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अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - ११७
तर्ज - तुम्हीं मेरी पूजा.... श्रद्धा करूँ मैं, भक्ति करूं मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं। १. निज आत्मा मेरी, सर्वोदयी है।
दृष्टि पसारो तो, परमोदयी है ॥ पूजन करूँ मैं, अर्चन करूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं.... शुद्ध स्वरूपी है, आत्मा हमारी। ज्ञानमयी अनुपम,कर्मों से न्यारी॥ स्वानुभूति रस पान करूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं.... ज्ञान स्वभाव में, गोते लगाऊँ। ममल स्वभाव में, बह बह जाऊँ॥
परमानन्द का ध्यान धरूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं.... ४. मैं उड़ चली अब, सुखों के गगन में।
रत्नत्रयी, आत्मा के लगन में ॥ चतुष्टयमयी आत्म रस को चलूँ मैं, निज आत्मा में रमण करूँ मैं....
अध्यात्म चन्द्र भजनमाला
भजन - ११९
तर्ज - हम तो ठहरे परदेशी..... ज्ञान है स्वरूप तेरा, ज्ञान रूप हो जाओगे ।
ज्ञान की ही महिमा तेरी, ज्ञान में ही जम जाओगे। १. ज्ञान तेरा अमर रूप है, ज्ञान में विशुद्धता भरी। ज्ञान ही को लख ले प्रभु, ज्ञान ही रत्नत्रय लड़ी ॥ ज्ञान को निहार के विभु, ज्ञान में ही रम जाओगे.... २. ज्ञान में नित विश्राम कर, ज्ञान ही में अलख जगा। ज्ञान में ही विचरण कर, अष्ट कर्मों को भगा ॥ ज्ञान की दिव्य ज्योति से, शिव पद तुम पाओगे... ३. आत्मा निज ज्ञान से, ही सदा भरपूर है । ज्ञान ही से ज्ञान को सदा, पाया तो जग दूर है । अलख निरंजन मयी, आतम में रम जाओगे... ४. ज्ञान ने ही ज्ञान से कहा, ज्ञान ने ही ज्ञान से सुना। ज्ञान ने ही ज्ञान को चखा, ज्ञानी की निजानन्द दशा ॥ ज्ञान की ही सहजता से, अनन्त चतुष्टय को पाओगे...
*मुक्तक
विदाईगीत - ११८ जाते हैं गुरूवर अपने नगर से, रोको रे रोको कोई उनको डगर से॥ १. सोचा था गुरूवर हमने, बासौदा में आओगे।
और आकर के, हमें समझाओगे। होगा उपकार मेरा, फिर से पधार के.... रोको रे... २. पास जो रह के, ज्ञान दीपक जलाया। ज्योति प्रकाशक बन के, आत्म ज्ञान पाया। धर्म की वर्षा हुई, आत्म ज्ञान पाके...रोको रे... ३. वचनामृत का पान किया, शुद्ध आत्म ज्ञान लिया। सिद्ध स्वरूपी परमात्म, से लगाया जिया ॥ धीर बंधाओ गुरूवर, शुभ आशीष से...रोको रे... ४. चहुँ दिश यश फैले, यही मेरी भावना। आत्म ज्योति हिय में बसे, यही सद्भावना ॥ मोह ममता छूट जाये, शुद्धातम के ध्यान से...रोको रे...
मेरी आतम की निराली शान है। गर मैं चाहूँ धर्म पर कुर्बान है ॥ सुख दु:ख दाता कोई न जग में है। कर्म की बेड़ी को तोडूं क्षण में है।
प्यारी आतम में समाने का ध्यान करना है। निज से निज को पाने का ज्ञान करना है। इस शरीर के दु:ख में नहीं भरमाना है। इससे मुँह मोड़ अपने आपको ही पाना है।