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________________ १०१ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला १०२ भजन - १४६ तर्ज - हम परदेशी फकीर, किस दिन.... आतम बड़ी गम्भीर, निज की सुरति रखेगी। धारो मन में धीर, कर्मों से नाहीं डरेगी। आतम की है अमर कहानी, आतम की महिमा हम जानी। सम्यक्दर्शन नीर, निज की सुरति रखेगी.... सुख सत्ता की धारी चेतन, शुद्ध स्वरूप निहारो चेतन । ध्रुवधाम में लगाये जोर, निज में वास करेगी... दृढता की ही मूरति आतम, ज्ञान वैराग्य की धारी आतम। शिव सुख की दातार, ज्ञान की ज्योति जलेगी.... आतम से आतम में मगन है, चेतन चिंतामणी रतन है। आनन्द की दिव्य धार, आतम में लीन रहेगी.... भजन - १४८ तर्ज - तेरा मेरा प्यार अमर... आतम तेरी बात अटल, इसका खुद तू निर्णय कर । राग द्वेष तू कभी न कर, अब जल्दी से निज हित कर॥ १. चैतन्य स्वरूपी आत्मा, शुद्धात्म को लखा करे । आतम अनात्म की परख, वह सदा किया करे ॥ काम क्रोध में कभी न बह, समता में तू हर क्षण रह, आतम... २. गुरूवर हमें सदा, निज धर्म को बता रहे । विषय वासना तजो, सम्यक किरण जगा रहे ॥ आनन्द अमृत को तू चख, ध्रुव आतम को तू अब लख, आतम... माया मिथ्या न रहे, निदान शल्य न रहे। इन्द्रिय भोग न रहे, मान मोह न रहे ॥ निज भावों को निर्मल कर, ममल स्वभावी ही तू रह, आतम... ३. १. भजन - १४७ तर्ज-सारी सारी रात तेरी.... आतम हमें शिव सुख को बताये। अज्ञान से हटाये, हमें निज पद दिखाये रे॥ १. आतम की शरण लही, पाया सुख हमने। ज्ञान की ज्योति गही, झूठे जग के सपने॥ निज पद बताये, अज्ञान से छुड़ाये रे, भव दु:ख मिटाये.... २. बीत गया मिथ्यातम, पायी ज्ञान की निशानी। शुद्धात्मा का ध्यान, करले ओ प्राणी॥ वीतरागता का, ज्ञान ये कराये रे, अक्षय सुःख को दिखाये... ३. अजर अमर आत्मा, ज्ञान का सिन्धु है। चैतन्य चिंतामणी, शिव शून्य बिन्दु है॥ आतम में नित प्रति, अलख लगाये रे, निज ध्यान लगाये... ४. चैतन्य मूरति, मेरी आत्मा है। ज्ञान की सुरति, शुद्धात्मा है। चौरासी दु:ख से छूटे, मुक्ति सुख दिखाये रे, परमात्म पद पाये... भजन - १४९ तर्ज - तेरा मेरा प्यार अमर... आतम तेरी प्रीति अमर, अब तू चल अपने ही घर । शुद्धातम है तेरा घर, पर में उलझ न रह रहकर । अजर अमर आत्मा, निज ज्ञान में बहा करे । नन्द और आनन्द की, अन्तर्ध्वनि सुना करे ॥ आत्म रमण का यह उत्सव, इसमें स्वानुभूति कर...आतम... आत्मा शुद्धात्मा, परमात्मा ही हो गई। शल्य विषय छोड़ के, निज ज्ञान में ही खो गई। सिद्ध स्वरूप ही तेरा घर, उसमें ही तू विचरण कर...आतम... अन्त:करण में, मैं सदा, ज्ञानामृत पिया करूं । मैत्री रहे हर जीव से, सद्ज्ञान में बहा करूं ॥ सुख सत्ता धारी चेतन, अब तू सुख को अक्षय कर...आतम... राग मोह को तजो, मोक्ष सुख पै डग धरो। अनन्त गुण हैं आतम के, इनका तुम सुमरन करो॥ रत्नत्रयमयी आतम के, नित्य प्रति तू दर्शन कर...आतम...
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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