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________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला |१. भजन - १२६ तर्ज - राखी धागों का त्यौहार.... फंसा है चेतन मोह जाल में, निज पर भेद विचार। आतम करले तू उद्घार॥ १. पंचेन्द्रिय के भोगों को तू, छोड़ दे मेरे भाई । विषय वासना में फंस करके, अपनी सुधि बिसराई । क्रोध मान माया से झुलसे, लोभ से डूबे मझधार ॥ आतम करले तू उद्धार.... २. काल अनादि भ्रमत बीत गये, आतम को नहिं जाना। स्वर्ग नरक पशुगति में तूने, धरे अनन्ते बाना ॥ अब नरतन को पाकर पगले, समता उर में धार ।। आतम करले तू उद्धार..... ३. आतम तेरी है हितकारी, ज्ञान सिन्धु में डूबे । जन्म मरण से रहित सदा हो, भव सागर से ऊबे ॥ वीतरागता को धारण कर, मिले मुक्ति दरबार || आतम करले तू उद्धार.... भजन - १२७ ध्रुव भावना हे आतम अनुपम दृगवासी, हम शरण तुम्हारी आये हैं। लख भेदज्ञान से अन्तर को, निज स्वानुभूति रस पाये हैं। चिन्मय मूरति मनहर सूरति, ये रूप अलौकिक न्यारा है। अन्तर दृष्टि हो जाने से, निज परिणति में हर्षाये हैं। निज झनक झनक वीणा बाजे, चित्त में उल्लास समाया है। है शांत शिरोमणि दीपशिखा, स्वानुभूति से उर को सजाया है। है राग भिन्न और ज्ञान भिन्न, लख निज दर्शन को पाया है। निज दीप्तिमान ज्योति जागी, निज रास रचाने आये हैं । गुण अपरंपार भरे निज में, लख निज का दर्शन पाया है। है अजर अमर और अविनाशी, अविरल सुख पाने आये हैं। है स्वानुभूति से भरी हुई, चिन्मय सत्ता की धारी है। अनन्त गुणों की मूरति ये, रत्नत्रय से सजाने आये हैं । ॐ नमः सिद्धं को जप करके, सत शील से हदय सजाया है। तीन लोक के ऊपर सिद्ध शिला, हम उसे सजाने आए हैं। आतम अनुपम और विलक्षण है, निज ज्ञानामृत से भरी हुई। अब पूर्णानन्द बिहारी हो, धुव से रास रचाने आये हैं । *मुक्तक आत्मा जब कभी परमात्म बन जाता है। कर्म की टूटे लड़ी शुद्धात्मा को भजता है ॥ अय सुनो आत्मा को सुमरने वाले । खुद में खुद ही समाओ तो आत्मा पा लो॥ *मुक्तक* करना क्या है कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। आत्म शान्ति मिले इसी की चाह करता है । शरीरादि पर है ये सबक रोज मिलता है। इससे नाता तू तोड़ दे, क्यों इससे जुड़ता है। संसार के सागर से तिरने के मार्ग को तू चुन । मोक्षमार्ग के सारभूत सिद्धान्तों को तू सुन ॥ शास्त्राभ्यास के मनन चिंतन से आत्मा को गुन । बस अन्तर आत्मा में रहे मुक्ति पाने की धुन ॥
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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