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आध्यात्मिक चिंतन बोध
आध्यात्मिक चिंतन बोध
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दूसरे की प्रशंसा सुनकर उन्हें ईर्ष्या होने लगती है और दूसरों की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या के शिकार हो जाना आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी है। अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरों की निंदा करना, दूसरों के सदगुणों को ढकना और असद्गुणों
को प्रगट करना इससे नीच गोत्र कर्म का आस्रव होता है। २०. जिस प्रकार फूल खिलता है तो उसकी सुगंध चारों ओर फैलती है और कोई
दुर्गधित वस्तु सड़ रही तो उसकी दुर्गंध फैलती है, इसी प्रकार गुणवान व्यक्ति का यश सहज ही चहुंओर विकसित होता है और दुर्गुणी व्यक्ति अपयश का पात्र बनता है। आत्म स्वरूप की श्रद्धा, विश्वास हो और रागादि दोषों को साधना के द्वारा दूर करने पर आत्म गुणों का विकास होगा, यह गुणों का विकास ही आत्मबल को जागृत करता है जो पर्यायी बंधनों और मन के विकारों से मुक्त होने का
उपाय है। २१. संसार और मोक्ष अपनी दृष्टि पर ही निर्भर रहते हैं, दृष्टि का परोन्मुखी होना ही
संसार और दृष्टि का आत्म स्वभाव की ओर होना मोक्ष मार्ग का प्रारम्भ है। दृष्टि के परोन्मुखी होने से रागादि भावों की प्रबलता होती है, मन सक्रिय होता है जिससे कर्म आश्रव और बंध होता है। दृष्टि आत्मोन्मुखी रखो इससे मुक्ति का मार्ग बनेगा और आत्मोन्मुखी दृष्टि होने से मन की सक्रियता मिटती है तथा कर्मो
का संवर और निर्जरा होती है। २२. सुखी होना है तो दु:ख के मूल स्रोत को जानकर उससे मुक्त होना होगा, आत्मा
स्वयं सुख स्वरूप है किन्तु अपने सुख स्वरूप का बोध न होना ही अज्ञान है। अज्ञान से मोह उत्पन्न होता है, मोह से इच्छायें पैदा होती हैं, इच्छाओं से आकुलता-व्याकुलता उत्पन्न होती है, यह आकुलता-व्याकुलता ही दुःख है। सुखी होना है तो अज्ञान को दूर करो अर्थात् शरीरादि संयोगों से भिन्न मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, ऐसा स्वीकार करो, इसी श्रद्धा में दृढ रहो । अज्ञान का नाश और सम्यकज्ञान का प्रकाश ही सच्चे सुख का
उपाय है। २३. सहनशीलता का अभाव मनुष्य के अंतरंग में धैर्य को नष्ट कर देता है। परिवार
और समाज में धैर्य के खो जाने से नारकीय वातावरण बनने में देरी नहीं लगती, छोटी-छोटी सी बात में चिड़चिड़े से हो जाना अधीरता की निशानी है। जिस परिवार में कलह और अशांति का वातावरण रहता है वहां नरक है। जिस परिवार में जीवों के मन में समता शांति, प्रेम स्नेह, एक-दूसरे की भावनाओं का आदर
और सम्मान होता है वहीं स्वर्ग है । स्वर्ग और नरक जीव की भावनाओं से बनते हैं। इस जन्म में किये हुए पुण्य-पाप का फल भोगने के लिये उसे स्वर्ग और नरक
में जाना पड़ता है, जो जीव वर्तमान में जैसा जी रहा है इससे ही उसके भविष्यत्
जीवन का फैसला होता है। २४. परिस्थितियां जीव को सुखी-दु:खी नहीं करती, अनुकूलता-प्रतिकूलताएं भी
जीव को सुखी-दु:खी नहीं करती, सुख और दु:ख होने में प्रमुख कारण ज्ञान और अज्ञान है। इसीलिये आचार्य सद्गुरू तारण स्वामी जी महाराज ने सूत्र दिये हैं:ज्ञान प्रमाण सुख, अज्ञान प्रमाण दुःख और अनुभव प्रमाण मुक्ति । जिस जीव के अंतरंग में जितना-जितना सम्यक् ज्ञान प्रकट होता है, वह उतना ही सुखी होता जाता है। जिस जीव के अंतर में अज्ञान जितना गहन होता है वह उतना ही दु:खी रहता है। संसारी जीवन में सुखी होने के लिये सत्-असत् का विवेक जागृत करना अनिवार्य है। सत्-असत् का विवेक जागृत होते ही भय
और शंकायें नष्ट हो जाती हैं और भेद भाव भी मिट जाता है। २५. जो मनुष्य, मानव देह प्राप्त करके इसका वास्तविक लाभ नहीं उठाता और पशु
या पिशाचवत् भोगों के उपार्जन और भोग भोगने में ही लगा रहता है उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ चला जाता है, केवल व्यर्थ ही नहीं जाता बल्कि विषयों की भोग कामना से मनुष्य का विवेक ढक जाता है और वह भोगों की प्राप्ति के लिये
अनेकों पाप कमों में प्रवृत्त होकर दुर्गति की राह बना लेता है। २६. भोग क्षणमात्र के लिये सुख रूप और अनन्त काल के लिये दु:ख देने वाले अनर्थों
की खान हैं इसलिए परम धर्म की प्राप्ति करना ही एक मात्र कर्तव्य है। सत्य स्वरूप शुद्धात्मा की साधना आराधना से ही यह जन्म सफल होगा। विषय भोगों को इस जीवन का लक्ष्य समझकर उन्हीं को प्राप्त करने में जीवन लगाना तो
अमृत के बदले में जहर लेना है। २७. यदि इस मनुष्य पर्याय में सत्-असत् का विवेक जागृत कर लिया, अपने चिदानन्द
स्वरूप को जान लिया तो जीवन धन्य हो जायेगा, क्योंकि सत्य की उपलब्धि से ही मानव जीवन की सार्थकता है और यदि इस जन्म में चैतन्य स्वरूप को नहीं जाना तो महान हानि है। धीर पुरूष समस्त जीवों में मैत्रीभाव रखते हैं और आत्मा को परमात्म स्वरूप समझते हैं, वे ज्ञानी देह का त्याग करके अमरत्व को प्रदान करते हैं, अर्थात् इस शरीर के बंधन से मुक्त होकर अमृत स्वरूप परमात्मा
हो जाते हैं। २८.सत् उसे कहते हैं जो सदा है, जिसका कभी अभाव नहीं होता, जो नित्य सत्य चिदानन्द मयी है जो भूत भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में और समस्त अवस्थाओं में सम एवं एकरूप है, आनन्द स्वरूप है वही सबका झाता, आश्रय, प्रकाशक और धर्म का आधार है। शास्त्र जिसे 'अप्पा सो परमप्या' आदि