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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
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११. दर्शन से ही ज्ञान है, और ज्ञान से चारित्र है। चारित्र की परिपूर्णता ही, शुद्ध मुक्ति पवित्र है ॥ ज्ञान की अनुभूति में ही, अंतर्ध्वनि को सुनो । शून्य बिन्दु में लीन होकर, अपने को ही तुम गुनो । आत्म महिमा के गुणों को, कैसे हम वर्णन करें। आत्म महिमा को सुमर के, हम भवोदधि से तरें । १२. अनुकूलता और प्रतिकूलताओं का कैसा ही जोर हो।
और विषम परिस्थितियों का, ओर हो न छोर हो । ज्ञानी तो ज्ञायक सदा, ज्ञायक सदा ज्ञानी रहे । ज्ञान और वैराग्य की, अनुपम छटा छाई रहे ॥ ऐसा ही दृढ श्रद्धान हो, और ज्ञान भी अविचल रहे । ब्रह्माण्ड भी पलटा करे, तो भी नि:शंक अचल रहे । १३. आतम अनंत गुणों मयी, ध्रुव धाम में जम जायेगी। चैतन्य में ही रमण कर, शिव धाम निज पद पायेगी । स्वरूप में स्थिर रमणता, शीघ्र ही अब आयेगी । क्षपक श्रेणी मांड आतम, मुक्ति पद को पायेगी । शरीरादि संयोग न्यारे हैं, सदा न्यारे दिखें । ज्ञानी को निज आत्मा में, लहर आतम की दिखे । १४. स्वात्म रस में लीन होकर, स्वात्म रस को ही चखे । शुद्धात्मा की सुरत रख, निज आत्म अनुपमता लखे । ज्ञान की अनन्त पर्यायें, ज्ञानी को दिख रही । ज्ञानी की ही ज्ञानधारा में, सतत् वह बह रहीं ।। ज्ञान के ही साधकों ने, ज्ञान का रस चख लिया । ज्ञान में होकर समर्पण, ज्ञान को ही भज लिया । १५. ज्ञान में निज सिद्ध प्रभु को, मैं सदा देखा करूँ। शुद्धात्मा में मगन होकर, मैं भवोदधि से तरूँ ॥ हे वीतरागी आत्मा, तुझको सदा भजती रहूँ । तुझसे सदा निज मैत्री कर, निज ममलता में मैं बहूँ ॥ आत्मा रंग रूप से न्यारा, सदा न्यारा रहे । पांच इन्द्रिय और विषयों से सदा न्यारा रहे ॥
१६. अंग और उपांग, आतम से बहुत ही दूर हैं। राग द्वेषादि विभावों से भी अति ही दूर है ॥ ज्ञेय भी निज आत्मा, उपादेय भी निज आत्मा । ज्ञायक तो ज्ञायक रहे, निज ज्ञायक है शुद्धात्मा ।। ज्ञान अद्भुत है अचल, और ज्ञान निर्विकारी है। चिदानन्द चैतन्य पर, ज्ञानी ने दृष्टि डाली है ॥ १७. ज्ञानी को तो स्वप्न में भी, स्व-पर निर्णय भासता। कैसा भी होवे परिणमन, उसको कभी न आंसता ।। वर्तमान के समय को ही, वह सदा निज में लखे । भेदज्ञान और तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप में नित बहे ॥ द्रव्य दृष्टि होकर अब, ममल स्वभाव में विश्राम हो । शील समता की धनी, आतम में ही आराम हो । १८. तीनों लोकों से ही न्यारी, मेरी है निज आत्मा। कर्म सब निर्जरित होंगे, मैं बनूं परमात्मा ॥ शुद्ध सम्यक् से भरा, मेरा हृदय परिपूर्ण है । निज आत्मा पुरूषार्थ करने में, सदा तल्लीन है । उग्र पुरूषार्थ के द्वारा, होगी निज की साधना । बंधन टूटें इक पलक में, हो सतत् आराधना ।। १९. दिव्य दृष्टि खोल देखो, तुम स्वयं परमात्मा। ध्यान में एकाग्र होना है, तुझे शुद्धात्मा ॥ अतीन्द्रिय आनन्द का, धारी है निज परमात्मा । और अनन्त चतुष्टयी, ज्ञानी सकल परमात्मा ॥ राग द्वेषादि विकारों से, रहित अविकार है । रत्नत्रयालंकृत चिदातम, गुणों का भण्डार है ॥ २०. सिद्ध स्वरूपी आत्म की, महिमा स्वयं में पूर्ण है। ज्ञान और आनन्द का, सागर स्वयं परिपूर्ण है ॥ पात्रता जितनी पकेगी, वह चले मुक्ति नगर । परिपूर्ण शुद्ध धुवधाम पर ही, उसकी है सम्यक् नजर | ममल स्वभावी आत्मा में, ही सदा वह रत रहे । ज्ञान का मारग सदा सूक्ष्म, निरालम्बी रहे ॥