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________________ अध्यात्म चन्द्र भजनमाला अध्यात्म चन्द्र भजनमाला भजन- १३७ शुद्धातम की पुजारी हो आतम,शुद्धातम की पुजारी। कर्म प्रकृतियां हारी हो आतम,शुद्धातम की पुजारी॥ १. ज्ञान ध्यान में लीन रहे नित, पुण्य पाप में अब न लगे चित । धर्म पर दृष्टि धारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी... २. आर्त रौद्र ध्यानों को तज कर, धर्म ध्यान को नित्य प्रति भजकर । त्रय मूढताएं भी हारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी... ३. ज्ञान मार्ग के पथिक बने हम, सिद्ध स्वरूप से पूर्ण सने हम । परमातम पद धारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी.... ४. आनन्द सरोवर में डुबकी लगायें, स्वानुभूति में डूब-डूब जायें। त्रिकाली से की है यारी हो आतम, शुद्धातम की पुजारी... भजन - १३९ तर्ज - आठों कर्मों के बीच अकेली आत्मा... ज्ञानानन्द स्वभावी है मेरी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा। सहजानन्द स्वभावी है मेरी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा। १. शुद्ध भाव में अलख जगाये, ज्ञान ज्योति की ध्वजा फहराये। वो तो परमानन्द स्वभावी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा... २. सिद्ध स्वरूप मेरे मन भाये, मुक्ति पुरी का मार्ग दिखाये। वो तो पूर्णानन्द घन परमात्मा, हां हां परमात्मा... ३. तत्व दृष्टि निज में प्रगटाये, ध्रुव की धुव से रास रचाये। वो तो चेयानन्द मयी मेरी आत्मा, हां हां मेरी आत्मा... ४. रत्नत्रय के बजै बधाये, सत्ता शून्य बिन्दु हो जाये। वो तो केवल सूर्य चमकावे आत्मा, हां चमकावे आत्मा... ५. ममल स्वभाव में गोते लगावे, अमृत रसायन में बह बह जाये। वो तो चैतन्य ज्योति में समाये आत्मा, हां समाये आत्मा... *मुक्तक* भजन- १३८ तर्ज-बहारो फूल बरसाओ.... अनेकों जन्म से स्वामी, आत्म दर्शन को प्यासी थी। मिलायेजन्म अलबेला,सदा से जिसकी आशा थी॥ पाया शुद्धात्म को हमने, अतीन्द्रिय ज्ञान धारी है। अनुपम है विलक्षण है, अद्वितीय निराकारी है। मैं ही आराध्य आराधक, यही सुन्दर अभिलाषा थी...अनेकों... ज्ञान के मार्ग का साधन, आलौकिक और न्यारा है। अटल अविनाशी आतम ने, ज्ञान में ही स्वीकारा है। परम ओंकारमयी आतम, वो ध्रुव शाश्वत सदा से थी...अनेकों... ३. निजातम देव शास्त्र गुरू है, निजातम ही परम गुरू है। परम पुरूषार्थ कर अपना, सुधामृत चखते चुरू चुरू है। त्रिकाली से लगाये लौ, यही शुद्धात्म साधना थी...अनेकों... INITIANIMLINITIATILL रत्नत्रय से विभूषित आत्म की कहानी है । आनन्द कन्द शुद्धात्मा ने यह जानी है ॥ ज्ञानी चेतन आनन्द रस का प्याला है । टंकोत्कीर्ण ध्रुव आतम ही आत्मा का उजाला है । AWWWWWWWWWWWWWWWWWWL आनन्द रस का पान हम सदा किया करते हैं। निज के वैभव पै ध्यान हम सदा दिया करते हैं। धुव शुद्धात्म में अब नित्य विचरने वालो । अखंड अविनाशी शाश्वत सुख को अब पालो ।। ध्यान की चरम अवस्था में साधक आनन्द महोदधि में निमग्न हो जाता है।
SR No.009712
Book TitleAdhyatma Chandra Bhajanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakanta Deriya
PublisherSonabai Jain Ganjbasauda
Publication Year1999
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size1 MB
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