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________________ आध्यात्मिक चिंतन बोध आध्यात्मिक चिंतन बोध सकता और नहीं होने वाले को किया नहीं जा सकता' । इस चिंतन के बल पर ही जीवन तनाव मुक्त हो सकता है। ६०.जीवन को सुखमय बनाने के लिए दो महामंत्र हैं,१. धर्म का श्रद्धान २. कर्म का विश्वास । धर्म से ही जीव का हित होगा । पाप, अधर्म, अन्याय, अनीति स्पष्ट रूपेण पतन के अहित के कारण हैं, इसलिए जीवन में धर्म की सच्ची श्रद्धा होना चाहिए और सांसारिक संयोगी जीवन में कर्म का विश्वास रखना आकुलता से बचाने वाला है। प्रत्येक जीव का वर्तमान परिणमन उसके पूर्व कृत कर्मोदयानुसार चल रहा है ऐसा विचार कर आकुलता नहीं करना, कर्म का विश्वास रखना यही जीवन को सुखमय बनाने का आधार है। ६१.शुभ कर्म चित्त की शुद्धि के लिये किये जाते हैं किन्तु कर्म करने से वस्तु अर्थात् आत्मोपलब्धि नहीं होती, आत्म स्वरूप की सिद्धि तो विचार, चिंतन भेद ज्ञान पूर्वक ही होती है। करोड़ों जन्म तक जीव करोड़ों कर्म करके भी स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता, इनसे चित्त शुद्धि अवश्य होती है । भेदज्ञान पूर्वक जड़-चेतन का विवेक होने पर जो आत्म बोध रूपी अग्नि प्रकट होती है वह अज्ञान जनित समस्त कर्मों को जड़ मूल से नष्ट कर देती है। ६२. वस्तु का अस्तित्व अजर-अमर है कोई भी वस्तु न कभी उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है अर्थात् वस्तु का अस्तित्व कभी नष्ट नहीं होता, मात्र अवस्थाओं में परिवर्तन होता है जिसे पर्यायी परिणमन कहते हैं। हमारी दृष्टि पर्यायी परिणमन पर रहती है इसलिए हम दुःखी बने रहते हैं, स्वभाव दृष्टि हो तो इसी क्षण सुखी हो जायें । जो जीव पर्यायों में ही अच्छा-बुरा मानता रहता है, राग-द्वेष करता है, वह अज्ञानी है और जो पर्यायों में समभाव धारण कर स्वभाव की साधना-आराधना करता है वह ज्ञानी है। ६३. परिस्थितियों से भागने में कल्याण नहीं है, परिस्थितियों के प्रति जागने में कल्याण है । पलायनवाद से धर्म सिद्ध नहीं होता, धर्म अंतर्जागरण का नाम है। जो जागता है वह संसार से भागता है अर्थात् अपना आत्म कल्याण करने में प्रवृत्त हो जाता है । अज्ञान मिथ्यात्व सहित शुभ आचरण का पालन करना मोक्ष मार्ग को प्रशस्त नहीं करता, मोक्ष मार्ग सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान पूर्वक सम्यकचारित्र का पालन करने से बनता है । सम्यकदर्शन की प्रगटता ही अंतर्जागरण कहलाता है। यही धर्म का मूल आधार है। ६४. संसार रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, शरीर में आत्म बुद्धि होना उसका अंकुर है, इस वृक्ष में राग रूपी पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर (स्तम्भ) तना है, प्राण शाखायें हैं, इन्द्रियां उपशाखायें हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुआ दु:ख फल है तथा जीव रूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है। अज्ञान मोह से संसार की वृद्धि होती है । सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र के पालन करने पर ही जीव इस संसार रूपी वृक्ष के कर्म फलों के भोग से मुक्त होता है। ६५. वर्तमान भौतिकवादी युग में भोगाकांक्षा की लिप्सा से ग्रसित हर आदमी माया के पीछे दौड़ लगा रहा है इसी कारण अशान्ति, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार सारे देश में फैल रहा है। हमारे मन में, जिस प्रकार माया मोह के प्रति राग है, रूचि है, उसी प्रकार धर्म के प्रति अध्यात्म के प्रति प्रीति भाव पैदा हो जाय तो स्वयं का कल्याण तो होगा ही, समाज और देश का भी उद्वार हो जायेगा । अध्यात्म हमारे जीवन का मूल स्रोत है अत: आध्यात्मिक जीवन बनाने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। ६६.सहनशीलता, नम्रता और मधुर व्यवहार यदि हमारे जीवन में नहीं है तो विद्या, बुद्धि और अन्य कलाओं का जीवन में होने का कोई महत्व नहीं है। जीवन में सहनशीलता, धैर्य, दया, परोपकार आदि सद्गुरू होते हैं तो जीवन उन्नत होता है। अच्छाइयों से मनुष्य का विकास होता है और दुर्गुणों से विनाश होता है इसलिये गुण और दोष दोनों के स्वरूप को जानकर दोषों का त्याग करना और गुणों का ग्रहण करना यही विवेकवान जीव का कर्तव्य है, गुणों के ग्रहण करने से ही आत्मा के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। ६७. गुणों में आचरण करना ही धर्म का आचरण है, धर्माचरण से जीवन पवित्र बनता है और अधर्म से अपवित्र बनता है। मनुष्य जन्म धर्म से सुशोभित हो पवित्र हो तभी इस जन्म की सार्थकता है। आत्मा अनंत गुणों का भण्डार है, एक बार अपने अनंत वैभव का दर्शन करें तो पर्याय की पामरता दूर होने में एक पल भी न लगे। ६८. दूसरों के अवगुण देखने से पर दोष दर्शन की वृत्ति जागती है इसलिये विवेकवान व्यक्ति को दूसरों के दोषों को देखने की भावना नहीं रखना चाहिये । सदगुणों को अपनाना और दोषों को त्यागना विवेकवान इन्सान की पहिचान है। अपने गुणों का छिपाना चाहिये और दूसरे के दोषों को ढंकना चाहिये यह धर्मात्मा जीव का सहज व्यवहार है और यही जीवन शैली है जिसके माध्यम से ईर्ष्या रहित सुखी जीवन जिया जा सकता है। ६९. हृदय में सद्भावनाओं का स्थान न होने पर, धर्म भावना खो जाने पर और अज्ञानता की परिणति बलबती होने पर क्रोध पैदा होता है। क्रोध, जीव को धर्म से दूर कर देता है । क्रोध से प्रीति, वात्सल्य नष्ट हो जाता है, मित्र भी शत्रु हो जाता है। क्रोध के कारण परिवार और समाज भी अशांत हो जाते हैं, जहाँ कलह
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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