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________________ आध्यात्मिक चिंतन बोध आध्यात्मिक चिंतन बोध पदार्थ ने आज तक इस जीव को अपना नहीं माना, यह जानते समझते हुए भी हे आत्मन् ! तुम अनजान बन रहे हो, यही बड़ा आश्चर्य है। ५१. अपने आत्म स्वरूप का सच्चा बोध होना ही धर्म है, आत्म स्वरूप की अनुभूति होना ही सम्यकदर्शन है यही धर्म का मूल है, दृष्टि अपनी ओर करो तो अपने में ही निहित अनंत आनंद स्वरूप निज परमात्मा का दर्शन हो जायेगा । धर्म कहीं बाहर नहीं है, और बाहर ढूंढने से कभी मिलने वाला भी नहीं है । दृष्टि का परोन्मुखी होना ही अधर्म और संसार का कारण है अनादि काल से पर पदार्थों में इष्टता की बुद्धि होने के कारण आत्मदर्शन, सम्यक् दर्शन नहीं हो पा रहा है जबकि सम्यकदर्शन स्वयं ही शुद्धात्मा है, अपनी ओर दृष्टि करो यही धर्म को प्राप्त करने का उपाय है। ५२. जीव अपनी मिथ्या, भ्रम पूर्ण मान्यताओं के कारण दुःखी, भ्रमित और परेशान रहता है। अपने सत्स्वरूप को समझने का मनुष्य जन्म में मौका मिला है, अपने स्वभाव को जान ले, पहिचान ले तो अनादि कालीन भव भ्रमण का अभाव हो जायेगा और संसार की यात्रा समाप्त हो जायेगी । अज्ञान से परे अपने ज्ञान स्वरूप की प्रतीति होने पर मिथ्या मान्यताओं, भ्रम और दुःखों का अवसान होगा। ५३. वस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करना, जो जैसा है उसे वैसा ही मानना यथार्थ श्रद्धान है इसी को सम्यकदर्शन या परमात्म दर्शन कहते हैं। बुद्धि रूपी पैनी छैनी से आत्मा और अनात्मा का बोध प्रगटा लो, निर्विकल्प होकर एक बार अपने स्वभाव को जान लो, यही प्रयोजनीय है, संकल्प-विकल्प मन के भाव हैं, आत्मा का स्वभाव नहीं, इसलिये बुद्धि के विचारों से, मन के संकल्प विकल्पों से परे सर्व को सर्व अवस्थाओं में, दशाओं में जो मात्र जानने वाला है वही मैं हूँ ऐसी स्वानुभूति ही कल्याण का उपाय है। ५४.शंकाओं से भय पैदा होते हैं, शंकित व्यक्ति हमेशा भयभीत रहता है और नि:शंकित व्यक्ति सदैव निर्भय रहता है । भय ही दुःख है, निर्भयता ही सुख है। मैं शरीर हूँ या आत्मा हूँ, ऐसी शंका के कारण ही स्वरूप का निर्णय नहीं होता, एक निश्चय के अभाव में, शंकित भाववश व्यर्थ ही दु:ख उठाना पड़ रहा है, गुरुदेव तारण स्वामी सच्चे गुरू हैं, जो जगा रहे हैं, उनकी श्रद्धा भी सच्ची तभी होगी जब स्वरूप का निश्चय करके निशंक हो जाओ। ५५. आत्म स्वरूप की सच्ची श्रद्धा और सत्पुरुषार्थ के द्वारा आत्मा, परमात्म पद को प्रगट कर सकता है। मोह माया, ममता एवं राग-द्वेष आदि विकारी भावों पर विजय प्राप्त कर कोई भी मनुष्य आत्मा से परमात्मा हो सकता है। इसके लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक यह है कि वह जीव अपने आत्म स्वरूप को समस्त रागादि विभावों से तथा पुण्य-पाप आदि कर्मों से परे अपने आत्म स्वरूप को ध्रुव शुद्ध अविनाशी देखे, अर्थात् अपने शुद्धात्मा की अनुभूति करे इस उपाय से कोई भी मनुष्य मुक्ति के अनंत सुख को प्राप्त कर सकता है। ५६. सत्य को स्वीकार करना ही हमारा परम कर्तव्य है, सत्य स्वरूप शुद्धात्मा का दर्शन जीवन को मंगलमय बनाने का एकमात्र उपाय है। आत्म दर्शन निर्मल चित्त में होता है, जिस प्रकार मलिन दर्पण में आदमी को अपना चेहरा दिखाई नहीं देता उसी प्रकार राग से और पापों से मलिन चित्त में हमें शुद्धात्मा का दर्शन नहीं हो सकता । राग और ज्ञान स्वभाव दो अलग-अलग वस्तुयें है, ज्ञान जानता है और राग जानने में आता है । ज्ञान ज्ञायक है, राग ज्ञेय है, ज्ञेय से भिन्नत्व भासित होना ही ज्ञान स्वभाव को जानना कहलाता है। ५७. संसार भय और दु:खों का स्थान है, जिस प्रकार मिट्टी की खदान से मिट्टी निकलती है, सोने की खदान से सोना, हीरे की खदान से हीरा निकलता है उसी प्रकार संसार की खान से दु:ख निकलता है। संसार से वैराग्य भाव जाग्रत करने पर ही संसार के स्वरूप को यथार्थतया समझा जा सकता है, संसार से राग करके संसार के स्वरूप को समझा जाना संभव नहीं है। जो जीव संसार से वैराग्य का चिंतन करते हैं वे संसार को अनृत अर्थात् क्षणभंगुर असत, अशरण और दुःखों का भाजन समझते हैं। ५८. जिस जीव का झुकाव संसारी पदार्थों की तरफ होता है उसकी बुद्धि उसी ओर का निर्णय करती है, चित्त में तद् विषयक चिंतायें होती हैं और अहंकार बढ़ जाता है जिससे जीव जन्म-जन्मांतर तक संसार के दुःख भोगता है । इसके विपरीत, जिस जीव का झुकाव धर्म के प्रति होता है उसकी बुद्धि सत्-असत् का निर्णय करने में प्रवृत्त होती है, चित्त में चिंतन होता है, और अहंकार टूटता है जिससे सच्चे सुख को प्राप्त कर लेता है और संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। ५९.संसारी जीवन में वर्तमान समय में मनुष्य मानसिक तनाव की बीमारी से ग्रसित है, इस तनाव को दूर करने के लिये व्यक्ति व्यसन और नशा आदि का सहारा लेता है किन्तु इन औपचारिक उपायों से मन के तनाव को दूर नहीं किया जा सकेगा। मानसिक तनाव और चिंताओं से मुक्त होने के लिये यह दो सूत्र अत्यंत उपयोगी हैं - (१) धैर्य और विवेक पूर्वक परिस्थिति को समझना तथा परिस्थितियों से प्रभावित न होना । (२) यह चिंतन करना कि 'होने वाले को टाला नहीं जा
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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