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________________ आध्यात्मिक चिंतन बोध ११६ * आध्यात्मिक चिंतनबीच * (अध्यात्म रत्न बाल ब्र. पू. श्री बसंत जी महाराज के प्रवचनों से संकलित) दारा - कु. समीक्षा डेरिया गंजबासौदा १. अध्यात्म धर्म ही सारभूत है, जड़ पदार्थों की आसक्ति से युक्त जीवन में आनंद के पुष्प नहीं खिलते । भौतिक वस्तुओं की प्रीति पूर्वक बाह्य जगत से प्रभावित होकर जीव धर्म मार्ग से विमुख हो रहा है, धर्म मार्ग से विमुखता ही दुःख और अशान्ति का कारण है। “संयोगानाम् वियोगश्च" जो संयोग हैं वे नियम से छूटने वाले हैं, जीव उनमें तो प्रीति पूर्वक ममकार और अहंकार करता है और जो शुद्धात्म तत्व शुद्ध ज्ञान चेतनामयी सदा शाश्वत है, उसे भूलकर अध्यात्म धर्म से विमुख हो रहा है जबकि बिना अध्यात्म के जीव सुखी नहीं हो सकता। २. देह देवालय में विराजमान आत्मा ही परमात्मा है, प्रत्येक आत्मा कारण परमात्मा स्वरूप है। शुद्धात्म तत्व आत्मा का स्वभाव त्रिकालवर्ती शुद्ध है, वह किसी भी पर्याय में रहे, किसी भी अवस्था में रहे, स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता । यही शुद्ध स्वभाव आत्मा का शाश्वत स्वभाव है। स्वभाव से प्रत्येक आत्मा परमात्मबत् है । जो जीव इस सत्य को स्वीकार कर अपने स्वभाव का निश्चय करता है वही जीव संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। ३. शरीर में आत्म बुद्धि होने को मिथ्यात्व कहते हैं, मिथ्यात्व ही सबसे बड़ा पाप है, इसी के कारण जीव हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह इत्यादि अनेक पाप करते हैं। ४. मोह राग द्वेष के कारण तृष्णा, परिग्रह और ईर्ष्या की भावनायें मन में उत्पन्न होती हैं। मन के भाव अज्ञान जनित हैं जो शुद्धात्म स्वरूप की शरण ग्रहण करने पर मिटते हैं। इस महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने के लिये आत्मा का उपयोग आत्मा में ही लगाना है, तभी अनादि से बंधे हुए कर्म बंधनों से छूट पायेंगे | मोह रागादि विभाव परिणामों से जीव ने जिन कर्मों का उपार्जन किया है वे ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा ही नष्ट हो सकते हैं। ५. जो जीव संसार से वैराग्य का चिंतन करते हैं वे वैराग्यवान जीव संसार को भय और द:खों का घर जानते हैं, संसार क्षणभंगुर, असत्य, अशास्वत है. संसार के इस सत्य स्वरूप को विरक्त जीव ही जानता है। रागी जीव संसार में फंसा हुआ, संसार के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता । "संसरणमेव संसारः" संसरण ही संसार है। जीव मिथ्यात्व, कषायों से युक्त होकर चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता है, अनेक शरीरों को क्रमश: ग्रहण करना फिर छोड़ना इस परिवर्तन को संसार कहते हैं। जिस धन का हम परिग्रह कर रहे हैं, यह धन सुख का कारण नहीं है। धन के उपार्जन में द:ख, धन की रक्षा में द:ख, धन के खर्चा होने में द:ख और चोरी चला जाय तो अति दु:ख होता है। जिसके आदि, मध्य, अन्त सभी दुःखमय हैं ऐसा धन सुख का कारण कैसे हो सकता है ? जीव, धन से सुख प्राप्त होने की मिथ्या कल्पना संजोये हुए है इसी कारण सुखी नहीं हो पाता और धर्म के मर्म को भी उपलब्ध नहीं हो रहा है। ७. जो संसार शरीर भोगों से विषय वासनाओं से विरक्त हो, अपरिग्रही हो, पाखण्ड रहित हो, ज्ञान ध्यान तप में लीन, निर्ग्रन्थ, कषायों की ग्रन्थि जिसके अंतस में न हो, वही सच्चा गुरू है, ऐसे सच्चे गुरू की शरण में जाने से ही आत्म कल्याण का मार्ग प्राप्त होता है। जो संसार सागर से स्वयं तरे तथा अन्य जीवों को भी संसार से पार लगाये वही सच्चा गुरू है। ८. सच्चे गुरू 'आप तिरै पर तारें' की उक्ति को चारितार्थ करने वाले लकड़ी की नौका की तरह होते हैं जो स्वयं भी तरते हैं और जगत के जीवों को भी तारते हैं। कुगुरू 'जन्म जल उपल नाव पत्थर की नौका की तरह 'आप डुबन्ते पांडे ले डूबे जिजमान' की उक्ति को चारितार्थ करते हैं। जो संसार सागर में स्वयं डूबते हैं और उनकी शरण में जो जीव जाते हैं वे भी संसार में भटकते हैं। व्यवहार से सच्चे गुरू निर्ग्रन्थ दिगम्बर भावलिंगी संत हैं। जो जीवों को सन्मार्ग में लगाते हैं इसलिये सच्चे गुरू की शरण ग्रहण कर अपने कल्याण का मार्ग बनाना चाहिये। ९. इन्द्रियों के विषय-भोगों में लिप्त प्राणी अपना कल्याण नहीं कर पाता, अज्ञान वश जीव विषय बासनाओं की पूर्ति करने में ही सुख मान रहा है। वैराग्य भाव का जागरण ही आत्म कल्याण का सोपान है। आत्मार्थी साधक को प्रशम, संबेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य भाव सहित आत्म साधना के अंतर्गत-संवेग भाव की दृढ़ता के लिये संसार के स्वरूप का और वैराग्य भाव जगाने के लिये शरीर के स्वरूप का विचार करना चाहिये । वैराग्य भाव से ही जीव के मोह और संसार के बंधन शिथिल होते हैं।। १०. प्रत्येक आत्मा परमात्म स्वरूप है, जिस प्रकार बीज में वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार आत्मा में परमात्म शक्ति विद्यमान है। जिस प्रकार बीज को अनुकूल संयोग मिलने पर उसमें अंकुरण होता है और वह वृक्ष बनने तक की अपनी
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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