे जहां भी प्राप्त हो। 91. निराशा को भगाओ, आशा को जगाओ, आज और अभी जगाओ - जीवन का यही सन्देश है। 92. जो जीवन में रूचि नहीं लेता है, उसे जीने का अधिकार नहीं है। 93. जहां आत्म श्रद्धान है तथा कर्मों का विश्वास है, वहां चिन्ता और भय नहीं रह सकते। 94. परमात्मा पर श्रद्धा और कर्मों का विश्वास करने वाले को कभी भय चिन्ता नहीं हो सकते। 95. प्रसन्न-हंसमुख और मस्त स्वभाव के बिना, आप चिड़चिड़े क्रोधी, दुःखी और रक्तचाप आदि रोगों के शिकार हो जायेंगे। 96. व्यर्थ ही जिम्मेदारी बड़प्पन का बोझ लादकर, हम खिल-खिलाकर हंसना भूल गये - गमगीन रहने लगे हैं। 97. मनुष्य का भविष्य हाथ की रेखाओं और ग्रहों द्वारा कदापि बांधा नहीं जा सकता। 98. मनुष्य की इच्छा शक्ति और पुरुषार्थ ही मनुष्य का भविष्य बनाती है। 99. शास्त्र की बात भी बुद्धि रहित होकर मानने से धर्म की हानि होती है। १००.जो जीव आत्म स्वरूप का चिन्तन नहीं करता और नाशवान विनाशीक वस्तुओं की चिन्ता करता है वह आत्म स्वरूप को उपलब्ध नहीं कर सकता, चिंता आकूलता-व्याकूलता को बढ़ाती है। चिन्तन आत्म शांति को प्रगट करता है। आत्म चिन्तन करके ही जीव सुखी रह सकता है। जिस प्रकार हम दुनियां की चिंता करते हैं उसी प्रकार अपना चिंतन करें तो सुख का अनुभव होगा। पापों को उत्साह पूर्वक करना, संसार की चिंताएं करना दु:ख का कारण है। आत्म चिंतन ही आत्म उन्नति का एकमात्र मार्ग है। चौदह ग्रंथ रचे हित जान, गुरूवर तारण तरण महान / / तुमने शुद्धातम को पाया, जन-जन को वह मार्ग बताया / पाया सम्यक् दर्शन ज्ञान, गुरूवर तारण तरण महान.... सेमरखेड़ी में दीक्षा धारी, निसई क्षेत्र समाधि प्यारी / सूखा निसई का करूँ बखान, गुरूवर तारण तरण महान.... गुरूवर तेरी महिमा न्यारी, हम सब तेरे बने पुजारी / करते हम तेरा गुणगान, गुरूवर तारण तरण महान.... ज्ञान ज्योति से किया उजाला, आतम ही सब जानने वाला / करते चेतन का यश ज्ञान, गुरूवर तारण तरण महान.... आठों कर्म महा दुःखदाई, इनसे बचना मेरे भाई / इनको तू अपना न जान, गुरूवर तारण तरण महान... ज्ञान दान स्वाध्याय हेतु उपलब्ध सत्साहित्य * श्री मालारोहण टीका - 25 रूपया * श्री पंडित पूजा टीका - 15 रूपया * श्री कमल बत्तीसी टीका - 25 रूपया * अध्यात्म अमृत (जयमाल, भजन) - १०रूपया * अध्यात्म किरण - १०रूपया (जैनागम 1008 प्रश्नोत्तर) * अध्यात्म भावना - ५रूपया हैं अध्यात्म आराधना, देवगुरू शास्त्र पूजा - ५रूपया * ज्ञान दीपिका भाग-१,२,३ (प्रत्येक)- 5 रूपया प्राप्ति स्थल ब्रह्मानंद आश्रम,संत तारण तरण मार्ग पिपरिया,जिला-होशंगाबाद (म.प्र.)४६१७७५ 2. श्रीतारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र 61, मंगलवारा, भोपाल (म.प्र.)४६२००१ जय तारण तरण OP इति /